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क्यों धैर्य खो रहे हैं किसान-- संजीव पांडेय

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में किसान उग्र हो गए हैं। दोनों राज्यों में किसान आंदोलन हिंसक हो गया। मध्यप्रदेश में पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत हो गई। यह घटना पूरे देश के लिए चेतावनी है क्योंकि किसानों ने अब शांतिपूर्वक आंदोलन के बजाय हिंसक रास्ता अख्तियार कर लिया है। कर्ज के बोझ तले दबे किसान फसलों की संतोषजनक कीमत न मिलने के कारण सड़कों पर उतर आए। सरकार की आंख तब खुली जब आंदोलन तेज हो गया। इससे पहले सरकार किसानों की दुर्दशा पर आंख मूंदे बैठी हुई थी। लगातार पूरे देश से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही थीं। सरकारी तंत्र के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही थी।


‘कर्ज के बोझ तले दबे किसान के पास विकल्प क्या है? उसे डर होता है कि कर्ज नहीं लौटाया तो बैंक के बाहर अपराधियों की तरह उसका फोटो लगा दिया जाएगा। घसीट कर जेल भेज दिया जाएगा। आखिर में सम्मान बचाने के लिए किसान आत्महत्या करता है। खुद सरकारी आंकड़े कह रहे हैं कि आत्महत्या करने वाले किसानों में चालीस फीसद किसान कर्ज के बोझ से दबे थे। पिछले दो-तीन साल में नाराज मानसून ने उनकी हालत और खराब कर दी। उधर सरकारों ने किसानों को बेईमान बाजार के हवाले कर दिया है। 2014 में कृषि क्षेत्र में कुल बारह हजार तीन सौ साठ आत्महत्याएं हुर्इं, जिनमें छप्पन सौ पचास किसान और छह हजार सात सौ दस कृषि मजदूर थे। 2015 में ये आंकड़े और बढ़े। 2015 में लगभग आठ हजार किसान और छियालीस सौ कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की। अकेले मध्यप्रदेश में 2016-17 में लगभग दो हजार किसानों ने आत्महत्या की।


बीते तीन साल में किसानों की हालत और भी बदतर हुई है। जीडीपी की वृद्धि के तमाम दावे हो रहे हैं। दूसरी तरफ किसानों को निरंकुश बाजार के हवाले कर दिया गया। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना में कृषि उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट दर्ज की गई। इसके कई कारण हैं। लेकिन कीमतों के गिरने की स्थिति में सरकार को आगे आना चाहिए था, पर उसने कुछ नहीं किया। महाराष्ट्र में किसान आंदोलन की वजह तीन साल के खराब मानसून, फसलों की गिरती कीमत और कर्ज है। किसान जब बाजार में अपनी उपज लेकर पहुंचे तो उन्हें औने-पौने दामों में बेचने के लिए मजबूर किया गया। मध्यप्रदेश का रतलाम, नीमच, मंदसौर का इलाका सोयाबीन, गेहूं और चना ही नहीं बल्कि औषधीय गुण वाले मेथी, जीरा, लहसुन और इसबगोल के उत्पादन के लिए भी मशहूर है। लेकिन हालात ये थे कि इस साल बजार में मेथी पिछले साल के पैंतालीस रुपए क्विंटल के मुकाबले पच्चीस सौ रुपए क्विंटल बिक रही थी। सोयाबीन पैंतीस सौ रुपए क्विंटल से पच्चीस सौ रुपए क्विटंल पर आ गया।


उधर महाराष्ट्र के किसानों की हालात भी खराब है। तीन साल से खराब मानसून से पीड़ित किसानों को अपना प्याज औने-पौने दामों में बेचना पड़ा। प्याज जो पिछले साल आठ सौ रुपए प्रति क्विंटल बिका था वह इस साल चार सौ रुपए प्रति क्विंटल बिका। जो अंगूर पिछले साल किसानों ने पचास रुपए प्रति किलो बेचा था उसकी कीमत इस साल पंद्रह रुपए प्रति किलो रह गई। किसानों ने प्याज की गिरती कीमत के विरोध में खेतों में ही प्याज को आग के हवाले कर दिया। मध्यप्रदेश में भी किसानों ने प्याज को खेतों में जला दिया। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में किसानों ने टमाटर को पचास पैसे से दो रुपए किलो बेचने के बजाय नष्ट करना उचित समझा।


इस साल अच्छे मानसून के आसार हैं। लेकिन बंपर पैदावार के बाद किसानों को फिर बाजार के हवाले कर दिया जाएगा। किसानों को फिर लूटा जाएगा। 2015-16 और इससे पहले भी खराब मानसून के बावजूद पैदावार में कमी नहीं आई थी। लेकिन किसान को कुछ नहीं मिला। बाजार में किसान जब अपना उत्पाद बेचने जाता है तो उसे वाजिब कीमत नहीं मिलती। लेकिन उपभोक्ता को भी गिरी कीमत का लाभ नहीं मिलता। किसानों से एक रुपए किलो खरीदा जाने वाला प्याज और टमाटर अब भी उपभोक्ता को बीस रुपए में मिल रहा है। वैसे तो किसानों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत की गई। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि किसानों को मुआवजा कम मिला, बीमा कंपनियों को प्रीमियम का लाभ ज्यादा मिला। आखिर मुनाफे के खेल में नुकसान किसानों को ही क्यों हो रहा है?


सवाल यह है कि शेयर बाजार गिरते ही देश का सरकारी तंत्र हरकत में आ जाता है। निवेशकों का मनोबल बनाए रखने के लिए रिजर्व बैंक, सेबी से लेकर मंत्री तक मीडिया के सामने आ जाते हैं। लेकिन किसानों की हालत पर सरकारी तंत्र चुप्पी साध जाता है। कृषि मूल्यों की गिरावट की चिंता सरकारी तंत्र को एकदम नहीं है। लेकिन नीति आयोग यह सिफारिश जरूर करता है कि खेती से होने वाली आय पर कर लगाया जाए। भारत का शहरी तंत्र और महानगर किसानों की आपूर्ति पर निर्भर हैंं। बंगलों और अट्टालिकाओं में रहने वाले लोगों को भी सब्जी, दाल, आटा और चावल चाहिए। उनके बच्चों को दूध चाहिए। यह कहां से आएगा? उत्पादन करने वाला किसान ही मर जाएगा तो शहरों को खाने को कहां से मिलेगा? नाराज किसानों ने किसानी का महत्त्व नीति नियामकों और संपन्न तबकों को समझाने के लिए इस बार शहरों में दूध और सब्जी की आपूर्ति रोक दी। इसके बाद सरकार हरकत में आई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने तीस हजार करोड़ की कर्जमाफी का एलान कर दिया। उधर उत्तर प्रदेश सरकार ने भी छह जून को कहा कि लघु और सीमांत किसानों का पूरा कर्ज माफ होगा। बैंकों को जुलाई तक इस संबंध में आदेश चले जाएंगे। किसानों के आंदोलन के बाद ही मध्यप्रदेश सरकार ने आठ रुपए किलो प्याज खरीदने की घोषणा की। आखिर सरकारें आंदोलन के बाद ही राहत के फैसले क्यों लेती हैं? जिन मांगों के लिए किसान आंदोलनरत हैं, उनका स्थायी समाधान क्यों नहीं खोजा जाता।


किसान कर्जमाफी और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की मांग कर रहे हैं। खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने विधानसभा चुनावों से पहले कहा था कि किसानों के उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य काफी कम है और उनकी सरकार आने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए जाएंगे। लेकिन सरकार आने के बाद कोई फैसला नहीं हुआ। वहीं भारतीय रिजर्व बैंक और तमाम बैंकों का रवैया किसानों के प्रति सख्त है। जबकि बड़े घरानों के प्रति रिजर्व बैंक और तमाम बैंक काफी उदार हैं। विजय माल्या के कर्ज की वसूली पर तो रिजर्व बैंक के गर्वनर गोलमोल बात करते हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में जब किसानों की कर्जमाफी की घोषणा हुई तो गर्वनर ने इसका विरोध किया। कहा, कर्जमाफी से गलत संदेश जाएगा। दिलचस्प बात है कि भारतीय बैंक कंपनियों के छह लाख करोड़ के कर्ज माफ करने को तैयार हैं क्योंकि उनकी नजर में देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह जरूरी है। कॉरपोरेट घरानों के कर्ज माफ करने से हुए नुकसान की भरपाई बैंक आम आदमी की जेब से करेंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है। बड़े कर्जदारों के रिकार्ड सार्वजनिक करने से भी बैंक बच रहे हैं, यह कहते हुए इसे सार्वजनिक करना देशहित में नहीं है! अब समय आ गया है कि किसानों के प्रति सरकार और बैंक उदार रवैया अपनाएं। देश का पेट भरने वाले किसानों के प्रति भी सरकारों को उदार होना होगा।