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क्यों पिछड़ जाते हैं हमारे विश्वविद्यालय -हरिवंश चतुर्वेदी

वर्ष 2018 के लिए जो एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग सूची जारी हुई है, उससे भारत के लिए कुछ सुखद संकेत मिले हैं। 350 विश्वविद्यालयों की इस सूची में भारत के 42 विश्वविद्यालयों को इस बार स्थान मिला है। यह रैंकिंग जिन 13 आधार पर की गई है, उनमें 12 पर भारतीय विश्वविद्यालयों ने अपनी स्थिति बेहतर बनाई है। विश्व स्तर पर विश्वविद्यालयों की रैंकिंग ऐसा मुद्दा है, जिसके भारत जैसे विकासशील देशों को होने वाले नफा-नुकसान पर बहुत तीखी बहस होती है। विश्व स्तर पर इन रैंकिंग को चलाने वाली एजेंसियों में तीन प्रमुख हैं - टाइम्स हायर एजुकेशन, शंघाई जियोटांग यूनिवर्सिटी और क्विकरैली साइमंड्स (क्यूएस)। ये तीनों एजेंसियां विश्व के श्रेष्ठतम 500 से 1000 विश्वविद्यालयों की रैंकिंग हर साल जारी करती हैं। अक्सर इन रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों की अनुपस्थिति से हमारी उच्च शिक्षा के बारे में निराशा का दौर शुरू हो जाता है।

 

टाइम्स की एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग छह साल पहले शुरू की गई थी। इस रैंकिंग में पिछले दो वर्षों की तरह इस बार भी नेशनल यूनिवर्सिटी, सिंगापुर को एशिया में प्रथम स्थान मिला है। चीन की शिंहुआ यूनिवर्सिटी दूसरे नंबर पर और पीकिंग यूनिवर्सिटी तीसरे नंबर पर आई हैं। क्या कारण है कि चीन के विश्वविद्यालय, जो 1950 तक भारतीय विश्वविद्यालयों से पीछे थे, 21वीं सदी में काफी आगे निकल गए? क्या भारतीय विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग के लिए जरूरी मानकों के प्रति जागरूकता का अभाव है? क्या हमारी उच्च शिक्षा सिर्फ कक्षा और परीक्षा तक सिमटकर रह गई है, और शोध व अनुसंधान में हम फिसड्डी बनते जा रहे हैं?

 

रैंकिंग में भारत और चीन की तुलनात्मक स्थिति का अध्ययन करें, तो वे कारण मालूम पड़ सकते हैं, जो चीन की तुलना में भारतीय विश्वविद्यालयों की खराब स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं। यह रैंकिंग सूची 13 मानकों के आधार पर तैयार की जाती है, जो मोटे तौर पर शिक्षण, रिसर्च, रिसर्च की उत्पादकता, अंतरराष्ट्रीयकरण और यूनिवर्सिटी को उद्योगों से ज्ञान के हस्तांतरण से होने वाली आय से जुड़े हैं। इस रैंकिंग में शिक्षण या सीखने के वातावरण को 25 प्रतिशत अंक दिए जाते हैं। एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग, 2018 में रिसर्च को 30 प्रतिशत अंक दिए गए हैं, जो क्लास रूम टीचिंग से ज्यादा है। इसमें 15 प्रतिशत अंक इस तथ्य को दिए गए हैं कि रिसर्च की ख्याति कैसी है? रिसर्च की उत्पादकता और उससे होने वाली आय को शेष 15 प्रतिशत अंक दिए गए हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों के पिछड़ेपन का एक मुख्य कारण प्रकाशित शोध-पत्रों का अच्छा साइटेशन न होना है। यानी प्रकाशित शोध-पत्र को विश्व स्तर पर कितनी बार दूसरे शोधकार्यों में उद्धृत किया जाता है। साइटेशन के मानक को रैंकिंग में 30 प्रतिशत अंक दिए गए हैं। इस रैंकिंग में चौथा मानक अंतरराष्ट्रीयकरण था, जिसे 7़5 प्रतिशत अंक दिए गए थे।

 

भारतीय विश्वविद्यालयों को यह सोचना चाहिए कि आखिरकार वे क्या कारण हैं कि शिक्षाविद्, शिक्षक और शोध-छात्र विश्वस्तरीय रिसर्च नहीं कर पा रहे हैं? क्या हमारे शिक्षक, शोध-छात्र, प्रयोगशालाएं और पुस्तकालय विश्वस्तरीय अनुसंधानों को संचालित करने के लिए सक्षम हैं? क्या विश्वस्तरीय शोध-कार्यों के लिए केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा विश्वविद्यालयों को समुचित वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं? क्या हमारे विद्यार्थियों और शिक्षकों के समुदायों में देश-विदेश का समुचित प्रतिनिधित्व रहता है या हम क्षेत्रीयतावाद के शिकार हैं? क्या हम विश्वस्तरीय सम्मेलनों और कार्यशालाओं में अपने शिक्षकों व शोध-छात्रों को समुचित संख्या में भेज पाते हैं? इन सवालों के ठोस हल ढूंढ़े बिना भारतीय विश्वविद्यालयों से विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा या रैंकिंग पाने की अपेक्षा करना बेमानी होगा।

 

उच्च शिक्षा पर शोध के लिए विख्यात विद्वान फिलिप एल्टबाग के अनुसार, भारत जैसे देशों को विश्वव्यापी ज्ञानाधारित अर्थव्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी के लिए कुछ विश्वविद्यालयों को शोध-विश्वविद्यालय का दर्जा देना होगा। उनका कहना है कि अमेरिका, जर्मनी व जापान की औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं की सफलता का राज विश्वविद्यालयों के संचालन का हुम्बोल्ट मॉडल है। इस मॉडल के विश्वविद्यालयों में भारी आर्थिक विनियोग की जरूरत होती है, जो निजी विश्वविद्यालय नहीं कर सकते। हुम्बोल्ट मॉडल के विश्वविद्यालय नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद की बजाय मैरिटोक्रेसी के सिद्धांत का अक्षरश: पालन करते हैं।

 

पिछले दशक में भारत की उच्च शिक्षा को विश्वस्तरीय बनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर बनी अनेक कमेटियों और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने हुम्बोल्ट मॉडल पर कुछ शोध-केंद्रित विश्वविद्यालय स्थापित करने के सुझाव दिए थे। वर्ष 2016 के केंद्रीय बजट में 20 वल्र्डक्लास यूनिवर्सिटी स्थापित करने की घोषणा की गई थी। पिछले साल मानव संसाधन मंत्रालय की सिफारिश पर केंद्रीय मंत्रिमंडल से इसके नए रेग्यूलेशंस को स्वीकृति मिली है। इनका नाम अब वल्र्डक्लास यूनिवर्सिटी से बदलकर ‘इंस्टीट्यूट ऑफ ऐमीनेंस' कर दिया गया है। आवेदनकर्ता विश्वविद्यालयों में कम से कम 15 हजार विद्यार्थी पढ़ रहे हों और शिक्षक व विद्यार्थी का अनुपात 1:15 हो। इन संस्थानों को यूजीसी के शिकंजे से मुक्त कर अधिकतम स्वायत्तता दी जाएगी। फिलहाल 100 से अधिक विश्वविद्यालय और संस्थानों ने इसके लिए मानव संसाधन मंत्रालय में आवेदन किए हैं।

 

वर्ष 2016 में भारतीय विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग को सुधारने के लिए ‘एनआईआरएफ' के नाम से एक राष्ट्रीय रैंकिंग शुरू की गई थी, जिसमें शोध व अनुसंधान पर काफी जोर दिया गया था। वर्ष 2018 के केंद्रीय बजट में भी ‘प्रधानमंत्री रिसर्च फैलोज' योजना घोषित की गई है। ये प्रयास सराहनीय हैं, पर उच्च शिक्षा को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाए बिना और उस पर सकल राष्ट्रीय आय का कम से कम दो प्रतिशत खर्च किए बिना नया भारत बनाने के सपने को देखना व्यर्थ होगा। वर्ष 2018-19 के बजट से यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। सकल राष्ट्रीय उत्पाद से शिक्षा के खर्चों का प्रतिशत भी 3़1 प्रतिशत से घटकर 2.7 प्रतिशत रह गया है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)