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क्यों नहीं सुरक्षित हैं बेटियां --- वी मोहिनी गिरी

सीबीएसई टॉपर रही रेवाड़ी की उस छात्रा की आंखों में निश्चय ही सुनहरे भविष्य के सपने पल रहे होंगे। मगर एक झटके में ही सब कुछ खत्म हो गया। उसे र्दंरदगी का शिकार तब बनाया गया, जब वह पढ़ने जा रही थी। आज देश की कोई बेटी खुद को सुरक्षित नहीं मानती। सब इसी आशंका में जीती हैं कि न जाने कब, किसके साथ कुछ गलत हो जाए। यही वजह है कि हमारे शहर ‘रेप सिटी ऑफ द वल्र्ड' कहे जाने लगे हैं।


सवाल यह है कि लड़कियों को कुचलने की मानसिकता का तोड़ हम अब भी क्यों नहीं तलाश पा रहे हैं? दरअसल, इसकी कई वजहें हैं। सबसे बड़ा कारण तो बलात्कार पीड़िता को तुरंत न्याय न मिल पाना है। ऐसे मामलों के निपटारे में काफी वक्त लगता है। अव्वल तो जल्दी अपराधी पकड़े नहीं जाते, और फिर अगर उसे पकड़ लिया जाता है, तो पुलिस पर उसे छोड़ने का राजनीतिक दबाव आ जाता है। इसके बावजूद अपराधी यदि कोर्ट तक पहुंच जाए, तो कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी होती है कि पीड़िता के लिए न्याय का ज्यादा महत्व शायद ही रह जाता है।


देश में हर रोज बलात्कार की कई घटनाएं होती हैं। मगर शोर कुछ मामलों में ही मचता है। तब बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की भी मांग की जाती है। हालांकि मैं इस मांग से इत्तेफाक नहीं रखती, पर यह जरूर चाहती हूं कि बलात्कारियों को उम्र कैद की सजा मिले। अंग्रेजों के समय सख्त सजा ‘काला पानी' थी। ऐसी सजा आज भी होनी चाहिए। अपराधियों को ऐसी जगह जरूर भेज देना चाहिए, जहां उसका किसी के कोई संपर्क न हो। उसे इतना दर्द मिले, जितना पीड़िता ने भुगता है। अगर अपराधी को हम फांसी दे देंगे, तो दर्द उसके परिवार के सदस्यों को होगा। इसीलिए फांसी की बजाय बलात्कारियों को कठोर सजा मिलनी चाहिए।


सवाल शिक्षा तंत्र में सुधार का भी है। जब मैं बच्ची थी, तो ‘मोरल साइंस' जैसा विषय हमें पढ़ाया जाता था। उसमें नैतिक शिक्षा की जानकारी दी जाती थी। कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने के बावजूद हमें यह बताया जाता था कि हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए? आखिर हम यह आज क्यों नहीं कर सकते? हम क्यों नहीं अपने बच्चों को सिखाते हैं कि सभी इंसान बराबर हैं, और हमें सबका सम्मान करना चाहिए। मगर नहीं। पुरुषसत्तात्मक समाज लगातार मजबूत हो रहा है। आज भी औरतों को दोयम दरजे का समझा जाता है। उन पर हुक्म चलाया जाता है। हरियाणा से ही सम्मान के नाम पर होने वाली हत्या के मामले लगातार आते रहते हैं। मगर ऐसे मामलों का अंतिम कानूनी नतीजा अधर में ही लटका रहता है। पुलिस एफआईआर दर्ज करने तक से बचती है।


बलात्कार की घटनाओं को थामने के लिए पुलिस-व्यवस्था में सुधार होना बहुत जरूरी है। इसका झंडा हमलोग करीब 10 वर्षों से उठाए हुए हैं, पर अब तक कुछ नहीं हो सका है। हम चाहते हैं कि पुलिस संवेदनशील बने। कल्पना कीजिए उस पीड़िता का दर्द, जो अपनी शिकायत लेकर जब पुलिस स्टेशन पहुंचती है, तो उससे यह पूछा जाता है कि उसकी चूड़ियां टूटी कि नहीं? वहां काउंसिलिंग की कोई व्यवस्था नहीं होती। उससे सांत्वना के कोई शब्द नहीं बोले जाते।


फिर मेडिकल कराने के नाम पर उसे यहां-वहां घुमाया जाता है। पुलिस उसे गाड़ी में बिठाकर इस तरह घुमाती है, मानो वह कोई अपराधी हो। अस्पतालों में भी तो डॉक्टरों की उपलब्धता नहीं होती। दिल्ली में ही यदि कोई घटना घटती है, तो पीड़िता को एम्स या सफदरगंज जैसे अस्पताल में ले जाते हैं। अस्पतालों में इतनी लंबी लाइन होती है कि पीड़िता के मेडिकल में काफी वक्त लग जाता है। कभी-कभी तो अगली तारीख दे दी जाती है। और अगर अगली तारीख पर किसी कारणवश वह न आ पाए, तो उसे ही दोषी मानकर जेल में बंद कर देते हैं। यानी पीड़िता ही दोषी साबित होने लगती है।


इस व्यवस्था को सुधारने के लिए सरकार के पास हमने ढेरों सिफारिशें भेजी हैं। उन सभी फाइलों पर धूल जमी हुई है। हमने बताया था कि कैसे मानव तस्करी को रोका जाए? बलात्कार पीड़िता के साथ किस तरह की हमदर्दी दिखाई जाए? उन्हें कैसे उस खौफ से बाहर निकाला जाए, आदि। दिल्ली के निर्भया कांड के बाद गठित जस्टिस वर्मा कमेटी ने ही जो सिफारिशें की हैं, अगर वे भी सही अर्थों में लागू हो जाएं, तो काफी बात बन जाएगी। मगर ऐसा होगा तब न। सरकार ने निर्भया फंड बना दिया, पर उसका पैसा कहां खर्च हो रहा है, यह बताने की स्थिति में वह नहीं है। क्या इस फंड का इस्तेमाल पीड़िताओं के लिए सुविधाएं बढ़ाने में नहीं हो सकता? क्या डॉक्टरों की ऐसी टीमें नहीं गठित की जा सकतीं, जो बलात्कार के मामलों को प्राथमिकता के आधार पर देखें?


आज हम एक अलग दौर में जी रहे हैं। निश्चय ही, यह हमारा हिन्दुस्तान नहीं है। यह वह भारत नहीं है, जहां सत्य वचन का सम्मान था, उसकी खिल्ली नहीं उड़ाई जाती थी, बड़ों की इच्छा का मान रखा जाता था और बेटियों को देवी समझकर पूजा जाता था। आज सब कुछ खत्म हो रहा है। मासूम और दुधमुंही बच्ची तक के साथ र्दंरदगी की जा रही है, जबकि बलात्कार के बाद कोई भी लडकी जिंदा लाश बनकर रह जाती है। उसे भविष्य में ढंग का काम नहीं मिलता। यहां तक कि उसे नौकरी देने में कंपनियां बचती हैं। मौत के समान वह जिंदगी व्यतीत करती है। इसे बदलने के लिए सरकार को ही आगे आना होगा। उसे उन तमाम सिफारिशों को लागू करना चाहिए, जो पुलिस, न्यायपालिका और समाज में सुधार के कामों को गति देती हों। मुझे आज भी तीन-चार वर्ष पहले की वह घटना याद है, जब मैं अपनी गाड़ी में कहीं जा रही थी। रास्ते में देखा कि एक लड़की के साथ कुछ लड़के छेड़खानी कर रहे हैं। मैंने गाड़ी रोकी और उनके बीच पहुंच गई। मगर मेरा ड्राइवर, जो पिछले 20 वर्षों से मेरे साथ था, भाग खड़ा हुआ। उसे डर था कि कहीं पुलिस उसे भी न जेल में डाल दे। इसी डर की वजह से हमारा समाज ऐसे बदमाशों के खिलाफ खड़े होने से घबराता है। इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)