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क्यों जरूरी हैं विश्वविद्यालय?-- मणीन्द्रनाथ ठाकुर

आज के युग में यह विचार करना जरूरी है कि क्या भारत जैसे देश में उच्च शिक्षा पर खर्च करना जरूरी है? आखिर विश्वविद्यालयों पर इतना खर्च क्यों किया जाये? क्यों नहीं विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ा दी जाये? क्या इतने सारे छात्रों को शोध में लगाना उचित होगा?
 

इन सारे प्रश्नों को लेकर हमें सोच-समझ कर ही अपनी राय बनाने का प्रयास करना चाहिए. भारत एक विकासशील देश है और यहां गरीबी और बेरोजगारी बड़ी समस्याएं हैं. ऐसे में हमें बुनियादी जरूरतों पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है. शिक्षा के क्षेत्र में भी प्राथमिक स्तर पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है. लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उच्च शिक्षा पर हमारे खर्च का राष्ट्रहित पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है. हमारे विश्वविद्यालयों में ही विज्ञान, दर्शन, राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र पर मौलिक चिंतन संभव है. समाज के विकास के लिए विश्वविद्यालयों की बहुत जरूरत है.

 

 


वैज्ञानिक तकनीकी में हम पहले से ही दुनिया के विकसित देशों से पीछे है. नतीजा है कि हर छोटी-मोटी तकनीक हमें उनसे महंगी कीमत पर खरीदनी होती है. यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश विकसित राष्ट्रों में शुमार हो, तो हमें केवल सस्ते मजदूर, सस्ती जमीन और बड़े बाजार की अपनी खासियत की जगह बैद्धिक संपदा के विकास पर जोर देना होगा. जनसंख्या का जो फायदा हमें मिला है, उसके उपयोग से अन्वेषण पर जोर देना होगा, ताकि हम तकनीक के क्षेत्र में स्वायत्ता पा सकें.
 

 

 


भारतीय पूंजी को यदि वैश्विक बाजार में अपनी जगह बनानी है, तो भारत में नये तकनीक विकसित करने होंगे. उनसे तकनीकी और पूंजी उधार लेकर हम विकास के नाम पर उन्हें ज्यादा फायदा देंगे.
 

 

 


संभव यह भी है उनके दोयम दर्जे के और बेकार हो गये तकनीक ही हमें मिल पायें. जो कुछ उनके यहां पुराना हो गया है, उसे हमारे बाजार में ठिकाना लगा कर फायदा कमाने की उनकी नीयत से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसलिए अभी हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में जितना खर्च करते हैं, उससे कहीं ज्यादा करने की जरूरत है. इसके लिए विश्वविद्यालयों के विस्तार की जरूरत है; ज्यादा से ज्यादा लोगों को शोध में लगाने की जरूरत है.
 


विज्ञान के क्षेत्र में शोध की जरूरत से लगभग सभी सहमत हैं. लेकिन, आम तौर पर समाजशास्त्र और मानविकी विषयों पर भी बड़े पैमाने पर ध्यान देने की जरूरत है, इस बात से सभी समहमत नहीं होते हैं. जबकि, आज की दुनिया में इन पर ज्यादा खर्च करने की जरूरत है. इस बदलती दुनिया में हमें यह समझना बेहद जरूरी है कि हमारा समाज किधर जा रहा है. कहीं ऐसा न हो कि हम धीरे-धीरे पुनः आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ रहे हों और हमें पता ही न चल पा रहा हो या फिर यह बहुत देर से पता चल पाये. हो सकता है कि हम आर्थिक विकास कर भी लें, लेकिन इस क्रम में हमारा समाज अपनी मानवीयता खो दे.
 

 

 


संभव है कि हम धनी तो हो जायें, लेकिन सुखी न हो सकें; संभव है हम हिंसक समाज में परिणत हो जायें. इसलिए तीव्र परिवर्तन के युग में अपने समाज को समझना, उसके बदलते स्वरूप को समझना आज हमारे लिए बेहद जरूरी है.
 


क्या ही विडंबना है कि हमारे समाज को समझने के लिए विकसित दुनिया के लोग शायद हमसे ज्यादा खर्च करते हैं. बहुत बाद में हमें पता चला कि अपने आप के बारे में हमारी अपनी समझ भी उनसे उधार ली हुई थी. इसका नतीजा सही नहीं होता है. हम जब उनकी दृष्टि से अपने आप को देखते हैं, तो एक तरह की मानसिक गुलामी की स्थिति पैदा होती है.
 

 

 


इस सबसे बचने के लिए हमें बेहतर सामाजिक ज्ञान का सृजन करना होगा और इसके लिए हमें अपने विश्वविद्यालयों पर खर्च करना होगा. शोधार्थियों को सुविधाएं तो देनी ही होंगी, इसके साथ ही उनकी संख्या भी बढ़ानी होगी. यदि हम चाहते हैं कि दुनिया में हमारा महत्व बढ़े, तो हमें अपने आप की कमियों और खासियतों को तो समझना ही होगा, साथ ही हमें बाकी दुनिया को भी बेहतर ढंग से समझना होगा.
 


यदि हम सहमत हैं कि उच्च शिक्षा पर खर्च करना राष्ट्रहित में है, तो दो सवाल और हैं. एक, क्या हमें उच्च शिक्षा को बाजार के हवाले कर देना चाहिए? दूसरा सवाल, क्या विश्वविद्यालयों को स्वायत्ता और बैद्धिक स्वतंत्रता देनी चाहिए? ये दोनों सवाल आपस में जुड़े हुए हैं. बाजार के वर्चस्व के इस युग में हर समस्या का समाधान निजी पूंजी लगती है.
 

 

 


लेकिन, शिक्षा के क्षेत्र में ऐसा करने से अनर्थ हो सकता है. इस विषय पर बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट की अनुशंसा को मान लेना देशहित में नहीं हो सकता है. एक तो इस व्यवस्था में मौलिक शोध के लिए ज्यादा जगह नहीं है. फिर नये अनुसंधानों का उपयोग जनकल्याण की जगह निजी पूंजी को फायदा देने के लिए किया जायेगा. लेकिन, उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि नवीन ज्ञान सृजन के लिए जिस माहौल की जरूरत होती है, बाजार से संबद्ध विश्वविद्यालय उसे मुहैया कराने में सक्षम नहीं हो सकते हैं. कम-से-कम भारत में ऐसा होना संभव नहीं लगता है. क्योंकि, विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वतंत्रता और उसकी स्वायत्ता नवीन ज्ञान सृजन की पहली शर्त है.
 

 

 


यह संयोग की बात है कि मौजूदा भारत में युवा जनसंख्या ज्यादा भी है और उनमें अध्ययन-अध्यापन के लिए रुचि भी है. यह सर्वथा राष्ट्रहित में होगा कि इस स्थिति का लाभ लेने के लिए सरकार उच्च शिक्षा पर खर्च करे और विश्वविद्यालयों में शोध छात्रों के संख्या को बढ़ाये. नये विश्वविद्यालय खोले जायें, शिक्षकों और शोधार्थियों को बेहतर सुविधाएं दी जायें. इस क्षेत्र में निजी पूंजी की सहायता तो ली जा सकती है, लेकिन इसे सर्वथा उनके हाथों में दे देना कतई उचित नहीं होगा.