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क्यों नहीं सीख पाते हैं बच्चे-- दिलीप रांजेकर

काफी समय पहले अमेरिका में एक प्रमुख स्कूल द्वारा आयोजित ‘एजुकेशन थिंकटैंक कांफ्रेन्स' में हिस्सा लेने के दौरान मुझे यह समझ आया था कि फिनलैंड और स्वीडन जैसे कुछ देशों को छोड़ दें, तो आम तौर पर पूरी दुनिया स्कूली शिक्षा में गुणवत्ता के मुद्दे से जूझ रही है। कांफ्रेन्स में 70 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे और उनमें से अधिकांश अपने देश में शिक्षा की खराब गुणवत्ता का रोना रो रहे थे। राष्ट्रपति ओबामा के नेतृत्व में चलने वाले ‘नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड' (कोई भी बच्चा छूटने न पाए) जैसे विशाल अभियान और ‘टीच फॉर अमेरिका' जैसी निजी पहल के बावजूद उस विकसित देश में भी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता का मुद्दा बरकरार है।

पिछले तीन दशकों से अधिक समय से भारत में एक के बाद दूसरी सरकारों ने हमारे विकास के तीन स्तंभ पेश किए- बिजली, सड़क और पानी। राजनीतिक आकाओं को शिक्षा को इसके चौथे स्तंभ के रूप में स्वीकार करना चाहिए। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि पिछले डेढ़ दशकों में स्कूलों में दखिले और शिक्षा तक लोगों की पहुंच में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। साल 2001 में एनडीए सरकार ने संविधान में 86वां संशोधन करके सर्वशिक्षा अभियान शुरू करने का एक साहसी निर्णय लिया। इससे स्कूलों, कक्षा और शिक्षकों की उपलब्धता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। हमारे 98 प्रतिशत गांवों में एक किलोमीटर के दायरे में प्राथमिक स्कूल हैं और तीन किलोमीटर के दायरे में उच्च प्राथमिक स्कूल। सर्वशिक्षा अभियान शिक्षकों के विकास की अवधारणा को सामने लेकर आया और इसके लिए बजट मुहैया कराया। भारत की शिक्षा-व्यवस्था, दुनिया की सबसे बड़ी स्कूली व्यवस्था है, जो 14 लाख स्कूलों, 2़ 5 करोड़ बच्चों और 70 लाख शिक्षकों और बाहर से स्कूलों को सहयोग करने वाले लगभग 15 लाख शैक्षिक कार्यकर्ताओं के साथ काम करती है। कई सारे शोध और शैक्षिक अध्ययनों ने बार-बार यह दिखाया है कि हमारे स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता कितनी खराब है? इसका एक उदाहरण हर साल जारी होने वाली ‘असर' की रिपोर्ट है।

जब हम गुणवत्ता की बात करते हैं, तो हमें कुछ चीजों का ध्यान रखना होगा। एक तो हमारे यहां बजट अपर्याप्त है और शिक्षकों की नियुक्ति व उनके स्थानांतरण आदि में राजनीतिक हस्तक्षेप को खत्म करने की इच्छाशक्ति का अभाव है। उत्तरदायित्व का अभाव। हर साल 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में यदि 50 प्रतिशत बच्चे फेल होते हैं, तो बच्चों के अलावा इसके लिए कोई भी उत्तरदायी नहीं होता। सभी स्तरों पर शिक्षण में लगे लोगों की बड़ी संख्या शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति और पाठ्यक्रम के गहरे ज्ञान से अनभिज्ञ है। शिक्षा के लिए बने एनसीईआरटी, एनसीटीई, एससीईआरटी, डाईट, ब्लॉक और क्लस्टर स्तर के संसाधन केंद्र कर्मचारियों की कमी और उनकी गुणवत्ता, दोनों से जूझ रहे हैं। फिर ऐसे संस्थानों का अभाव, जो हमारी व्यापक शैक्षिक व्यवस्था को चलाने के लिए योग्य शैक्षिक पेशेवरों को विकसित कर सकें।

हमारी शिक्षा व्यवस्था का सच यह है कि एक समूह के रूप में शिक्षक कुछ अर्थों में राजनीतिक रूप से सशक्त हैं, लेकिन समूह और व्यक्तिगत, दोनों ही रूप में पेशेवर तौर पर कमजोर हैं। अधिकांश शिक्षक स्वयं को अपने ‘ऊपर के अधिकारियों' के प्रति उत्तरदायी मानते हैं, न कि अपने छात्रों के प्रति। शिक्षकों की पेशेवराना पहचान, ज्ञान और कौशल के लिए उनकी जरूरत और एक समुदाय के रूप में उनके सशक्तीकरण को संबोधित करना एक महत्वपूर्ण मसला है। पाठ्यक्रम, कक्षा का माहौल और शिक्षण विधि की सारी प्रक्रियाएं मुख्यत: रटकर सीखने पर आधारित हैं और वे अवधारणात्मक को समझने, रचनात्मकता या परस्पर सहयोग से सीखने के लिए बच्चों को समर्थ नहीं बनातीं। अपने मौजूदा रूप में परीक्षाएं शिक्षा के लक्ष्यों के हिसाब से बच्चों की उपलब्धि का आकलन नहीं करतीं और अधिकांशत: कक्षा में एक तकनीकी, रटने पर आधारित सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा देती हैं। परीक्षाएं बच्चों और उनके परिवारों में अत्यधिक तनाव और डर का एक माध्यम भी होती हैं। इन्हीं वजहों से हमारी सार्वजनिक शिक्षा- प्रणाली अपर्याप्त संसाधन वितरण के कारण संविधान की प्रस्तावना में तय की गई दृष्टि को पूरा करने में ऐतिहासिक रूप से मात खा गई है। हालांकि, शिक्षा के सभी क्षेत्र (जैसे बुनियादी ढांचा और संसाधन) बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों की प्राथमिकता सुनिश्चित करने की जरूरत है, जिनका संपूर्ण शिक्षा गुणवत्ता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। शिक्षक-शिक्षा, शिक्षा नेतृत्व, प्रबंधन और आरंभिक बाल्यावस्था शिक्षा ऐसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं, जिन पर ठोस कार्रवाई की जरूरत है।

सबसे पहले तो शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में रखने की जरूरत है। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के किसी भी प्रयास की सफलता मुख्य रूप से शिक्षक पर निर्भर होती है। इसके बाद नेतृत्व और प्रबंधन का मामला आता है, जो शिक्षा का अनुकूल माहौल बनाने के लिए मुख्यत: जिम्मेदार होते हैं। एक और ध्यान देने वाली जरूरत है आरंभिक बाल्यावस्था की शिक्षा। बहुत से शोध अध्ययनों ने यह दिखाया है कि आरंभिक बाल्यावस्था ही वह समय है, जब बच्चों की सीखने की क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयुक्त माहौल बनाया जा सकता है। छह साल की उम्र में पहली बार स्कूल जाने वाले बच्चे स्पष्ट रूप से नुकसान की स्थिति में होते हैं।

हमारे यहां शिक्षा नीति के अधिकांश दस्तावेज सुविचारित हैं और अच्छी नीयत से बनाए गए हैं। समस्या अक्सर उन वास्तविक कार्रवाइयों में होती है, जो जमीन पर उसके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करती है। आंशिक कार्यान्वयन या नीतियों की आत्मा को अभिव्यक्त न करने वाले कार्यान्वयन से इसका पूरा उद्देश्य ही ध्वस्त हो जाता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)