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क्यों झूठे हैं मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए दिए जा रहे चारों तर्क-- कल्पेश याग्निक

‘जो कुछ भी गोपनीय रखा जाता है, पूरी तरह बताया और समझाया नहीं जाता, अनेक प्रश्न अनुत्तरित रखकर किया जाता है; वह बाद में सड़ने लगता है। चाहे इस तरह किया गया न्याय ही क्यों न हो।
- पुरानी कहावत
मृत्युदंड दिया जाना चाहिए कि नहीं? प्रभावी और मेधावी लब्धप्रतिष्ठितों की स्पष्ट राय है - नहीं? उनके चार तर्क हैं :

1. क्योंकि यह तो ‘आंख के बदले अांख' का विकृत कानून हो जाएगा। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था कि इस तरह तो समूचा समाज अंतत: अंधा हो जाएगा।

2. क्योंकि यह हमें ‘स्टेट किलिंग' का अपराधी बना देता है। यानी हम विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों के आधार पर, कार्यपालिका द्वारा चलाए गए मुकदमे में दोष सिद्ध कर, न्यायपालिका द्वारा मृत्युदंड देते हैं।

3. क्योंकि यह हमें ‘मॉडर्न स्टेट' बनने से रोकता है। हम पाषाणयुगीन देश बने रहते हैं।

4. (और सबसे प्रमुख कारण) : यह दंड ‘डेटरेंट' का काम नहीं करता। यानी किसी भी तरह के तथ्य यह सिद्ध नहीं करते कि एक मृत्युदंड देने से समाज में, अपराधियों में भय फैल गया हो। इस तरह की सज़ा सुनकर बाकी हत्यारे डरकर हत्या करना बंद नहीं कर देते। यानी कोई ‘रोकथाम' नहीं है मृत्युदंड।

और भी कई तथ्य, कारण या तर्क हो सकते हैं - किन्तु वर्षों से ये चार प्रमुख रूप से सुनने में आ रहे हैं। चारों महत्वपूर्ण भी हैं। चारों प्रभावशाली भी हैं। चारों गंभीर भी हैं। ‘असंभव के विरुद्ध' का सौ प्रतिशत विश्वास है कि जब तक कानून में मृत्युदंड का प्रावधान है- वह जहां भी जघन्य अपराध, अनेक हत्याएं, भयावह तरीकों से की गई वारदात व महिलाओं की गरिमा पर किए कुत्सित हमलों जैसे मानव मात्र को शर्मिंदा करने वाले विकृत कुकृत्य हों- तो मृत्युदंड निश्चित दिया जाना चाहिए।
आज का कॉलम सिलसिलेवार इन चार तर्कों के विरुद्ध।

सभी तर्कों का आधार एक ही-
न्याय पर पहला अधिकार पीड़ित का है।
आइए, देखते हैं कैसे?

1. ‘आंख के बदले आंख' का तर्क इसलिए पूरी तरह ग़लत है क्योंकि इसमें हत्यारे के शिकार परिवार कोई बदले की भावना से हत्यारे या उसके परिवार को मिटाने नहीं निकले हैं। राजीव गांधी के अमानुष हत्यारों में से एक संथन को ही लें। मास्टरमाइंड शिवरासन से लगातार मिलकर इस षड्यंत्र को अंत तक पहुंचा रहा था। टेक्नोलॉजी का जानकार, इंजीनियरिंग छात्र। सिरे का शातिर हत्यारा। जब जयललिता सरकार ने संथन सहित पिछले साल 7 हत्यारों को छोड़ दिया - तो देशभर में तहलका मचा। संथन, रविचंद्रन, जयकुमार न जाने क्या-क्या और कैसे-कैसे विस्फोटकों के साथ नलिनी और उसके पति मुरुगन के साथ देश तोड़ने का जाल बुन रहा था। छोड़ने पर हंगामा मचा, वो सही था। किन्तु इन्हीं सात में से तीन पर सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पहले ही दया भी तो दिखाई थी। तब केन्द्र सरकार ने सशक्त शैली और सुदृढ़ शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि हत्यारों पर कतई दया न की जाए। दया किन्तु की गई। जयललिता के राजनीतिक फैसले के बाद जब सरकार ने उपचार याचिका दायर की तो सर्वोच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर कहा : मुजरिमों में पीड़ितों के दर्द का अहसास पैदा किया जाना चाहिए। उनके लिए त्रास झेलना और सज़ा का "धीमा ज़हर" पीना जरूरी है।
स्पष्ट है सर्वोच्च न्यायालय ‘धीमा ज़हर' क्यों देना चाहता था। क्या यह ‘आंख के बदले आंख है? कतई नहीं।

यदि राजीव गांधी की ओर से उनके समर्थक इन तमिलों के नाम पर स्थायी धब्बे बने ऐसे आतंकियों को मिटाने, इनकी हत्या करने निकले होते - तो ‘आंख के बदले आंख' कहा जाता। जबकि सच्चाई तो यह है कि राजीव गांधी परिवार तो हत्यारों को क्षमा कर चुका है। सार्वजनिक दया दिखा चुका है। भले ही न्यायपालिका में इसका कोई अर्थ हो या नहीं।

याकूब या कसाब या अफजल- किसी को भी उन 257 या बाद के धमाकों से तबाह किए गए निर्दोष सैकड़ों परिवारों या परिचितों ने कोई चोट तक नहीं पहुंचाई। स्वयं गहरी चोट खाए ये पीड़ित तो अपने लिए न्याय की गुहार तक ढंग से न लगा पाए। वरना, रात-रात भर सर्वोच्च न्यायालय इनके लिए चलता। दिन भर वकीलों का समूह, उन पीड़ितों के पक्ष में काम करते दिखता और रात-रात भर सर्वोच्च न्यायालय पर दबाव बनातेे दिखता।

कड़वा सच तो यह है कि वे 257 पीड़ित, वास्तव में ‘257' आंकड़ा बनकर रह गए हैं कानून के रखवालों की निगाह में। न्याय कौन दिलाएगा, उन्हें? मृत्युदंड वे देते- तो आंख के बदले आंख होती।

2. स्टेट किलिंग : कहां से हो गई ये स्टेट किलिंग? पहले निचली अदालत। फिर उच्च न्यायालय। लम्बी प्रक्रिया। 22 साल की प्रक्रिया। और सब तरफ छूट। ढेरों तरह से न्यायालय के निर्णयों को चुनौती देने की छूट। स्टेट तो तब आए जब पुलिस को याकूब को गोली से मारने की छूट हो! तुलसी प्रजापति, सोहराबुद्दीन और इशरत जहां जैसे संदिग्ध मुल्ज़िमों के साथ मुठभेड़ करने या फ़र्जी मुठभेड़ दिखाने- सच जो भी हो - वाले पुलिस अफसरों की जान पर बन आई है- वैसी बात होती तो स्टेट किलिंग होती। या सरकारी वकील याकूब पर गोलियां चला रहे होते- तो होती। या गृह मंत्रालय मुकदमा चलने से पहले या दौरान उसे चुपके से यरवड़ा जेल या खुले आम नागपुर सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका देता। या विधि एवं न्याय मंत्रालय, आतंकी को किसी ग्वानतानामो बेे जैसी काली, डरावनी कोठरी में प्रताड़ना दे-देकर मार डालता।

ऐसा तो कुछ नहीं ही हुआ।
‘स्टेट' तो पीड़ितों के बारे में भी जानना नहीं चाह रहा, तो हत्यारों को क्या करने जाएगा?

3. मॉडर्न स्टेट नहीं दिखेंगे - किसे दिखाना चाहते हैं हम आधुनिक राष्ट्र? इंडस्ट्रियलाइज़्ड नेशन्स के समक्ष क्या हमें रैम्प वॉक करना पड़ेगा कि हम मॉडर्न स्टेट हैं? मॉडर्न, देश के सभी नागरिकों को समान अवसर देने के कारण हम हैं ही। मॉडर्न, हमारे पास सभी को न्याय पाने का अधिकार होने के कारण हम हैं ही। महिलाओं को समानता देने के लिए छिड़े राष्ट्रव्यापी संघर्ष में अधिकतर लोगों के सामने आने, साथ देने के कारण हम आधुनिक राष्ट्र पहले ही हैं। अपराध रोकना तो छोटी बात, अपराधियों को सुधारने और उन्हें फिर से अच्छा जीने का मौका देने वाला हमारा देश हर अर्थों में स्वस्थ वातावरण वाला देश है जो समृद्धि में धर्म-वर्ग-वर्ण सभी से ऊपर होकर सोचता है। कानून जहां लगातार समय की मांग के अनुसार बदले जाते हैं। संविधान तक सौ बार से अधिक बदल दिया गया। हमसे अधिक आधुनिक कौन-सा देश है?

हां, जिन्हें विदेशों में तालियां बटोरनी हैं- वे ऐसा सोच सकते हैं।
काश, ऐसा वे पीड़ितों के बारे में सोचते। अधिक आधुनिक हम तब होंगे जब हर पीड़ित में यह भरोसा जगा पाएंगे कि उनके न्याय के लिए सब लड़ेंगे। न्यायालय उन तक आएगा।

4. और सबसे बड़ा झूठ - डेटरेंट। एक बड़ी साधारण किन्तु बड़ी अर्थपूर्ण बात कहना चाहता है यह कॉलम।
पीड़ित का प्रश्न होता होगा- बर्बाद मैं हुआ हूं। पति मैंने खोया है। वो जो धमाके हुए थे- उनमें मेरे नन्हें बेटे का वो नन्हा, गुदगुदा-सा, गोरा हाथ... उसके कोमल शरीर से अलग, टुकड़े-टुकड़े होकर फिंका गया... बस्ते के साथ आसमान में - किन्तु, चूंकि उसे ऐसा लकवा मारने वाले, धक्का पहुंचाने वाले को मृत्युदंड देने से, समाज में कोई रोकथाम नहीं होगी- इसलिए दंड ही मत दो!?! कौन-सा न्याय है यह? मोटरसाइकल पर मिठाई लेने गए थे पिताजी। कई फीट ऊंचे, बीच बाज़ार में, फिंका गए। धमाके से तीन टुकड़ों में बदल गए। बच्चे सब जन्मदिन मनाने के लिए सजे थे- किन्तु आजीवन लाश बनकर रह गए। किन्तु क्या हमलावर दरिंदों को दंड इसलिए नहीं देना चाहिए चूंकि उन्हें दंड देने से भविष्य में हत्याएं नहीं रुकेंगी? समाज में सुधार नहीं होगा?
‘मेरे साथ अपराध हुआ है - इंसाफ मुझे दो'- यही सच है। यही उचित है। यही न्याय है।
कानून लाइए, और नए बनाइए, और लीकेज रोकिए, और सख़्ती कीजिए, जांच और अभियोजन को पुख़्ता बनाइए- जो करना हो डेटरेंट के लिए- कीजिए।
न्याय मुझे लेने दीजिए।
पीड़ित और न्याय के बीच में मत आइए।
बर्बाद मैं हुई हूं। लावारिस मैं हो गया हूं।
ज़िंदा लाश हमारे परिवार को बनाया गया है।
इसमें समाज, सुधार, डेटरेंट आ कहां से गए?
और देश चुप क्यों हैं इन चंद रसूखदारों के सामने?
राष्ट्र को चलाने वाले, कानून व न्याय के रखवाले, चंद बुद्धिजीवी रसूखदारों से प्रभावित न हों, असंभव है। किन्तु ऐसे प्रभाव को ख़त्म करना ही होगा। विशेषकर न्याय के लिए।
क्योंकि सभी बातों में, न्याय सर्वोच्च है। चूंकि यही वह एकमात्र काम है जिसे ईश्वर स्वयं भी बहुत संवेदनशील होकर, ‘भूल न हो जाए' सोचकर पालन करते हैं।
- (लेखक दैनिक भास्कर के ग्रुप एडिटर हैं।)