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खबरों का ग्रीनहंट! : अरुंधति राय

भारत सरकार एक ओर जब देश के गांवों में सेना और वायुसेना तैनात कर लोगों के संघर्ष को दबाने पर विचार कर रही है तो दूसरी ओर शहरों में कुछ विचित्र घटनाएं देखने में आ रही हैं।



बीते 2 जून को मैंने मुंबई में कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (सीपीडीआर) द्वारा आयोजित एक जनसभा को संबोधित किया। अगले दिन तमाम अखबारों और टीवी चैनलों पर इसकी सही कवरेज हुई। इसी दिन पीटीआई ने मेरे अभिभाषण को बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर एक खबर चलाई, जिसे सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस ने अपराह्न् 1.35 बजे ऑनलाइन पोस्ट किया। इसका शीर्षक था, ‘अरुंधति ने किया माओवादियों का समर्थन, खुद को गिरफ्तार करने की चुनौती दी।’ खबर की कुछ पंक्तियां देखें: ‘लेखिका अरुंधति राय ने माओवादियों के सशस्त्र प्रतिरोध का समर्थन किया है और सरकार को चुनौती दी है कि वह इस समर्थन के लिए उन्हें गिरफ्तार कर के दिखाए।’



‘नक्सल आंदोलन सशस्त्र संघर्ष के अलावा और किसी तरीके से संभव नहीं। मैं हिंसा का समर्थन नहीं कर रही, लेकिन मैं अपमानजनक उत्पीड़न पर टिके राजनीतिक विश्लेषण के भी खिलाफ हूं।’



‘इसे सशस्त्र आंदोलन होना ही था। प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका एक ऐसे समुदाय की मांग करता है, जो उसका साक्षी बन सके। वह यहां मौजूद नहीं। संघर्ष के इस तरीके को चुनने से पहले लोगों ने काफी विमर्श किया है।’ राय, जिन्होंने माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ और पुलिस के 76 जवानों की हत्या के बाद ‘दंतेवाड़ा के लोगों’ को सलामी दी थी, ने कहा, ‘मैं बाड़ के इस ओर हूं। मुझे फर्क नहीं पड़ता.. आप मुझे जेल में डाल दें।’



मैं अपनी बात इस खबर के अंत से ही शुरू करती हूं। यह बात, कि मैंने माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ और पुलिस के 76 जवानों की हत्या के बाद ‘दंतेवाड़ा के लोगों’ को सलामी दी थी, आपराधिक अवमानना का एक मामला है। मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं। मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है। मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निदरेष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं।



पीटीआई की रिपोर्ट का बाकी हिस्सा बैठक की कार्यवाही का एक सर्वथा मनगढ़ंत संस्करण भर था। मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं। मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को ‘माओवादी’ करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके। मैंने कलिंग नगर और जगतसिंहपुर के लोगों की ओर ध्यान आकर्षित किया, जो शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे हैं, लेकिन उन पर लाठियां और गोलियां बरसाई जा रही हैं। मैंने यह बताया था कि स्थानीय लोगों ने प्रतिरोध की रणनीति चुनने से पहले काफी विचार-विमर्श किया है। मैंने बताया था कि घने जंगलों में रह रहे लोग गांधीवादी संघर्ष के तरीके क्यों नहीं अपना सकते क्योंकि उसके लिए उनसे सहानुभूति रखने वाले समुदाय की भी जरूरत होती है। मैंने सवाल किया कि जो लोग पहले से ही भुखमरी का शिकार हैं, वे अनशन पर कैसे बैठ सकते हैं। मैंने कतई यह नहीं कहा कि ‘इसे सशस्त्र आंदोलन होना ही था।’



मैंने कहा था कि आज तमाम मतभेदों के बावजूद जो भी आंदोलन चल रहे हैं, वे इस बात को समझते हैं कि उनका विरोधी एक ही है। इसीलिए वे बाड़ के एक ओर हैं और मैं उन्हीं के साथ खड़ी हूं। इसके बाद मैंने कहा कि भले ही प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका उतना प्रभावी न रहा हो, लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसा ‘विकास’ का एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी नजरिया फिर भी है। जबकि मुझे आशंका होती है कि प्रतिरोध का माओवादी तरीका भले ही प्रभावी हो, लेकिन वह कैसा ‘विकास’ चाहते हैं अभी स्पष्ट नहीं है। क्या उनकी खनन नीति राज्य की खनन नीति से भिन्न है? क्या वे बॉक्साइट को पहाड़ों में ही छोड़ देंगे या फिर सत्ता में आने पर उसे खोद निकालेंगे?



एक दिन पुरानी पीटीआई की रिपोर्ट कई भाषाओं के अखबारों में छपी और 4 जून को टीवी चैनलों पर चली, जबकि इन अखबारों और चैनलों के रिपोर्टर खुद आयोजन को कवर करने आए थे और जानते थे कि पीटीआई की रिपोर्ट झूठी है। मुझे अचरज होता है कि आखिर क्यों अखबार और टीवी चैनल एक ही खबर को दो बार चलाएंगे- एक बार सही और दूसरी बार गलत!



4 तारीख की शाम करीब सात बजे मोटरसाइकिल सवार दो व्यक्ति मेरे दिल्ली स्थित निवास पर आए और उन्होंने पथराव किया। एक पत्थर तो एक बच्चे को लग ही गया था। लोग जब गुस्से में इकट्ठा हुए, तो वे भाग गए। कुछ ही मिनट के भीतर एक टाटा इंडिका वहां पहुंची। उसमें बैठा व्यक्ति जो खुद को जी न्यूज का रिपोर्टर बता रहा था, उसने पूछा कि क्या यह अरुंधति राय का घर है और यहां कुछ गड़बड़ हुई है क्या। जाहिर है, यह एक गढ़ा हुआ मामला था, ‘जनाक्रोश’ का नाटकीय प्रदर्शन, जिसकी टीवी चैनलों को तलाश रहती है। खुशकिस्मती से उस शाम यह नाटक नाकाम रहा। 5 जून को एक अखबार ने खबर लगाई, ‘हिम्मत हो तो एसी कमरा छोड़ कर जंगल आए अरुंधति’, जिसमें छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन मुझे चुनौती दे रहे थे। छत्तीसगढ़ की ही एक भाजपा नेत्री पूनम चतुर्वेदी ने तो एक कदम आगे बढ़ कर प्रेस में घोषणा की कि मुझे चौराहे पर गोली मार दी जानी चाहिए।



क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए। या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप ‘हमारे’ साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं।



26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है। भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही)। इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है। खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है।



(लेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी विचार हैं।)



लेखिका बुकर पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।