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क्योंकि हर चमक चांदनी नहीं होती- भरत झुनझुनवाला

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान लगाया है कि इस वर्ष विश्व अर्थव्यवस्था चल निकलेगी। इस उम्मीद के पीछे सबसे बड़ी वजह अमेरिका की सुधरती स्थिति है। पिछले कुछ महीनों में वहां बेरोजगारी घटी है, शेयर बाजार चढ़ा है और विकास दर बेहतर हुई है। ये संकेत वास्तविक हैं, लेकिन इनके टिकाऊ होने में मुझे संदेह है। विषय को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए, एक कंपनी घाटे में चल रही है। कर्मचारियों के वेतन ऊंचे और कार्यकुशलता मामूली है। माल घटिया और महंगा तैयार होता है। कंपनी घाटा खा रही है। ऐसे में कंपनी बड़ा लोन लेती है।

इस लोन का उपयोग दो तरह से हो सकता है। एक, नई हाईटेक मशीनों में निवेश किया जाए और मार्केट सर्वे कराकर अपने उत्पादों की क्वॉलिटी और पैकेजिंग में बदलाव किया जाए। ऐसा निवेश करने से कंपनी अगले चक्र में मुनाफा कमाएगी और लिए गए लोन का रीपेमेंट करने में भी कामयाब होगी। दूसरा उपयोग यह कि प्राइम लोकलिटी में नया ऑफिस बना लिया जाए और कंपनी की ऊपरी चमक बढ़ा दी जाए। ऐसे में कंपनी अंदर से बदहाल होती जायेगी। कुछ समय बाद लोन की रकम खत्म हो जाएगी और कंपनी का दिवाला निकल जाएगा, जैसा किंगफिशर के साथ हुआ।

2008 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति घाटे में चल रही कंपनी जैसी थी। श्रमिकों के वेतन ऊंचे थे। उत्पादन लागत ज्यादा आती थी। अमेरिकी श्रमिकों की कार्यकुशलता भी संदिग्ध थी। राष्ट्रपति ओबामा बार-बार कह रहे थे कि भारत और चीन के सामने अमेरिकी युवा पिछड़ रहे हैं। कंपनियों ने अपने कारखाने चीन में स्थानांतरित कर दिए और सेवा क्षेत्र का स्थानांतरण भारत को चल रहा है। अमेरिकी नागरिकों के रोजगार और वेतन दबाव में आ गए और वे मकान बनाने को लिए गए ऋण की अदायगी नहीं कर सके। 2008 के संकट का मूल कारण यही था। संकट से उबरने के लिए अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने स्टिमुलस जारी किया। भारी मात्रा में नोट छाप कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में फैला दिए गए। अमेरिकी सरकारों के अलावा नागरिकों और कंपनियों को भी लगभग शून्य दर पर बड़ी मात्रा में लोन उपलब्ध हो गए। नागरिकों द्वारा लोन का उपयोग मकान बनाने के लिए किया गया, जिससे रोजगार तथा सीमेंट, सरिया की मांग बनी। इससे अर्थव्यवस्था में चौतरफा उत्साह भी बना। लेकिन, मेरी समझ से यह घाटे में चल रही कंपनी के नए दफ्तर जैसा ही था, क्योंकि इस निवेश से आय का कोई नया स्रोत नहीं खुला।

लोन का उपयोग सरकार द्वारा भी किया गया। लेकिन इस रकम को बुनियादी संरचना अथवा रिसर्च जैसे कार्यों के लिये कम ही लगाया गया है। अधिकतर रकम का उपयोग सरकार के भारी-भरकम ढांचे को जिंदा रखने के लिये किया गया है, जिसमें अफगानिस्तान युद्ध जैसे अनुत्पादक खर्च भी शामिल हैं। स्टिमुलस लोन के उपयोग का तीसरा रास्ता कार्पोरेट जगत का रहा। यहां एक हिस्से का सकारात्मक निवेश किया गया। आज भी कई हाइटेक क्षेत्रों में अमेरिकी कंपनियों का वर्चस्व बरकरार है। इंटरनेट के राउटर तथा पर्सनल कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर अमेरिका में ही बनाए जा रहे हैं। लोन के उपयोग का दूसरा हिस्सा इतना सकारात्मक नहीं रहा क्योंकि वहां की कुछ कंपनियों द्वारा शून्य ब्याज दर पर ऋण लेकर भारत जैसे विकासशील देशों में निवेश किया गया।

इस निवेश पर अमेरिकी कंपनियां अच्छा लाभ कमा रही हैं। यही अमेरिकी शेयर बाजार में आ रहे उछाल का रहस्य है। लेकिन, यह आय टिकाऊ नहीं है। स्टिमुलस से मिले लोन का उपयोग चार स्थानों पर किया गया- मकान बनाने में, सरकारी खर्चों में, कंपनियों द्वारा घरेलू निवेश में और उन्हीं द्वारा विदेशी निवेश में। इन चार में केवल कंपनियों द्वारा किया गया घरेलू निवेश ही उत्पादक है। इससे होने वाली आय पर्याप्त रही तो अमेरिका की वर्तमान विकास दर टिकाऊ हो जाएगी। अन्यथा घाटे में चल रही कंपनी के आलीशान दफ्तर की तरह अमेरिकी अर्थव्यवस्था टूट जायेगी और इसके साथ ही नया वैश्विक संकट पैदा हो जाएगा। इस कारण मुझे इस बात में शक है कि मुद्राकोष द्वारा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार का पूर्वानुमान टिकाऊ होगा।

हवाई पूर्वानुमान
2007 में विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि 2008 में विकसित देशों की विकास दर 2.6 प्रतिशत रहेगी। लेकिन, घटित कुछ और ही हुआ। ऐसे पूर्वानुमान तात्कालिक स्थितियों के आधार पर बनाए जाते हैं। जैसे वर्तमान में अमेरिका में बेरोजगारी घट रही है और उद्यमियों में उत्साह है। इस बात की पड़ताल नहीं की जाती है कि जो बेरोजगारी घटती दिख रही है, उसका कारण आलीशान ऑफिस बनाने में निहित है या हाइटेक मशीनें लगाने में।

जो बात अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर लागू होती है, वही हम पर भी लागू होती है। विश्व अर्थव्यवस्था में हमारी पैठ इस बात पर निर्भर करेगी कि हमने अपने राजस्व, लोन और पूंजी का उपयोग किस दिशा में किया है। अगर हमने हाईवे और सीएफएल बल्ब जैसी चीजों में उत्पादक निवेश करेंगे तो हम आगे बढ़ेंगे। लेकिन यही रकम अगर हम सरकारी कर्मियों को ऊंचे वेतन देने में या मनरेगा के माध्यम से देश को अपंग बनाने में व्यय करेंगे तो नीचे जाएंगे।