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खाद्य सुरक्षा- अधूरी पहल

महीनों की बातचीत के बाद राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा बिल की सिफारिश कर दी है। यह बिल मुख्य अनाज के लिए आम लोगों के कानूनी अधिकार को पहले सोचे गए स्तर से भी नीचे ला देता है। और इस तरह परिषद ने भूख समाप्त करने के लिए सर्वजनीन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से संगठित प्रयास शुरू करने का ऎतिहासिक अवसर खो दिया है।

भारत में अनाज का वार्षिक उपभोग घटकर 174.2 किलोग्राम रह गया है जो सबसे कम विकसित देशों (182.1 किग्रा) की तुलना में अथवा विश्व औसत से 44 प्रतिशत कम है। विश्व भूख संकेतक में 84 देशों के बीच भारत का 67वां स्थान है और यह पाकिस्तान व नेपाल से भी पीछे है। भारत के विकास के रिकॉर्ड पर सबसे बदनुमा दाग व शर्म का सबब भूख और कुपोषण है, और वो भी सकल घरेलू उत्पाद में तेजी से बढ़ोतरी के दो दशकों के बावजूद।

परिषद का प्रस्ताव है कि भारत की आबादी के कम से कम तीन-चौथाई हिस्से को, जिसमें 90 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरी आबादी आती है, सरकारी अनुदान पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए एक कानून बनाया जाए। इसके अन्तर्गत 75 प्रतिशत को पूर्वाधिकार परिवार और सामान्य परिवारों में बांटा जाना है। पहले वाले परिवार हर महीने एक रूपया प्रति किलो की दर से 35 किग्रा मोटा अनाज ज्वार, बाजरा आदि, दो रूपये की दर से गेहंू और तीन रूपये की दर से चावल पाने के अधिकारी होंगे, जबकि आम परिवारों को 20 किग्रा पाने का अधिकार होगा, जिसका मूल्य हालिया न्यूनतम मूल्य के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा, जो आजकल 5.50-6.00 रूपये प्रति किलो ग्राम पड़ता है।
परिषद ने इससे पहले एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था, जिसमें कहा गया था कि सरकारी सहायता प्राप्त अनाज के लिए सभी नागरिकों को समान रूप से अधिकारी बना कर पहले दौर में भारत की एक-चौथाई आबादी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत लाया जाएगा। लेकिन इसे छोड़ दिाय गया। परन्तु इस कानूनी अधिकार का विस्तार करके इसके अन्तर्गत दोपहर के खाने की योजनाओं, मातृत्व लाभ योजनाओं तथा एकीकृत बाल विकास योजनाओं जैसे कार्यक्रमों को ला दिया गया और इसमें नि:सहाय, असुरक्षित समहों और बेघर बच्चों को भोजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सामुदायिक रसोइयां जैसे नए घटकों को जोड़ दिया गया था।

इस पूर्वाधिकार वर्ग में फिर भी ग्रामीण आबादी का 50 प्रतिशत और शहरी का 70 प्रतिशत हिस्सा नहीं आएगा। ये दो वर्ग कुख्यात तौर पर भ्रामक गरीबी रेखा के नीचे और गरीबी रेखा के वर्गो के कुछ परिवर्तित रूप हैं। परिषद ने 46 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को पूर्वाधिकार सूची में रखा है, जो गरीबी रेखा के नीचे तेंदुलकर कमेटी के आकलन (41.8) से कुछ ही अधिक है। और शहर के 28 प्रतिशत पूर्वाधिकार परिवार गरीबी रेखा से नीचे तेंदुलकर के परिवारों संबन्धी तेंदुलकर के आकलन (27.8 प्रतिशत) से कहने भर को ही अधिक हैं। पूर्वाधिकार-सामान्य विभेदीकरण सरकार के लिए छोड़ा जाना है। पिछले अनुभवों के आधार पर कि इसके मनमाने, असन्तोषजनक और अनुचित होने की आशंका है।

अनेक सर्वेक्षणों ने प्रदर्शित किया है कि गरीबी रेखा से नीचे वर्गीकरण में दो तरह की खामियां हैं। एक, उनको बाहर रखना जो गरीब हैं और जिनके पास अधिकारियों द्वारा यह मनवाए जाने के लिए आवश्यक साधन नहीं है और दूसरी खामी इस सूची में, जो गरीब और इसके पात्र नहीं हैं, उनके नामों को शामिल करना है, क्योंकि वे प्रभावशाली होने के नाते यह करवा सकते हैं। इस प्रक्रिया में 50 से 60 प्रतिशत तक गरीब सूची से बाहर हो जाते हैं। और गलत ढंग से शामिल करने की इस खामी के चलते दसियों लाख उन परिवारों को सरकारी सहायता प्राप्त अनाज मिलता रहता है जो गरीब और इसके पात्र नहीं हैं।

इन खामियों को कम से कम रखने का एकमात्र उपाय सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सर्वजनीकरण है। केरल के पिछले अनुभव और तमिलनाडु में प्रणाली के हालिया कार्यप्रदर्शन ने सर्वजनीकरण की निर्णायक श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिया है। यह सोच से कहीं कम खर्चीला है। प्रणाली के आकलन की प्रक्रिया स्व-चयनात्मक है। अमीरों को इसका इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती, लेकिन गरीब जरूर ही करते हैं।
केरल में सर्वसाधारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के एक अध्ययन के अनुसार जिन लोगों की आमदनी 1000 रू. महीने या कम थी, उन्होंने अपने हिस्से की 70 प्रतिशत से ज्यादा खरीदारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली से की थी, जबç क जिनकी आमदनी 3000 रू. या इससे ज्यादा थी, वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से उसकी केवल छह प्रतिशत चीजें खरीद रहे थे जिनके वे अधिकारी थे। अगर सरकार 650 लाख टन अनाज (2300 लाख टन उत्पादन में से) की उगाही कर सकती है, तो यह उतनी ही आसानी से 850 लाख टन की भी कर सकती है, जो अनुमान के अनुसार सर्वजनीन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए सबसे अधिक मात्रा है।

अन्त में सरकार खाद्य सुरक्षा पर मात्र आधी राशि खर्च करेगी जैसा कि इसने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम में किया था, जो संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन के शासन (2004-8) की प्रमुख उपलब्धि था। यह सप्रग-2 के सर्वप्रमुख सामाजिक कार्यक्रम के प्रति कोई खुले दिल की प्रदिबद्धता नहीं। किसी महत्वाकांक्षी, कारगर और समग्र खाद्य सुरक्षा ने भारत में भूख को इतिहास बना दिया होता और वे परिस्थितियां पैदा कर दी होती जिनमें अभावग्रस्त लोगों को मानवीय गरिमा के साथ, अगले खाने की चिंता किए बिना, ेक नया जीवन मिल गया होता। लेनिक यह नहीं होना था। दिन में दो छाक पेट भरने के लिए पूर्वाधिकार सूची में शामिल करने के लिए बेदर्द नौकरशाही से लड़ते हुए भी गरीबों को अभी और संघर्ष करना पड़ेगा।
प्रफुल्ल बिदवई
लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं