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क्लाइमेट चेंज पर जरूरी है नियंत्रण-- भरत झुनझुनवाला

केंद्र सरकार ने किसानों के लिए फसल बीमा स्कीम घोषित की है. धरती का तापमान बढ़ने से प्राकृतिक आपदाएं बढ़ेंगी. तदानुसार, किसानों की समस्याएं बढ़ेंगी. फसल चौपट होने से इन्हें आत्महत्या करने या खेती से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ेगा. अतः सरकार द्वारा घोषित बीमा योजना सही दिशा में है. हालांकि, इसके सफल होने में संदेह है.

दरअसल, किसानों को फसलों के नुकसान की भरपाई हो जाये, तो भी देश की खाद्य सुरक्षा स्थापित नहीं होती है. गेहूं की फसल बेमौसम वर्षा से नष्ट होने पर सरकार द्वारा किसानों को मुआवजा दिया जा सकता है. परंतु, जो गेहूं नष्ट हो जायेगा, उसकी भरपाई कैसे होगी? देश को अन्न कहां से मिलेगा? अतः हमें उपाय निकालना होगा कि क्लाइमेट चेंज पर नियंत्रण के कारगर कदम उठाये जाएं. एक ओर हम अधिकाधिक काॅर्बन उगल कर मौसम की बेरुखी को आमंत्रण दें और दूसरी ओर फसल बीमा जैसी योजनाओं को लागू करें, तो स्थायित्व नहीं आयेगा. अतः क्लाइमेट चेंज पर नियंत्रण जरूरी है.

ऊर्जा उत्पादन की कथित साफ तकनीकों में भी समस्याएं हैं. महाराष्ट्र के एक मित्र ने बताया कि वहां फूलों की घाटी जैसा एक विलक्षण क्षेत्र था. कुछ वर्ष पहले उसके नजदीक ऊर्जा उत्पादन के लिए विंडमिल लगा दी गयी.

पाया गया कि उस क्षेत्र के फूल लुप्त होने लगे. संभवतः विंडमिल के कारण पक्षियों का उस क्षेत्र से पलायन हो गया. पक्षियों एवं पतंगों आदि का परस्पर संबंध होता है. वह संतुलन बिगड़ गया और फूलों के पराग का आदान-प्रदान बाधित हो गया. विंडमिल की आवाज का भी विपरीत प्रभाव हो सकता है. इसी प्रकार जल विद्युत को साफ-सुथरा माना जाता है, लेकिन इसके दुष्प्रभावों का ज्वलंत उदाहरण अलकनंदा नदी पर हाल में ही बनी श्रीनगर जल विद्युत परियोजना है. इसके निर्माण से साल भर पहले वहां अमन-चैन था, जो समाप्त हो गया है. परियोजना के बांध के पीछे 30 किलोमीटर लंबी झील बन गयी है.

इस झील में पानी सड़ रहा है. जल संस्थान द्वारा इस सड़े हुए पानी को साफ करके चौरास तथा श्रीनगर आदि शहरों को भेजा जा रहा है. इस पूरे क्षेत्र में पीलिया रोग का प्रकोप हो गया है. झील के किनारे बसे गांव धसक रहे हैं. झील के पानी से किनारे की मिट्टी नरम होकर फिसल रही है, जिससे कि मकानों में दरारें पड़ रही हैं.

उत्तराखंड की विशिष्ट मछली महासीर अंडे देने के लिए ऊपर के ठंडे क्षेत्र को जाती थी. बांध के कारण अब महासीर उसमें कैद है और उसका प्रजनन क्षेत्र तक आवागमन अवरुद्ध हो गया है. महासीर की साइज घटने लगी है. इस प्रकार कथित साफ तकनीकों के भी दुष्प्रभाव पड़ते हैं. अर्थशास्त्र में एक कहावत है ‘कुछ भी मुफ्त नहीं है.' हर वस्तु की कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी पड़ती है. यह सोच गलत है कि साफ तकनीकों को अपना कर हम अपनी खपत को असीमित स्तर तक बढ़ाते जा सकते हैं.

हमें समझना ही होगा कि खपत में वृद्धि की एक सीमा है. इस सत्य को स्वीकारने में अड़चन आती है कि अर्थशास्त्रियों ने सुख को खपत की मात्रा से परिभाषित कर दिया है. जैसे पढ़ाया जाता है कि एक केला खाने की तुलना में दो केले खाने वाला व्यक्ति ज्यादा सुखी है.

इस सोच के कारण हम उत्तरोत्तर अधिक खपत की ओर बढ़ते जाते हैं. लेकिन स्पष्ट है कि प्रकृति एक सीमा से अधिक खपत को उपलब्ध नहीं करा सकती है. इसलिए मनुष्य और प्रकृति के मध्य द्वंद्व छिड़ा हुआ है. इस समस्या का हल हम साफ तकनीकों का हवाला देकर नहीं हासिल कर सकते हैं. एक मात्र उपाय है कि हम सुख की परिभाषा पर पुनर्विचार करें.

ईसा मसीह ने कहा था कि एक ऊंट सूई के छेद में से निकल गया, मैं यह स्वीकार कर सकता हूं, परंतु एक अमीर स्वर्ग पहुंचा हो, यह मैं नहीं मानता हूं. देखा जाता है कि अमीर लोग रक्तचाप, शूगर एवं अस्थमा जैसे मनोरोगों से ज्यादा ग्रसित होते हैं, जबकि फकीर प्रसन्न दिखते हैं.

इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि केवल खपत बढ़ाने मात्र से सुख नहीं मिलता है. वास्तव में सुख अंतर्मन की इच्छाओं तथा सांसारिक कार्यों के बीच तालमेल बिठाने मात्र से मिलता है. इच्छा हो रोटी खाने की और खिलाया जाये पेड़ा, तो सुख नहीं मिलता है. लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्र में अंतर्मन का काॅन्सेप्ट है ही नहीं. इसीलिए पूरा संसार संसाधनों की खपत बढ़ाने को आतुर है और प्रकृति इस दुस्साहस का दंड हमें क्लाइमेट चेंज के रूप में दे रही है.

अतः हमें साफ तकनीकों का उपयोग अवश्य करना चाहिए, क्लाइमेट चेंज से प्रभावित किसानों को बीमा अवश्य देना चाहिए, परंतु ये कदम ऊपरी हैं. अंततः हमें सुख को नये सिरे से परिभाषित करना होगा, जिससे कि हम कम खपत से सुख प्राप्त कर सकें और क्लाइमेट चेंज के खतरे से बच सकें.