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क्यों डराता है डेंगू-- रोहित कौशिक

पिछले दिनों दिल्ली हाइकोर्ट ने दिल्ली सरकार और नगर निकायों को राष्ट्रीय राजधानी में डेंगू पर नियंत्रण के लिए उचित कदम उठाने का निर्देश दिया। गौरतलब है कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में डेंगू ने एक बार फिर अपने पैर पसार लिए हैं। कुल मिलाकर, देश में सैकड़ों लोग डेंगू की चपेट में हैं और अनेक काल के गाल में समा चुके हैं। हालांकि इस भयावह त्रासदी के बाद स्वास्थ्य विभाग की नींद टूटी है लेकिन अब भी इस बीमारी की रोकथाम के कार्यक्रम पूरी तत्परता से नहीं चल रहे हैं।

अधिक समय नहीं हुआ जब 2003 में डेंगू के करीब तेरह हजार मामले दर्ज किए गए थे और इस बीमारी के कारण अनेक लोग अकाल मौत के शिकार हो गए थे। इसके बाद भी डेंगू के मामले प्रकाश में आते रहे। गौरतलब है कि हमारे देश में इस बीमारी का एक लंबा इतिहास है। भारत में 1950 के आसपास से ही यह बीमारी किसी न किसी रूप में मौजूद रही है। 1990 के बाद इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी। 2003 में डेंगू की तीव्रता को देखते हुए इससे बचाव के तरीकों पर गंभीरता से विचार किया गया और इसे अधिसूचित बीमारियों की श्रेणी में रखा गया। इसके बाद मानवाधिकार आयोग ने भी जीवन रक्षा के बुनियादी हक को देखते हुए डेंगू के फैलाव को मानवाधिकारों का हनन माना। लेकिन इसके बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा और अनेक क्षेत्रों में डेंगू के विभिन्न मामले प्रकाश में आते रहे।

डेंगू अपने भयावह रूप में एक बार फिर हमारे सामने है और सरकार के सारे दावे बौने साबित हो रहे हैं। गौरतलब है कि 2008 में देश के अठारह राज्य और केंद्रशासित प्रदेश डेंगू से जूझ रहे थे, जबकि व्यवस्था की नाकामी से 2015 में इस रोग ने पैंतीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को अपनी चपेट में ले लिया। डेंगू की तीव्रता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले साल हमारे देश में डेंगू से 220 लोग काल के गाल में समा गए जबकि 99,913 लोग इस बीमारी से पीड़ित हुए। ‘राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम' की एक रिपोर्ट के अनुसार तीव्र विकास और आर्थिक विस्तार के कारण यह रोग तेजी से फैल रहा है और लगातार अपना दायरा बढ़ा रहा है। वर्ष 2012 से हमारे देश में डेंगू की स्थिति लगातार बिगड़ने का एक बहुत बड़ा कारण ग्रामीण और शहरी इलाकों में मच्छरों का पनपना है। इस दौरान कुछ ऐसी स्थिति निर्मित हुई कि मच्छरों को पनपने के लिए अनुकूल वातावरण मिलना शरू हो गया। आज स्थिति यह है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ तेजी से अनियोजित शहरीकरण हो रहा है। अत: स्थिति भयावह होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की करीब चालीस फीसद आबादी पर डेंगू का खतरा मंडरा रहा है। हाल के दशकों में डेंगू के मामलों में जिस प्रकार तेजी आई है वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए चिंता का विषय बन गया है। दुनिया में डेंगू का पहली बार पता 1950 में लगा जब यह फिलीपींस और थाईलैंड में महामारी के रूप में फैला था। लेकिन आज यह रोग दक्षिण एशियाई देशों के लिए बड़ी समस्या बन गया है।

दरअसल, डेंगू की कोई भी विशिष्ट विषाणुरोधी दवा उपलब्ध नहीं है। रोग के शीघ्र निदान से इस रोग से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है। साथ ही मच्छर पैदा करने वाले स्रातों के उन्मूलन जैसे कि घरों में और उसके आसपास पानी एकत्र न होने देना, कूड़ा-कर्कट हटाना, जलपात्रों को ढंक कर रखना तथा कूलर की सप्ताह में एक बार सफाई आदि के माध्यम से भी इस बीमारी की आंशका कम की जा सकती है। लेकिन स्थिति यह है कि अभी तक अनेक क्षेत्रों में एंटी लारवल स्प्रे ही नहीं हो पाया है। कुछ राज्यों में तो डेंगू कीे जांच के किट ही पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में इस बीमारी का लंबा इतिहास होने के बावजूद कोई दीर्घकालीन योजना नहीं बनाई जाती। मौतें होने के बाद हल्ला मचने पर आनन-फानन में अंधेरे में तीर चलाए जाते हैं। फलस्वरूप महामारी के रूप में फैलने वाली इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं निकल पाता है। एक दुखद पहलू यह भी है कि सरकार और अस्पताल फजीहत से बचने के लिए इस बीमारी से मरने वाले लोगों की सही संख्या छिपाते हैं। हालांकि हाल ही में वैज्ञानिकों ने अभिग्राहियों के दो वर्गों का पता लगाया है जो डेंगू को मनुष्य की कोशिकाओं में प्रवेश कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस खोज के साथ ही नए इलाज की संभावनाएं उभर रही हैं। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इस अध्ययन ने डेंगू विषाणु के संक्रमण चक्र के पहले के महत्त्वपूर्ण चरण को समझने में मदद की है।

आजादी के बाद स्वास्थ्य को सामाजिक एवं अर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण घटक माना गया। आजादी के तुरंत बाद बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए जनोन्मुखी स्वास्थ्य नीति की योजना बनाई गई जो भोर समिति की 1946 की रिपोर्ट पर आधारित थी। 1978 में विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘अल्मा अता घोषणा' पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए तथा इस परिप्रक्ष्य में देश भर में विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम चलाए गए। अस्सी के दशक में स्वास्थ्य नीति का पूरा जोर देश भर में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा तैयार करना था। इसके बाद भी अनेक स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रम चलाए गए। इसके बावजूद भारत में स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों की पूर्ति एक चुनौती बनी हुई है। कई बीमारियों के बारे में यह मान लिया गया कि इन पर काबू पा लिया गया है लेकिन वास्तविकता यह है कि वे फिर से सिर उठा रही हैं। कैंसर, एड्स, हिपेटाइटिस बी, डेंगू और मलेरिया जैसे रोग हमें रोज एक नई चुनौती पेश कर रहे हैं। कोढ़ में खाज यह कि हमारा देश स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को अपेक्षा के अनुरूप बढ़ा नहीं पा रहा है। भारत की गिनती उन देशों में होती है जिनका स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय जीडीपी के अनुपात में सबसे कम है। आज भी देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है लेकिन वहां उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाएं शहरों के मुकाबले पंद्रह प्रतिशत भी नही हैं। अधिकतर चिकित्सक शहरी क्षेत्रों में ही काम करना पसंद करते हैं। इसलिए गांवों में बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव रहता है और वहां ऐसी बीमारियों से पीड़ित लोगों को बड़ी दुर्दशा झेलनी पड़ती हैं।

इस समय हमारा देश पांच लाख डॉक्टरों की कमी झेल रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार प्रति हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत में 1,674 लोगों की चिकित्सा के लिए एक ही डॉक्टर उपलब्ध है। जबकि हमारे देश में व्यवस्था की नाकामी और विभिन्नि वातावरणीय कारकों के कारण बीमारियों का प्रकोप ज्यादा होता है। भारत में डॉक्टरों की उपलब्धता की स्थिति विएतनाम और अल्जीरिया जैसे देशों से भी बदतर है। डॉक्टरों की कमी के कारण गरीब लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने में देरी होती है। यह स्थिति अंतत: पूरे देश के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण पर गठित संसदीय समिति ने मार्च में दी गई अपनी रिपोर्ट में माना है कि हमारे देश में आम लोगों को समय पर स्वास्थ्य सुविधाएं न मिलने के अनेक कारण हैं। इसलिए स्वास्थ्य सुविधाओं को और तीव्र बनाने की जरूरत है।

चिकित्सा व्यवस्था में व्याप्त खामी के लिए संसदीय समिति ने प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों द्वारा ली जाने वाली अवैध कैपिटेशन फीस, शहरी और ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं में अंतर तथा चिकित्सा शिक्षा व जन-स्वास्थ्य में साम्य न होने को जिम्मेदार माना है। भारत के गांवों में अनेक समितियों और ग्राम पंचायतों के सहयोग से एक वृहद स्वास्थ्य सेवा का ताना-बाना है। भौतिक विस्तार की दृष्टि से स्वास्थ्य सेवाओं का यह ढांचा दुनिया में सबसे बड़ा माना जाता है। लेकिन प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की वास्तविकता यह है कि यहां डॉक्टर उन केंद्रों पर रहते ही नहीं हंै। इसके साथ ही इन केंद्रों पर आने वाली सरकारी दवाएं या तो क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों को दे दी जाती हैं या फिर उन्हें बाजार के हवाले कर दिया जाता है। अधिकतर केंद्रों पर मौजूद विभिन्न मशीनें भी ज्यादातर खराब ही रहती हैं।

देश के मात्र छह प्रतिशत गांवों में ही पंजीकृत निजी डॉक्टर मौजूद हैं। अक्सर गांवों में मौजूद ये पंजीकृत डॉक्टर एक बनी-बनाई पद्धति से इलाज करने के कारण ग्रामीणों की बीमारियों का पूर्ण व सही आकलन नहीं कर पाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता के प्रसार के लिए सरकारी स्तर पर अनेक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित व तैनात किया जाता है। लेकिन वहां अनुकूल वातातरण न मिल पाने के कारण स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता के प्रसार में इनकी गतिविधियां उपयोगी साबित नहीं होतीं। गंदगी, इधर-उधर फैला हुआ कूड़ा, स्वच्छ पेयजल का अभाव, घरों का सीलनयुक्त तथाहवादार न होना और कुपोषण जैसी स्थितियां लोगों विशेषकर बच्चों को अनेक घातक बीमारियों से ग्रस्त कर देती हैं। अब समय आ गया है कि सरकारें इन गंभीर बीमारियों से निपटने के लिए कोई ठोस योजना बनाएं।