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क्यों बढ़ रही है इलाज में लापरवाही-- महेन्द्र अवधेश

ओड़िशा एक बार फिर शर्मसार है। दाना मांझी प्रकरण की कालिख से बदरंग हुआ चेहरा भी राज्य सरकार को सबक नहीं दे सका। बीते अठारह अक्तूबर को राउरकेला जिला अस्पताल में लहुणीपाड़ा निवासी बबलू भूमिज अपनी ढाई साल की बच्ची का शव घर ले जाने के लिए एक अदद एंबुलेंस की खातिर डॉक्टरों की मनुहार करते रहे, लेकिन चौबीस घंटे तक भरसक प्रयास करने के बावजूद वह अंतत: नाकाम रहे। बाद में खबर पाकर एडीएम मोनिशा बनर्जी ने निजी वाहन के जरिये बच्ची का शव और उसके माता-पिता को लहुणीपाड़ा भिजवाया। बीते पंद्रह अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ स्थित सरकारी अस्पताल में दो दिन पहले जनमे नवजात को चूहों ने काट डाला, नतीजतन उसकी मौत हो गई।

पिता गुलाम हसन ने डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप लगाया। बीते तेरह अक्टूबर को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के लालबहादुर शास्त्री अस्पताल में एक नवजात की मौत हो गई। त्रिलोकपुरी निवासी शेर सिंह ने आरोप लगाया कि आॅपरेशन से पैदा हुए उनके बच्चे को लेकर डॉक्टरों ने जमकर लापरवाही बरती। बीते नौ अक्टूबर को हरियाणा के अंबाला स्थित सिविल अस्पताल में एंबुलेंस न मिलने के चलते चौबीस साल का विनोद पीजीआइ, चंडीगढ़ नहीं पहुंच सका और उसकी मौत हो गई। तीन-तीन एंबुलेंस होने के बावजूद अस्पताल की ओर से विनोद के पिता फकीर चंद को किसी तरह की मदद नसीब नहीं हुई। तुर्रा यह कि अंबाला राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज का गृह जनपद है। धरती के भगवान कहे जाने वाले डॉक्टरों के गैर-जिम्मेदाराना रवैये के ये ताजा उदाहरण हैं।

पिछले कुछ सालों के दौरान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली समेत देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी कई खबरें आ चुकी हैं, जोे बताती हैं कि डॉक्टरी अब मिशन नहीं रही, बल्कि पेशा बन गई है। अस्पताल में मरीज को भरती करने में हीलाहवाली, इलाज में लापरवाही, आॅपरेशन के दौरान मरीज के शरीर में कैंची-तौलिया आदि छोड़ देना और मरीज की मौत हो जाने के बाद उसके शव के साथ अमानवीय व्यवहार के मामले अक्सर प्रकाश में आते रहते हैं। मौत के बाद अस्पताल प्रशासन मरीज का शव तब तक घरवालों के सुपुर्द नहीं करते, जब तक इलाज की पाई-पाई अदा न हो जाए। झारखंड के धनबाद स्थित एशियन द्वारका दास जालान अस्पताल में नटवारी-टुंडी निवासी संजय को अपनी बच्ची का शव पाने के लिए साइकिल बेचनी पड़ी। महज तेरह सौ रुपए बकाए के चलते उन्हें शव के पास जाने नहीं दिया गया। संजय एक नर्सिंग होम में दो दिन पहले जनमी बच्ची को लेकर अस्पताल आए थे, लेकिन अस्पताल प्रबंधन ने महज तीन दिनों में चौबीस हजार रुपए का बिल बना दिया।

गली-गली खुले नर्सिंग होम्स की हालत और भी बदतर है। अधिकतर नर्सिंग होम्स की कार्यप्रणाली यह है कि वे इलाके में और आसपास प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों का नेटवर्क संचालित करते हैं, ये डॉक्टर चाहे डिग्रीधारी हों या झोलाछाप, और ये उन्हें मरीजों को तब हैंडओवर करते हैं, जब मामला उनके हाथ से निकल जाता है। नर्सिंग होम एक बार फिर मरीज पर प्रयोग (एक्सपैरिमेंट) करते हैं, परिवारजनों को नोचते-खसोटते व लूटते हैं। और जब उनके हाथ से भी तोते उड़ जाते हैं, तो वे मरीज को बड़े निजी, सरकारी, अर्द्ध-सरकारी अस्पताल स्थित अपने संपर्कों के हवाले कर देते हैं।

दिल्ली के आंबेडकर नगर में रहने वाली आशा शर्मा ने बीते सात अक्टूबर को इंडियन मेडिकल काउंसिल और पुलिस में खानपुर स्थित सैनी नर्सिंग होम और उसके मालिक डॉक्टर सैनी के खिलाफ इलाज में लापरवाही, धोखाधड़ी की शिकायत दर्ज कराई। आशा को अल्ट्रासाउंड से पता चला कि उनके गॉलब्लेडर में पथरी है। डॉक्टर सैनी ने आॅपरेशन की सलाह देकर उनसे पच्चीस हजार रुपए जमा करा लिये और कहा कि आॅपरेशन वह स्वयं करेंगे। आशा की हालत नजरअंदाज कर उन्हें पहली मंजिल तक सीढ़ियों के जरिये पहुंचाया गया। फिर पता चला कि आॅपरेशन तो बत्रा अस्पताल के डॉक्टर विजय हंगलू करेंगे। आॅपरेशन के बाद लगी ग्लूकोज की बोतल समेत आशा को सीढ़ियों के जरिये ही भूतल स्थित वॉर्ड में लाया गया, जहां से डिस्चार्ज होकर वह घर आ गर्इं। कुछ दिनों बाद आशा को दर्द बढ़ा, तो वह फिर सैनी नर्सिंग होम गर्इं, जहां डॉक्टर सैनी ने कहा कि आॅपरेशन के दौरान लगे टांके टूट गए हैं, लिहाजा दोबारा आॅपरेशन होगा और उसके लिए पच्चीस हजार रुपये अतिरिक्त देने होंगे।

सरकारी अस्पताल तो भगवान भरोसे चल रहे हैं। हाल में खबर आई कि दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में भारत-तिब्बत सीमा बल के सब-इंस्पेक्टर नरेश कुमार एक अदद बेड के लिए तरस गए। हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के मूल निवासी नरेश की दास्तान जब अखबारों में छपी, तब कहीं जाकर उन्हें बेड नसीब हुआ। जब सीमा की रक्षा में लगे जवानों के प्रति डॉक्टरों-अस्पतालों का यह रवैया है, तो बाकी आमजन की बात कौन कहे। इसी एम्स में बुलंदशहर निवासी एक दंपति अपने दो माह के बीमार बच्चे के साथ एक पखवाड़े से ज्यादा यह पता लगाता रहे कि आखिर मर्ज क्या है? लेकिन कोई डॉक्टर उन्हें यह बताने को तैयार नहीं हुआ कि बीमारी क्या है और करना क्या चाहिए।

बीते छह अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के बांदा जिला अस्पताल में एक लावारिस महिला मरीज को कुत्तों ने नोच कर मार डाला। उक्त महिला के पैर का एक हिस्सा सड़ गया था और उसे तीन स्टॉफ नर्सों की देखरेख में रखा गया था। बावजूद इसके वह आवारा कुत्तों का शिकार बन गई। बीते दो अक्टूबर को चित्रकूट जिला अस्पताल के स्टॉफ ने पाठा निवासिनी गर्भवती प्रीति को महज इसलिए भगा दिया कि उनके मजदूर पति ने दस हजार रुपये खर्च कर पाने में असमर्थता जता दी। नतीजतन, प्रीति को शौचालय में बच्चे को जन्म देना पड़ा। दरअसल, अकर्मण्यता और अकुशलता नामक मानवीय अवगुण वह देशव्यापी बीमारी है, जिसने पूरे सिस्टम को बर्बाद कर रखा है। बहुधा लोग अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित आवश्यक ज्ञान अर्जित नहीं करना चाहते, और जिन्हें काम आता है, वे करना नहीं चाहते। अस्पतालों में अक्सर देखा गया है कि वार्ड ब्वाय और सफाईकर्मियों से इलाज संबंधी ऐसे काम कराए जाते हैं, जिनका उन्हें रंचमात्र ज्ञान नहीं होता। नतीजा मरीजों की मौत अथवा उनकी हालत पहले से बदतर हो जाने की शक्ल में सामने आता है।

डॉक्टरों तथा अस्पतालों की मनमानी, लापरवाही और अमानवीय व्यवहार के खिलाफ विभिन्न अदालतों द्वारा कई बार फटकार लगाई जा चुकी है, कई बार दंडात्मक कार्रवाई भी हो चुकी है। बावजूद इसके, न डॉक्टर सबक ले रहे हैं और न अस्पताल। गौरतलब है कि सात अगस्त, 2015 को पंजाब के अमृतसर स्थित पार्वती देवी अस्पताल और डॉक्टर जेएस सिद्धू पर जिला उपभोक्ता अदालत ने पांच-पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। मामला यह था कि रूपेश नामक युवक दो जुलाई 2011 को वहां बुखार से पीड़ित होने के चलते दाखिल हुआ था। रूपेश के पिता अशोक भंडारी ने अदालत को बताया कि अस्पताल ने डॉक्टर सिद्धू के गेस्ट्रोएनोलॉजिस्ट होने का बोर्ड लगा रखा था, जबकि वह केवल एमडी हैं। रूपेश का वहां चार दिनों तक इलाज चलता रहा। इस दौरान लीवर-किडनी की जांच के लिए जिन उपकरणों-दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है, उनकी अनदेखी की गई। नतीजतन, रूपेश की हालत बिगड़ने पर उसे एस्कॉर्ट अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा, जहां उनतालीस दिनों के इलाज के बाद उसकी मौत हो गई। अशोक ग्यारह लाख बानवे हजार छत्तीस रुपये खर्च करने के बावजूद अपने बेटे को नहीं बचा सके।

इससे पहले छब्बीस अप्रैल, 2015 को राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने दिल्ली के इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल और गायनोकोलॉजिस्ट डॉक्टर सोहिनी वर्मा पर एक करोड़ रुपये का हर्जाना लगाया था, जो उस दंपति को मिलना था, जिनकी बच्ची जन्म के समय चिकित्सीय लापरवाही के चलते मानसिक तौर पर निशक्त होकर महज बारह वर्ष की आयु में जान से हाथ धो बैठी थी। बच्ची की माता इंदू द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के अनुसार, वह दस जून 1999 को प्रसव के लिए अस्पताल में भर्ती हुई थीं। डॉक्टरों ने आश्वासन दिया कि सारी रिपोर्ट्स नॉर्मल हैं, लेकिन हालत बिगड़ने पर उन्हें वरिष्ठ डॉक्टर के बजाय रेजिडेंट डॉक्टर ने देखा। अगले दिन इंदू को सिंटोसिनॉन नामक दवा की भारी खुराक दे दी गई और उनके प्रसव में भी सत्ताईस घंटे का विलंब हुआ, जिससे गर्भस्थ शिशु को मानसिक क्षति पहुंची।

2002 में बच्ची के माता-पिता ने मेडिकल लापरवाही का आरोप लगाते हुए आयोग में गुहार की, लेकिन मामले की सुनवाई के दौरान बच्ची की मौत हो गई। फैसला देने वाले पीठ के अध्यक्ष न्यायाधीश जेएम मलिक ने कहा, कॉरपोरेट अस्पतालों व विशेषज्ञ डॉक्टरों से उम्मीद की जाती है कि वे अन्य से बेहतर प्रदर्शन करेंगे। इसी तरह चौबीस अक्टूबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता स्थित एएमआरआइ अस्पताल और तीन डॉक्टरों को इलाज में लापरवाही बरतने के मामले में दोषी पाते हुए पांच करोड़ छियानबे लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया था। न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय एवं न्यायमूर्ति वी गोपाल गौड़ा के खंडपीठ ने अपना उक्त फैसला अमेरिका में बसे भारतीय मूल के डॉक्टर कुणाल साहा के पक्ष में दिया था। 1998 में साहा की पत्नी अनुराधा की एएमआरआइ अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी।