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खाद्य सुरक्षा की शर्तें- रविशंकर

जनसत्ता 12 अप्रैल, 2013: हालांकि यूपीए सरकार की मंशा थी कि बजट सत्र में ही खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद से पास करा लिया जाए, पर ऐसा नहीं हो पाया। संसद की कार्यवाही बार-बार स्थगित होने से संशोधित विधेयक अब तक पेश नहीं हो सका है। अब इस विधेयक के बजट सत्र के अंतराल के बाद पेश होने की उम्मीद है। वास्तव में यह विधेयक यूपीए के 2009 के उस चुनावी वादे का हिस्सा है, जिसमें कहा गया था कि सत्ता में दोबारा आने पर हर परिवार को बेहद सस्ती दर पर पचीस किलो अनाज हर महीने मुहैया कराया जाएगा।
गौरतलब है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सोनिया गांधी की महत्त्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा योजना को हाल ही में मंजूरी दी है। इस योजना से संबंधित विधेयक में देश की पचहत्तर फीसद ग्रामीण और पचास फीसद शहरी आबादी को हर महीने प्रतिव्यक्ति पांच किलो अनाज पाने का कानूनी अधिकार देने का प्रावधान किया गया है। यह अनाज अपरिवर्तित दर पर वितरित किया जाएगा। इसमें चावल की कीमत तीन रुपए, गेहूं की दो रुपए और मोटे अनाजों की एक रुपए प्रति किलो होगी। बहरहाल, खाद्य विधेयक के दायरे में देश की करीब सड़सठ फीसद आबादी आएगी। हालांकि अंत्योदय अन्न योजना के तहत आने वाले करीब 2.43 करोड़ बेहद गरीब परिवारों को प्रति परिवार प्रतिमाह पैंतीस किलो खाद्यान्न की कानूनी अर्हता होगी। इन परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए यह खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाएगा।
खास बात यह है कि इस विधेयक में गर्भवती महिला को और बच्चे के जन्म के बाद भी उसे दो वर्ष तक प्रतिमाह पांच किलो अतिरिक्त खाद्यान्न देने की बात कही गई है। इसके अलावा ऐसी महिलाओं को पोषण के लिए छह महीने तक प्रतिमाह एक हजार रुपए देने का प्रावधान किया गया है। हालांकि राज्यों ने इस पर आपति जताई है। उनका कहना है कि इस कानून को लागू करने से पहले यह आकलन किया जाना चाहिए कि राज्यों पर इसका कितना भार पड़ेगा।
गौरतलब है कि दिसंबर, 2011 में लोकसभा में पेश किए गए मूल विधेयक में लाभार्थियों को प्राथमिक और सामान्य परिवारों के रूप में विभाजित किया गया था। प्राथमिक घरों को प्रतिव्यक्ति प्रति महीने सात किलो अनाज (चावल तीन रुपए, गेहूं दो रुपए और मोटे अनाज एक रुपए की दर से) देने की बात तय हुई थी, जबकि सामान्य परिवारों के लिए कम से कम तीन किलो खाद्यान्न समर्थन मूल्य के आधे दाम पर देने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन अब नए प्रावधान से एपीएल यानी गरीबी रेखा से ऊपर के परिवारों को ज्यादा फायदा होगा। उन्हें अनाज की मात्रा और कीमत, दोनों लिहाज से लाभ मिलेगा। लेकिन बीपीएल परिवारों को विधेयक के मूल प्रस्ताव की तुलना में कम अनाज मिल पाएगा।
खाद्य सुरक्षा विधेयक मनरेगा के बाद यूपीए सरकार की दूसरी बड़ी जन-कल्याणकारी पहल है। 2009 के चुनावों में किसानों की कर्जमाफी, मनरेगा, सूचना का अधिकार जैसी योजनाओं ने कांग्रेस को 207 सीटें दिला दी थीं। उसी को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस लोकसभा चुनाव से ठीक पहले खाद्य सुरक्षा विधेयक को अंतिम रूप देकर सियासी फायदा उठाने की फिराक में है। खाद्य सुरक्षा योजना की बात यूपीए सरकार चार साल से कर रही थी; विधेयक को अंतिम रूप देने में इतना वक्त क्यों लगा? भले कानून लागू होने के तीन वर्ष बाद कीमतों में संशोधन की बात कही गई है, लेकिन विधेयक के प्रावधानों में कई विसंगतियां हैं।
पहली तो यह कि पांच किलो अनाज से किसी व्यक्ति की महीने भर की जरूरत कैसे पूरी होगी, यह सोचने वाली बात है। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिव्यक्ति सात किलो अनाज मुहैया कराने का निर्देश दिया था। वहीं विधेयक के प्रावधानों के मुताबिक अलग-अलग राज्य इसे लागू करने के लिए अलग-अलग समय निर्धारित कर सकते हैं। उनके अपने प्रावधान होंगे। यानी सरकार का एक अहम मकसद राज्य सरकारों के भरोसे पर है। यह अलग बात है कि कुछ राज्यों ने खाद्य सुरक्षा के कुछ बेहतर प्रावधान लागू किए हैं।
अहम सवाल यह है कि पांच किलो अनाज भूखे पेट को भरने में कितना सहायक होगा। क्योंकि सरकार की इस मुहिम से प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन केवल 167 ग्राम अनाज मिलेगा। क्या ऐसे में हमें सचमुच यह मान लेना चाहिए कि यह योजना भारत को भुखमरी और कुपोषण से निजात दिलाने में सहायक होगी? ऐसे अनेक सवाल प्रस्तावित कानून के साथ जुड़े हुए हैं।
सरकार यह कैसे दावा करेगी कि उसने सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर दी? आज भी देश में करीब बत्तीस करोड़ लोगों को एक वक्त भूखे पेट ही सोना पड़ता है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2012 के मुताबिक इक्यासी देशों की सूची में भारत का स्थान सड़सठवां है, जो पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और श्रीलंका से भी नीचे है। मौजूदा वक्त में देश की लगभग एक तिहाई आबादी भूखी और कुपोषित है।
पोषण से जुड़ी कई संस्थाओं के आकलन के मुताबिक एक वयस्क व्यक्ति को पर्याप्त पोषाहार के लिए प्रतिमाह बारह से चौदह किलो अनाज के अलावा डेढ़ किलो दाल और आठ सौ ग्राम खाद्य तेल की जरूरत पड़ती है। लेकिन सरकार केवल पांच किलो अनाज देकर खाद्य सुरक्षा की महज खानापूर्ति करना चाहती है।

जाहिर है, सरकार की इस मुहिम के बावजूद देश की सतहत्तर प्रतिशत जनसंख्या को अपनी आय का सत्तर प्रतिशत हिस्सा केवल भोजन के लिए खर्च करते रहना पड़ेगा। यानी उन्हें महंगाई और भुखमरी का दंश झेलते रहना होगा। दूसरी तरफ, कुपोषण भी बना रहेगा। क्योंकि प्रोटीन की जरूरत को पूरा करने के लिए दालों और वसा की जरूरत को पूरा करने के लिए खाने के तेल का सरकार ने कोई प्रावधान नहीं किया है।
एक बड़ा सवाल यह है कि इतनी बड़ी योजना के लिए पैसा कहां से आएगा। क्योंकि इस कानून को लागू करने में सरकार पर पहले साल एक लाख बीस हजार करोड़ रुपए सबसिडी का बोझ आएगा, जो कि पिछले वित्त वर्ष की तुलना में पचीस से तीस हजार करोड़ रुपए अधिक होगा। हालांकि यह राशि सरकार द्वारा कॉरपोरेट जगत को कर-रियायतों के तौर पर दी जाने वाली छह लाख करोड़ रुपए की सालाना राशि का करीब बीस फीसद ही है।
आज अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग बीस प्रतिशत ही करों के रूप में सरकार के पास आता है, जबकि विकसित देशों में लगभग पचास प्रतिशत हिस्सा करों के तौर पर सरकारी खजाने में आता है। सरकार अब भी इस सच को स्वीकार नहीं कर रही है और उन्हें करों में छूट दिए जा रही है, जिसका कोई औचित्य नहीं है। दूसरी ओर कहा यह जाता है कि भूख से मुक्ति के कानून पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं है!
प्रस्तावित विधेयक को लागू करने के लिए हर साल छह से साढ़े छह करोड़ टन अनाज की जरूरत पड़ेगी। यह ठीक है कि मौजूदा उत्पादन और बफर स्टाक मिलाकर अगले दो-तीन साल तक भले कोई समस्या न आए, लेकिन सवाल दूरगामी असर का है। देश की तमाम सहकारी संस्थाओं का मानना है कि अनाज की भंडारण और वितरण प्रणाली दुरुस्त किए बिना खाद्य सुरक्षा कानून लाने का फैसला किसानों के साथ-साथ देश के लिए भी घातक साबित हो सकता है।
खाद की कमी और आसमान छूती कीमतें आने वाले वर्षों में खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे हालात में खाद्य सुरक्षा योजना के लिए आयात पर निर्भरता बढ़ेगी और इससे घरेलू और विदेशी, दोनों तरह के बिचौलियों को फायदा होगा। सवाल है कि आने वाले समय में सरकार खाद्य सुरक्षा के लिए अनाज कहां से मुहैया कराएगी।
पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में जो खामियां हैं, उन्हें बताने की शायद ही जरूरत है। हर किसी को पता है कि सरकार जिस तंत्र को खाद्य सुरक्षा के अहम माध्यम के तौर पर देख रही है, वह कितना कामयाब है। पीडीएस को लेकर सरकार जो भी दावा करे, यही सच है कि गरीबों के अनाज की व्यापक कालाबाजारी हो रही है। यह कोई नई बात नहीं है। पीडीएस का अनाज राज्य के गोदामों तक तो पहुंच जाता है, लेकिन वहां से राशन की दुकानों तक नहीं पहुंच पाता। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार, कालाबाजारी और ‘लीकेज\' हमेशा से था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसकी खामियां कई गुना बढ़ गई हैं।
इसलिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त किए बिना इस कार्यक्रम को कामयाब नहीं बनाया जा सकता। प्रस्तावित कानून को लागू करने के लिए अन्न की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ यह भी देखना जरूरी होगा कि वह आम लोगों तक पहुंच रहा है या नहीं। इसलिए हमें एक ऐसी व्यवस्था पर जोर देना होगा, जो अनाज को जरूरतमंद लोगों तक समय रहते पहुंचा सके। इसके लिए जरूरी है कि सरकारी तंत्र अपनी व्यवस्था को तर्कसंगत और प्रभावी बनाए। यह तभी हो पाएगा जब यह सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल हो।
खाद्य सुरक्षा विधेयक लाना एक अच्छा फैसला हो सकता है, लेकिन इसका समय गलत चुना गया है। अगले साल आम चुनाव होने हैं, लिहाजा इसे वोट जुटाने की यूपीए सरकार की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है। दूसरे, इस विधेयक को लाने का फैसला ऐसे समय हुआ है जब अर्थव्यवस्था लचर हालत में है। फिर, इसमें काफी कुछ राज्यों पर छोड़ दिया गया है। इसलिए इसके पुख्ता तौर पर लागू होने में अड़चनें आ सकती हैं। बेहतर होता कि यूपीए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के पहले ही दौर में इस विधेयक को लागू करवा लेती। अब, जब इसे लागू करना है तो इसके लाभार्थियों के चयन में सावधानी बरतनी होगी।
यह अच्छी बात है कि विधेयक में अनाज की कीमतें बहुत कम रखी गई हैं। मगर अनाज की मात्रा कम कर दी गई है, जिससे जरूरत का शेष अनाज ऊंची कीमत पर खुले बाजार से खरीदना होगा। इस विधेयक में जो प्रावधान हैं वे भुखमरी के तात्कालिक कारणों को छूते, पर मूल सवालों को नजरअंदाज करते हैं।