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क्यों बढ़ रहा है जल-संकट? -- बाबा मायाराम

पिछले कुछ सालों में मध्यप्रदेष समेत देष भर में पानी का संकट बढ़ा है। यह समस्या प्रकृति से ज्यादा मानव-निर्मित है। वर्षा की कमी के साथ, वनों की अवैध कटाई, पुराने तालाबों पर अतिक्रमण, गाद भरने से सरोवरों की भंडारण क्षमता में कमी, पानी की फिजूलखर्ची, नदी, जलाषयों का पानी औद्योगिक इकाईयों को देने व षहरों के प्रदूषित पानी को नदियों के प्रदूषण और भूजल को बेतहाषा दोहन से समस्या बढ़ रही है।
इस संकट से न केवल खेतों की सिंचाई के लिए पानी की कमी आ रही है बल्कि पीने के पानी की समस्या भी बढ़ रही है। लेकिन इससे बेखबर हम भूजल को बेतहाषा उलीचे जा रहे हैं, जिसका पुनर्भरण नहीं हो रहा है। क्योंकि अब पहले जैसी बारिष भी नहीं हो रही है और जो जंगल पानी को स्पंज की तरह सोख कर रखते थेे, वो भी अब कट चुके हैं।
सवाल है कि आखिर पानी गया कहां? धरती पी गई या आसमान निगल गया? पानी की सबसे बड़ी जरूरत खेती के लिए होती है। जबसे हरित क्रांति के प्यासे बीज हमारे खेतों में आए हैं, तबसे पानी का ज्यादा दोहन बढ़ा है।कहीं नहरों से तो कहीं नलकूप के माध्यम से  सिंचाई की जा रही है। लेकिन पहले परंपरागत देषी बीजों से बिना सींच(सिंचाई)) की विविध फसलें हुआ करती थीं। अब उनकी जगह पर केवल ज्यादा पानी वाली एकल फसलें हो रही हैं।
जैव विविधता में मिट्टी के बाद पानी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। इसे बचाने का प्रयास सुव्यवस्थित ढंग से किया  जाना चाहिए। इसके बेतहाषा दोहन और षोषण  से बचा जाना चाहिए। पानी से ही समस्त प्राणी-मनुष्य, पषु-पक्षी, सूक्ष्म जीव, जीव-जंतु सभी का जीवन है।
इस पानी के संकट को बारीकी से समझने के लिए हम मध्यप्रदेष के होषंगाबाद जिले पर एक निगाह डालने की कोषिष करेेंगे। यह जिला सतपुड़ा एवं विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के बीच नर्मदा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इसेहम भौगोलिक रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। एक है मैदानी क्षेत्र, जो नर्मदा का कछार कहलाता है। यहां तवा बांध की नहरों से अधिकांष सिंचाई होती है। और दूसरा है जंगल पट्टी, जो सतपुड़ा की तलहटी में फैली हुई है। यह पूरी पट्टी असिंचित है।
तवा कमांड की नहरों की सिंचाई से पहले यहां का फसलचक्र भिन्न था। पहले यहां मोटे अनाज- जैसे ज्वार, मक्का, कोदो, कुटकी, समा, बाजरा,देषी धान, देषी गेहूं, तुअर, तिवड़ा, चना, मसूर, मूंग, उड़द, तिल, रजगिरा, अलसीआदि कई तरह की फसलें लगाई जाती थीं।पिपरिया की तुअर दाल बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। लेकिन तवा कमांड क्षेत्र में इन विविध फसलों की जगह सोयाबीन (खरीफ) और गेहू (रबी) की एकल खेती ने ले ली।
जबकि जंगल पट्टी में परंपरागत खेती की उतेरा (मिश्रित फसल) पद्धति प्रचलन में हैं। जिसमें 6-7 प्रकार के अनाज मिलाकर एक साथ बोये जाते हैं। यह बिर्रा (गेहूं- चना मिश्रित) का एक संषोधित रूप है। ये फसलें बिना सींच (सिंचाई)या कम पानी में होती है। यानी केवल बारिष के पानी से फसलें होती हैं।
लेकिन हाल के कुछ बरसों सेकिसानों की एक बड़ी समस्या है बारिष न होना। कम बारिष या अनियमित बारिष होना। पानी का सीधा संबंध फसलों से है। पानी न मिले तो सारी खेती चैपट।  बारिष पर निर्भर किसान कम बारिष के चलते परेषान हंै।उनकी आजीविका संकट में है। और जो कम पानी वाली फसलें कोदो, कुटकी, तुअर, ज्वार आदि लगाते थे, उनकी समस्याएं बढ़ गई हैं। यह समस्याएं मौसम बदलाव से जुड़ी हुई हैं।
भूजल बरसों में एकत्र होता है, यही हमारा सुरक्षित जल भंडार है। फिर बिना बिजली के उसे ऊपर खींचना मुष्किल है। पूर्व से आसन्न बिजली का संकट साल दर साल बढ़ते जा रहा है। बिजली कटौती के कारण किसान फसलों में पानी नहीं दे पा रहे हैं। अगर गेहंू की फसल में अंतिम पानी नहीं मिला तो फसल का कम उत्पादन होता है। यह अलहदा बात है कि कमजोर और छोटे किसान भारी पूंजी लगाकर सिंचाई की इस सुविधा से वंचित हैं।
कुछ समय पहले तक हर गांव में तालाब हुआ करते थे। कुएं, बाबड़ी, नदी-नालों में बहुतायतपानी था। वर्षा जल को छोटे-छोटे बंधानों में एकत्र किया जाता था। जिससे सिंचाई, घरेलू निस्तार और मवेषियों को पानी मिल जाता था। किसान  पहले बैलों से चलने वाली मोट से खेतों की सिंचाई करते थे। लेकिन अब तालाबों पर कब्जा हो गया है। कुएं और बाबड़ी जैसे परंपरागत पानी के स्त्रोत खत्म हो गए हैं।
आजादी के ठीक बाद पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इस जिले में भी एक छोटा डोकरीखेड़ा बांध बनाया गया था। यद्यपि मछवासा नदी को इससे जोड़ दिया गया है लेकिन फिर भी यह बांध अपनी क्षमता के अनुसार पूरा नहीं भर पाता। उसमें गाद भर गई है, पुराव हो गया है। अब इससे केवल किसानों को मुष्किल से रबी की फसल के लिए दो पानी ही मिल पाते हैं। वह भी बारिष हुई तो, अन्यथा नहीं।
इसके बाद 1975 में तवा बांध बना। इससे तवा कमांड में नहरों से सिंचाई से फायदा तो हुआ। एक समय मिट्टी बचाओ आंदोलन से जुड़ी रही ग्राम सेवा समिति के एक अध्ययन के अनुसार यहां की काली मिट्टी  वाली  जमीन जो काफी उपजाऊ थी, वो दलदल में तब्दील होती जा रही है। या उन जमीनों में लवणीयता और क्षारीयता बढ़ती जा रही है। नए-नए खरपतवारों को आगमन हुआ है जिससे कृषि में लागत में और वृद्धि हुई तथा उत्पादन भी प्रभावित होने लगा।
नहरों के अलावा, बड़ी संख्या में नलकूप खोदे गए हैं। जिला सांख्यिकी कार्यालय की वर्ष 2008 के अनुसार वर्ष 2003-04 में 3931, वर्ष 2004-05 में 3943, वर्ष 2005-06 में 3972 वर्ष 2006-07 में 4853 और वर्ष 2007-08 में 4894 नलकूपों का खनन हुआ। यह सिलसिला जारी है। विज्ञान और पर्यावरण केन्द्र व गांधी षांति प्रतिष्ठान की एक रपट बताती है  कि देष की भूमिगत जल संपदा प्रति वर्ष होने वाली वर्षा से दस  गुना ज्यादा है लेकिन सन् 70 से हर वर्ष करीब एक लाख 70 हजार टयूबवेल लगते जाने से कई इलाकों में जलस्तर घटता जा रहा है। ठीक इस जिले में भी यही हो रहा है।
कुछ समय पहले तक गांव में कच्चे घर होते थे। घर के आगे पीछे काफी जगह होती थी। खेती-किसानी के काम में घरों में ज्यादा जगह लगती है। घर के आगे आंगन और घर के पीछे बाड़ी होती थी। बाड़ी में हरी सब्जियां लगाई जाती थीं। पेड़-पौधे लगे होते थे। इस सबसे बारिष का पानी नीचे जज्ब होता था और धरती का पेट भरता था। यानी भूजल ऊपर आता था। आज गांव में भी पक्के मकान बन गए हैं। घरों के पीछे बाड़ी भी नहीं है।
इसलिए बारिष का पानी बेकार बह जाता है। इस कारण न तो उसे हम निस्तार के उपयोग में ला पा रहे हैं और न वह पानी धरती में समा रहा है। यानी हम धरती से पानी ले तो रहे हैं, लेकिन उसे दे नहीं रहे हैं। इस कारण भूजल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। नतीजतन, टाइम बम की तरह हर साल भूजल नीचे चला जा रहा है।
पानी का एकमात्र स्त्रोत है वर्षा ।जिला  गजेटियर 1979 के अनुसार जिले की सामान्यवर्षा 1294.5 मि. मी. है।पर जो वर्षा होती है उसकी अवधि सीमित है। मानसून के 3-4 माह। जिसका करीब आधा प्रतिषत पानी वाष्पीकृत होकर उड़ जाता है। और बाकी बचे आधे पानी में से खेतों की सिंचाई, भूजल का पुनर्भरण और नदी-नालों का पेट भरता है। अब हमें इसी पानी को सहेजना होगा। खेत का पानी खेत में और गांव का पानी गांव में रोकना होगा। बारिष का पानी तालाब या छोटे बंधानों के माध्यम से गांव में ही रोका जा सकता है।
यह कैसा होगा? यह सरल तरीका है। जैसे भी हो, जहां भी संभव हो, बारिष के पानी को वहीं रोककर कमजोर वर्ग के लोगों के खेत तक पहुंचाना चाहिए। जहां पानी गिरता है, उसे सरपट न बह जाने दें। स्पीड ब्रेकर जैसी पार बांधकर, उसकी चाल को कम करके धीमी गति से जाने दें। इसके कुछ तरीके हो सकते हैं। खेत का पानी खेत में रहे इसके लिए मेढबंदी की जा सकती है।  गांव का पानी गांव में रहे इसके लिए तालाब और छोटे बंधान बनाए जा सकते हैं। चैक डेम बनाए जा सकते हैं। या जो टूट-फूट गए हैं उनकी मरम्मत की जा सकती है।वृक्षारोपण किया जा सकता है।
षहरों  में वाटर हारवेस्टिंग के माध्यम से पानी को एकत्र कर भूजल को ऊपर लाया जा सकता है। इसके माध्यम से कुओं व नलकूप को पुनजीर्वित किया जा सकता है। नदी-नालों में बोरी बंधान बनाए जा सकते हैं। सूखी नदियों को गहरा किया जा सकता है।
इसके साथ सबसे जरूरी है खेती में हमें फसलचक्र बदलना होगा। कम पानी या बिना सींच के परंपरागत देषी बीजों की खेती करनी होगी। और ऐसी कई देषी बीजों को लोग भूले नहीं है, वे कुछ समय पहले तक इन्हीं बीजों से खेती कर रहे थे। देषी बीज और हल-बैल, गोबर खाद की ओर मुड़कर मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। यानी समन्वित प्रयास से ही हम पानी जैसे बहुमूल्य संसाधन का संरक्षण व संवर्धन कर सकते हैं। इस संदर्भ में हमें महात्मा गांधी की सीख याद रखनी चाहिए, उन्होंने कहा था कि प्रकृति मनुष्य की सभी आवष्यकताओं की पूर्ति कर सकती है, परंतु लालच की नहीं।
यह रिपोर्ट इंक्लूसिव मीडिया फैलोषिप के अध्ययन का हिस्सा है