Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/खानपान-थोपने-की-बेजा-कोशिशें-मृणाल-पांडे-11431.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | खानपान थोपने की बेजा कोशिशें - मृणाल पांडे | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

खानपान थोपने की बेजा कोशिशें - मृणाल पांडे

पिछले कुछ समय से भारतीय खानपान के लोकतंत्र में मांसाहार के खिलाफ शाकाहार के स्वयंभू रक्षकों ने एक अजीब सा धावा बोल रखा है। भारतीय परंपरा की शुचिता बनाए रखने की अपील करते हुए वे देश के सभी लोगों को जबरन मांसाहार से शाकाहार की तरफ हांक रहे हैं। संभव है कि उनको किसी हद तक शाकाहारी धड़े के मन की बनावट की कुछ जानकारी हो, किंतु वे इस महत्वपूर्ण सच से अनजान हैं कि हमारे देश की कुल आबादी में शाकाहारियों का अनुपात हमेशा से कम रहा है। आज भी वह सिर्फ 29% है। भारत में मांसाहारी धड़े के विशाल आकार का भी आम लोगों को कोई अंदाज नहीं है। सच तो यह है कि खुद भारत सरकार के (सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के बेसलाइन सर्वेक्षण 2014 के) आंकडों के हिसाब से भारत में मांसाहारियों की तादाद कुल आबादी का 71% है।

जो लोग मानते हैं कि उत्तर भारत में मुस्लिमों के असर से ही मांसाहार प्रचलित हुआ और शाकाहार की पुरानी भारतीय शाकाहारी परंपरा के असली रक्षक आज भी दक्षिण में हैं, वे भी गलती के शिकार हैं। इस तालिका के अनुसार दक्षिण के पांच में से चार राज्यों, तेलंगाना में शाकाहारी लोगों की तादाद कुल आबादी का 1.3%, आंध्र में 1.75%, तमिलनाडु में 2.35 और केरल में 3% मात्र है। मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर (जहां शाकाहारी 31.45% हैं) और हिंदू बहुल कर्नाटक (जहां शाकाहारियों की संख्या 21.7 फीसदी है) में इस बिंदु पर बहुत कम फर्क है। वहीं हिंदू बहुल उत्तर भारत और (देश के भी) बड़ी आबादी वाले 2 प्रांतों - झारखंड तथा बिहार में कुल आबादी का सिर्फ 3.25 व 7.55 फीसदी भाग ही शाकाहारी है।

 

दरअसल विशुद्ध शाकाहार भारतीय चौके की एक खासियत होते हुए भी मांसाहार को भारतीय खानपान की पारंपरिक धारा से कभी बहिष्कृत नहीं किया गया है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि हमारे आर्य पुरखों के खाने में मांस शामिल था। वेदों में भी यज्ञ में बलि के योग्य 50 तरह के पशुओं का जिक्र मिलता है, जिनका मांस संभवत: प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाता ही होगा। धर्मसूत्रों में वशिष्ठ, गौतम और आपस्तंभ गाय-बैलों के वध का निषेध करते हैं और बौधायन गोहत्या के पातक से मुक्त होने का विधान करते हैं, किंतु आश्वलायन गृह्यसूत्र में मैत्रावरण देवयुग्म के लिए बांझ गाय (अनुबंध्या वशा) की बलि का विधान मिलता है। बहरहाल, जैसे-जैसे यह व्यावहारिक समझबूझ बढ़ी कि गोधन रक्षण कृषिप्रधान समाज में जीवनयापन के लिए अनिवार्य था, तो दूध देने वाली गाय तथा कृषि कर्म के मुख्य सहायक बैलों का वध रोका जाने लगा और ई. पू. 2000 में मनुस्मृति ने गोमांस को निषिद्ध बना दिया। गौरतलब है कि भैंसे या महिष की बलि पर रोक नहीं लगी। मैंने स्वयं पचास के दशक में उत्तराखंड के नंदादेवी मंदिर में जतिया (भैंस) की बलि होती देखी है।

 

ईसा पूर्व सदियों में ही जैन तथा बौद्ध धर्म वैदिक कर्मकांड, मनुवादाधारित जाति प्रथा तथा पशुओं की बलि का विरोधी बनकर उभरे। बौद्ध धर्म पशुहत्या तथा हिंसा का प्रबल विरोधी था, लेकिन दूसरे गृहस्थ धर्मावलंबियों, खासकर वेदबाह्य समुदायों के और अवर्णों के बीच मांसाहार का प्रचलन था। उसका बुद्ध ने निषेध नहीं किया। जैन समुदाय के 24वें तीर्थंकर और उनके समकालीन महावीर ने अलबत्ता जैनियों के लिए जीवहत्या और मांसाहार दोनों को वर्जित बताया। नेपाल, तिब्बत, चीन तथा द.पू. एशिया में बौद्धधर्म की हीनयान शाखा को मानने वाले आज भी मांसाहारी हैं।

 

आने वाली सदियों में भारत में यज्ञादि में जीवबलि न देने के जैन तथा बौद्ध सुधारवादी विचारों का असर पड़ना स्वाभाविक था और इसी कारण 8वीं सदी के बाद शंकर, मध्वाचार्य तथा रामानुजाचार्य ने पशुबलि की जगह नारियल अथवा कूष्मांड(कद्दू) की बलि देने की प्रथा शुरू करवाई। अधिकतर सनातनधर्मी ब्राह्मणों में तभी से शाकाहार का सिलसिला बना। लेकिन भौगोलिक वजहों व शरीरपालन की जैविक जरूरतों के कारण पूरे हिमालयीन इलाके में पशुबलि तथा मांसाहार हर जाति में कायम रहा। मौसमी वजहों से साल के बड़े भाग में ताजा शाक-सब्जी से वंचित इन इलाकों में आज भी कश्मीरी पंडितों से लेकर उत्तराखंड, असम, बंगाल (वैष्णव समुदाय छाेडकर), मिथिला क्षेत्र तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों में मांस और मछली ब्राह्मणों के खानपान में शामिल है। कर्नाटक के सारस्वत ब्राह्मणों में भी मांस मछली खाए जाते हैं। दरअसल दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के आगमन से पहले के (संगम) साहित्य के अनुसार गाय तथा भैंस का मांस वर्जित न था।

 

अंग्रेजी बोलने वाले और सार्वजनिक छवि वाले कुछ धनी परिवारों, बॉलीवुड या मॉडलिंग व्यवसाय के शरीर को छरहरा रखने को उत्सुक सदस्यों और भारी तादाद में विज्ञापन छपवाकर अपने कथित शाकाहारी उत्पाद बेचने वाली कंपनियों के द्वारा शाकाहार की लोकप्रियता बढ़वाने के प्रयासों से इधर यह गलतफहमी कुछ और बढ़ गई है कि मांसाहार सेहत के लिए खतरनाक है और शरीर की बेहतरी के लिए शाकाहार ही एकमात्र राह है। सच तो यह है कि मांसाहार शाकाहार से काफी महंगा है, इसलिए कई गरीब इच्छा नहीं, आर्थिक वजहों से शाकाहारी हैं। दूध तो इतना महंगा हो गया है कि गरीब इलाकों के दूध उत्पादक ग्रामीण अपने बच्चों को दूध की बजाय चाय पिलाते हैं और दूध बाजार में बेच देते हैं। कुछ साल पहले जब दिल्ली के स्कूली बच्चों को मिड-डे मील में अंडा देकर प्रोटीन की कमी दूर करने का सुझाव दिया गया, तो इसका इतना विरोध हुआ कि विचार त्यागना पड़ा। दक्षिण भारत के सरकारी स्कूलों में नियमित अंडा पाने से गरीब बच्चों की सेहत में सुधार होता पाया गया है। इसलिए रोज अच्छा खाना पाने वाले बच्चों के लिए शाकाहारी होना सही हो भी, तो भी जिस देश में अधिसंख्य बच्चे तथा महिलाएं कुपोषण से पीड़ित हों, वहां प्रोटीनयुक्त आहार को उनके स्कूली खाने से हटाना गलत होगा।

 

भारतीय राजनीति से समाज तक में आत्म प्रेम और परंपरा को लेकर आत्मवंचना शाकाहार को प्रतीक बनाना इधर जोर पकड़ रहा है और उसके दम पर कुछ संदिग्ध गोरक्षक गाय-भैंस के हर व्यापारी को पीटकर इस प्रथा को अल्पसंख्यकों से जोड़कर सांप्रदायिकता फैला रहे हैं। जीवनभर धन जोड़कर पारंपरिक तामझाम से आयोजित शादी-ब्याह या पूजा में शाकाहार के नाम पर बेशकीमती इंपोर्टेड फल-फूल व सब्जियों के छप्पन भोग परोसकर सराहना बटोरने, अतीत में जीने वाले हमारे नवसमृद्ध वर्ग के एक हिस्से को शायद ऐसे निर्मम गैरकानूनी प्रयासों को देख-सुनकर लगता हो कि यह दस्ते भारतीय परंपरा को ही दुरुस्त कर रहे हैं! पर यह उस भारतीय परंपरा का अपमान है, जिसके तहत सदियों से हमारे लोगों को शाकाहार या मांसाहार अपनाने की खुली छूट रही है।

 

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)