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खबरों का ट्विटरीकरण!- राजदीप सरदेसाई

हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान मैंने बाबा रामदेव, जो टेली-फ्रेंडली योगगुरु के साथ ही अब कालेधन के विरुद्ध मोर्चा खोल लेने वाले आंदोलनकारी भी बन गए हैं, से पूछा कि उनकी संपदा का राज क्या है? उन्होंने तपाक से कहा : ‘इस तरह के प्रश्न क्यों पूछ रहे हो? तुम भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में हमारे साथ हो या दुश्मनों के साथ?’ आह! भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ रहे योद्धा से एक तनिक असहज सवाल पूछने भर का यह मतलब था कि आप विरोधी खेमे में शामिल हो गए हैं। यानी इस पार या उस पार। जिस तरह पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में दुनिया को दो भागों में बांट दिया था, अब भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन के दौरान भी कहीं ऐसा ही तो नहीं हो रहा?

बाबा का कथन वास्तव में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तौर-तरीकों पर एक टिप्पणी है। पिछले साल प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय को अन्ना हजारे की टीम ने रामलीला मैदान से लगभग ‘खदेड़’ दिया था और उन्हें विश्वासघाती करार दे दिया गया था। अरुणा रॉय का अपराध क्या था? उनका अपराध यह था कि उन्होंने लोकपाल बिल पर एक व्यापक जनविमर्श का प्रस्ताव रखा था। लेकिन जब आप अपने मंतव्यों के औचित्य और अपने अचूक होने को लेकर इतने सुनिश्चित होते हैं, तो वहां किसी तरह की बहस और असहमति के लिए भला जगह ही कहां बच रहती है?

सेवानिवृत्त सेना प्रमुख वीके सिंह को भी उन भ्रष्टाचार विरोधी ‘नायकों’ की पांत में खड़ा किया जा सकता है, जो दुनिया को एक स्पष्ट विभाजन में देखने की प्रवृत्ति प्रदर्शित करते रहे हैं। पिछले कुछ माह में जनरल समर्थकों ने हर उस व्यक्ति के विरुद्ध ई-मेल अभियान छेड़ दिया, जिसने उनके प्रयोजनों को प्रश्नांकित करने की हिमाकत की थी। असहज प्रश्न पूछने वालों को अक्सर पूर्वग्रहों से ग्रस्त या ‘बिका हुआ’ तक करार दे दिया जाता है।

लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी मानसिकता को संचालित करने वाली असहिष्णुता की यह भावना उसका विरोध करने वाले सरकार में बैठे लोगों पर भी उतनी ही लागू होती है। गत सप्ताह जब टीम अन्ना के सदस्यों ने कोयला आवंटन में अनियमितता पर आवाज उठाई तो वरिष्ठ मंत्रियों ने उन्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देते हुए उनके इरादों के पीछे कोई ‘विदेशी हाथ’ होने की बात भी कह दी। निश्चित ही हमारे कुछ सम्मानित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारियों द्वारा जिस भाषा का इस्तेमाल किया गया, वह अभद्र और दुराग्रहपूर्ण थी, लेकिन क्या केवल इसी आधार पर किसी को राष्ट्रविरोधी करार दिया जा सकता है? या क्या हम फिर से आपातकाल के उन अंधकारपूर्ण दिनों की ओर लौटने की कोशिश कर रहे हैं, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री को सरकार की हर आलोचना में देश की चूलें हिला देने की कोशिशें नजर आती थीं?

निश्चित ही असहिष्णुता की इस लहर के कारण हमारी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के बुनियादी आधारों के नष्ट हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। यदि काटरून पसंद नहीं है तो किताब पर पाबंदी लगा दो। यदि किसी टॉक शो में पूछे गए सवालों पर एतराज है तो शो से वॉकआउट कर जाओ और श्रोताओं को ‘माओवादी’ करार दे दो। यदि संसद में बहस नहीं चाहिए तो सदन को बार-बार कार्यवाही स्थगित करने पर विवश कर दो। गुजरात दंगों जैसे संवेदनशील विषयों पर सवाल पूछना अच्छा नहीं लगता तो सोशल मीडिया के विरुद्ध चरित्रहनन का आंदोलन छेड़ दो या राजद्रोह का ही केस दायर कर दो। भाजपा के पोस्टर बॉय नरेंद्र मोदी वास्तव में आम धारणा के ध्रुवीकरण का एक अच्छा उदाहरण हैं। यदि आप मोदी की प्रशासनिक दक्षता की सराहना करते हैं तो आपको ‘बिका हुआ’ घोषित कर दिया जाता है और यदि आप अल्पसंख्यकों के विरुद्ध उनकी सरकार के रवैये पर सवालिया निशान खड़े करते हैं तो आपको ‘छद्म सेकुलर’ और ‘राष्ट्रद्रोही’ तक बताया जा सकता है।

लगता है हम एक श्वेत-श्याम नैतिक संसार में जी रहे हैं, जहां धूसर रंगों यानी सार्वजनिक मसलों पर उपयुक्त ढंग से बात करने के लिए न के बराबर गुंजाइश बची है। शायद, इसके लिए मीडिया भी इतना ही दोषी है। हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहां 1000 शब्दों के लेख के स्थान पर १४क् अक्षरों के ट्वीट को एक स्वाभाविक परिपूरक माना जा सकता है। जब नैतिक आक्रोश दर्शाने वाले चंद शब्दों से ही काम चल रहा हो तो एक लंबे-चौड़े लेख के लिए सिर खपाने की भला क्या जरूरत है?

हमारा टीवी मीडिया भी इंस्टैंट के आग्रह के चलते ‘पॉप’ विश्लेषण की बहस संस्कृति को प्रोत्साहित कर रहा है, जहां आपको कोई न कोई पक्ष लेने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। आमतौर पर इन बहसों में पूछे जाने वाले सवाल अतिवादी विचारों को प्रोत्साहित करते हैं (जी हां, इसके लिए मैं भी दोषी हूं!)। सूक्ष्म विश्लेषण करने वाले संयत स्वरों को नीरस करार दे दिया जाता है, जबकि कर्कश लफ्फाजियों को ऊंची ‘एंटरटेनमेंट वैल्यू’ प्रदान करने वाली मान लिया जाता है।

खबरों का यह ‘ट्विटरीकरण’ अब हम सभी के लिए चुनौती बनता जा रहा है। सत्ताधीशों और सिविल सोसायटी समूहों दोनों का ही रुझान प्रदर्शनप्रियता की ओर रहा है, जिस वजह से उनका जोर विवेकशीलता के बजाय शोरगुल पर अधिक हो जाता है। लेकिन अहिष्णुता की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अकेले मीडिया को दोषी ठहराना भी अनुचित है। हाल ही में अपने एक लेख में प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार हरीश खरे ने लिखा : निश्चित ही असहिष्णुता की यह संस्कृति आरोप-प्रत्यारोप की उस राजनीति की तार्किक परिणति है, जो भारत में पिछले दो दशकों में उपजी है। अब यह संस्कृति राजनीतिक वर्ग के साथ ही सिविल सोसायटी के मुखर हलकों में भी नजर आ रही है। यह एक ऐसा परिवेश है, जिसमें किसी व्यक्ति के चरित्र, पद, कार्य इतिहास या निजता तक के बारे में मनचाही टिप्पणियां की जा रही हैं, ईमानदार बहसें हाशिये पर हैं और किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकल पा रहा है, जबकि नैतिकता का छद्म रंगमंच जारी है।

निश्चित ही मीडिया इस खेल के लिए एक सरल मंच मुहैया कराता है, लेकिन टीवी स्टूडियो कोई ऐसा चुंबकीय क्षेत्र नहीं होता, जो हमारे उच्चतर विवेक का हरण कर लेता हो। आखिर हमारे नेता ही सार्वजनिक विमर्शो को अधिक समृद्ध बनाने की अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं समझते? निश्चित ही चुप्पी कोई उपयुक्त जवाब नहीं है, लेकिन हायतौबा और शोरगुल भी तो कोई समाधान नहीं होता। हमें तर्कप्रिय होना चाहिए, लेकिन अभियोगप्रिय नहीं। हमें खुले विचारों का होना चाहिए, असहिष्णु नहीं।