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खराब मानसून में छिपे डर - अनिल पद्मनाभन

इस साल मानसून का जो हाल है, वह बहुत डराने वाला है। इससे गुजरे छह हफ्ते से जो अनिश्चितता पैदा हुई है, वह एक बुरी आशंका की ओर इशारा कर रही है। कुदरत के संकेतों को समझते हुए कुछ यह दावा कर सकते हैं कि भारतीय मौसम विभाग की औसत मानसून की भविष्यवाणी सही साबित होगी। लेकिन क्या यही सच है? अभी तक मानसून का जो हाल है, वह 2009 और 2012 जैसा है। इन दो वर्षों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि साल 2009 में सूखा पड़ा था और 2012 का अंत ठीक-ठाक हो गया, क्योंकि तब मानसून के आखिरी हफ्तों में अच्छी बारिश हो गई थी। अब सवाल यह है कि क्या हम सूखे की तरफ जा रहे हैं या औसत मानसून की ओर? इसका कोई आसान जवाब नहीं है। फिलहाल हम उस जगह पर हैं, जहां दोनों में से कुछ भी हो सकता है। मौसम विभाग ने 26 जुलाई को जो आंकड़े जारी किए, उनके अनुसार देश के दो-तिहाई हिस्से में कम बारिश हुई है। इन्हें सामान्य से 20 प्रतिशत से लेकर 59 प्रतिशत तक कम वर्षा क्षेत्रों में बांटा गया है। देश के करीब एक प्रतिशत भू-भाग में काफी कम बारिश हुई है।

ऐसे क्षेत्रों में सामान्य से 60 से 90 प्रतिशत कम वर्षा-जल दर्ज किया गया है। कुल मिलाकर, इस समय तक पूरे देश में सामान्य से 25 प्रतिशत कम बारिश हुई है। कुछ हफ्ते पहले तक यह आंकड़ा 40 प्रतिशत था। इसी से यह बताया जा रहा है कि इस दौरान मानसून ने अपनी रफ्तार पकड़ी है। साल 2012 में कुछ ऐसी ही स्थिति थी। 28 जुलाई, 2012 तक 46 प्रतिशत भारतीय हिस्से में कम बारिश हुई थी, इन हिस्सों में आज से थोड़ी-सी बेहतर स्थिति थी और 12 प्रतिशत क्षेत्रों में काफी कम बारिश दर्ज की गई, जो आज की तुलना में काफी खराब स्थिति थी। जहां तक क्षेत्रवार बारिश का मामला है, तो वह भी साल 2012 जैसा ही है। 28 जुलाई, 2012 तक पूरब और पूवरेत्तर में वर्षा-जल में कमी 10 फीसदी, दक्षिणी प्रायद्वीप में 21 फीसदी, मध्य भारत में 20 फीसदी और उत्तर-पश्चिम में 39 फीसदी थी। वहीं 26 जुलाई, 2014 तक पूरब और पूर्वोत्तर में 23 फीसदी, दक्षिणी प्रायद्वीप में 24 फीसदी, मध्य भारत में 20 फीसदी और उत्तर-पश्चिम में सामान्य से 38 फीसदी कम बारिश हुई है।

यदि मानसून अपने 2012 के ही तरीके को दोहराता है, तब भी सबको राहत की सांस लेनी चाहिए। ऐसा इसलिए कि तब अगस्त का महीना शुरू होते ही मानसून ने रफ्तार पकड़ी थी और अंतत: पूरे देश में सामान्य से सात फीसदी कम बारिश दर्ज की गई। लेकिन यदि इस बार का मानसून साल 2009 की राह पर बढ़ता है, तो देश सूखे की तरफ बढ़ रहा है। भारत में सूखे का ऐलान तब किया जाता है, जब पूरे मानसून-काल में सामान्य से दस प्रतिशत कम या इससे भी कम बारिश होती है और वह प्रभावित क्षेत्र देश के कुल क्षेत्र का 20-40 प्रतिशत होता है। इसलिए इस समय तक, एक बात जरूर साफ हो चुकी है कि देश के कई क्षेत्र सूखे जैसे हालात का सामना करेंगे। इसमें खास तौर पर चिंता की बात यह है कि गरमी की फसल, यानी खरीफ की बुआई में देरी मानसून की लेट-लतीफी से हुई है। इस समय में कुल बुआई सामान्य से 30 प्रतिशत कम है। 24 जुलाई तक पांच करोड़, 33 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में विभिन्न खरीफ फसलों की बुआई हो चुकी थी। हालांकि, इससे पिछले हफ्ते तक बुआई-क्षेत्र तीन करोड़, 45 लाख हेक्टेयर था। ऐसे में, यदि मानसून भरपायी कर पाया, तभी खरीफ फसल गंभीर नुकसान से बच सकती है।

यह साफ है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार फिलहाल कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती। पिछले हफ्ते ही इसने अपने पहले के फैसले को आगे बढ़ाया और यह भी फैसला किया कि खुले बाजार में खाद्यान्न के नए स्टॉक उतारे जाएं, ताकि महंगाई के और बढ़ने की आशंका खत्म हो।
महंगाई के ताजा आंकड़े यह संकेत देते हैं कि यह घट रही है। जून में खुदरा महंगाई दर घटकर 7.31 फीसदी पर आ गई, जो दो साल में सबसे कम थी और थोक महंगाई भी घटकर 5.43 फीसदी पर टिकी, जो चार महीने में सबसे कम थी। लेकिन यह स्थिति कुछ हद तक ‘बेस प्रभाव' के चलते है। पिछले साल भी इसी समय महंगाई को रोका गया था। वैसे भी सब्जी की कीमतों में जबर्दस्त उछाल सभी तरफ दिख ही रहा है। खुद मैंने बीते इतवार को एक किलो टमाटर के लिए 100 रुपये चुकाए। कई जगह रसोई में टमाटर की जगह इसके पेस्ट से काम चलाया जा रहा है। इसलिए यह खतरा कायम है कि महंगाई फिर जोर पकड़ेगी।

जाहिर है, भारतीय रिजर्व बैंक इन तमाम घटनाओं पर पैनी नजर रख रहा होगा। अपने दो महीने की मौद्रिक नीति समीक्षा के साथ जब वह आएगा, तब उसके पास मानसून के और दस दिनों के आंकड़े होंगे, क्योंकि मौद्रिक नीति पांच अगस्त को आएगी। रिजर्व बैंक की नीतियों से यह उजागर होगा कि एक खराब मानसून को लेकर हमारे सत्ता के गलियारों में क्या-कुछ आर्थिक नीतियां बनती हैं और साथ ही, यह भी पता चलेगा कि उस अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के क्या उपाय किए जा रहे हैं, जो वर्षों से उपेक्षित है। भारतीय रिजर्व बैंक ही नहीं, बल्कि ग्रामीण मांगों पर आश्रित उपभोक्ता कंपनियों की नजरें भी मानसून की तरक्की पर टिकी हैं।

चूंकि, पूरे देश के हालात एक जैसे नहीं होंगे, इसलिए सब जगह किल्लत एक समान नहीं आएगी। बड़ा खतरा है, तो बस महंगाई के सिर उठाने का। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के पास अपनी धमाकेदार जीत का जश्न मना पाने का समय अब शायद ही बचा है। उसे खराब मानसून के राजनीतिक प्रबंधन पर सबसे पहले ध्यान देना होगा, खासकर तब, जब अगले कुछ महीनों में पांच राज्यों के चुनाव होंगे और हकीकत है कि यह गठबंधन सत्ता में इसलिए आया कि इसने महंगाई समेत दूसरी चुनौतियों से निपटने का वादा किया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)