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खुदरा कारोबार के मिथक- सुभाष गताडे

जनसत्ता 4 अक्टुबर, 2012: भारत सरकार का दावा है कि खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजीनिवेश की राह खोलने से छह सौ अरब डॉलर तक पूंजी यहां पहुंचेगी। दूसरी तरफ के आलोचक इस तरह का अनुमान पेश कर रहे हैं कि वालमार्ट और उस जैसीकंपनियों के आने से कितने लाख लोग बेरोजगार होंगे, आदि। लगता है दोनों पक्षों की तरफ से छवि की लड़ाई चल रही है। कुल खुदरा कारोबार में आज बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी चार-पांच फीसद है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि 2018 तक यह हिस्सेदारी बढ़ कर पचीस फीसद हो जाएगी।  इस पूरी आपाधापी में जबकि ये अनुमान चर्चित हो रहे हों, भारत में पिछले पंद्रह साल से कायम बड़े रिटेल के अनुभव पर अधिक बात नहीं हो पा रही है। मालूम हो कि भारत में बड़े रिटेल का अनुभव कम से कम पंद्रह साल पुराना है।
पत्रकार श्रीनिवासन जैन और रवि जाधव अपनी एक रिपोर्ट में विस्तार से बताते हैं कि कितने ‘देशी’ पूंजीपतियों ने रिटेल में अपनी पूंजी लगाई और इस वक्तउनका अनुभव क्या है? उनके मुताबिक बड़े रिटेल की भले सुनहरी तस्वीर पेश की जा रही हो, मगर सच्चाई अलग है। दरअसल, इस धंधे में लगे हर बड़े खिलाड़ी को नुकसान उठाना पड़ा है। पिछले साल रिलायंस फ्रेश को दो सौ सैंतालीस करोड़ रुपए का नुकसान हुआ, भारती को दो सौ छियासठ करोड़ का और मोर सुपरमार्केट चलाने वाले आदित्य बिड़ला ग्रुप को चार सौ तेईस करोड़ रुपए का।
सुभिक्षा जैसा समूह जिसने एक वक्तपूरे मुल्क में पंद्रह सौ से अधिक दुकानें खोली थीं, उसका दिवाला पिट गया। कोई भले यह कहे कि इन समूहों को खुदरा क्षेत्र का अनुभव नहीं था, जिसकी वजह से उन्हें घाटा उठाना पड़ा; मगर किशोर बियानी की मिल्कियत वाला फ्यूचर ग्रुप, जो बिग बाजार शृंखला चलाता है, उसका संकलित घाटा तीन हजार करोड़ तक पहुंचा है।
जाहिर है, बड़े रिटेल में लगे सभी लगभग संकट में हैं। सैकड़ों करोड़ रुपए का नुकसान उठा कर धंधे में लगे हैं, शायद इसी इंतजार में कि जब वालमार्ट आदि विदेशी कंपनियां आएंगी तो उन्हें खरीद लेंगी या उनके साथ साझे में कारोबार के लिए अपनी पूंजी लगाएंगी। पिछले दस साल से वालमार्ट भारती ग्रुप के साथ साझे में कारोबार चला भी रहा है। बड़े रिटेल की सापेक्षिक विफलता की क्या वजहें होंगी?
इसकी एक बड़ी वजह है व्यावसायिक जगह का अभाव। दरअसल, जितनी भी जगह उपलब्ध है वह बेहद सीमित और बहुत खर्चीली है, जिसकी वजह से बड़े रिटेल का लाभप्रद होना मुश्किल होता है। दूसरी अहम बात भारतीयों की खरीदारी की आदतों से भी ताल्लुक रखती है। पश्चिमी देशों के नागरिकों के बरक्स, जो सप्ताह या महीने का बाजार इकट््ठे कर लेते हैं, भारतीय लोग टुकड़े-टुकड़े में खरीदारी करते हैं।
हम अपने घर से दुकान तक पैदल जाना पसंद करेंगे, न कि सुदूर बने किसी हाइपरमार्केट में गाड़ी चला कर पहुंचें। चाहे सड़कों पर खड़े ठेले वाले हों, खोमचे वाले हों, महानगरों में भी लगने वाले साप्ताहिक बाजार हों, किराना की दुकानें हों, मदर डेयरी के आउटलेट हों- भारतीयों के सामने खरीदारी को लेकर पर्याप्त विकल्प मौजूद हैं। दरअसल, सस्ते श्रम पर काम करवा रहे, यहां तक कि प्रतिबंधित बाल श्रमिकों को अपने यहां काम पर रखने वाले, बगल के इन व्यापारियों को इस बात से भी कोई उज्र नहीं होता कि ‘होम डिलीवरी’ के नाम पर आपके आदेश पर माचिस भी घर तक पहुंचा आएं। बड़े रिटेल की स्वयंसेवा के बरक्स यह बात भारतीयों की मानसिकता के लिए मुफीद जान पड़ती है। यह विचारणीय मसला है कि जब रिलायंस और बिड़ला इन बिखरे हुए, विशाल ढांचे को कुछ नुकसान नहीं पहुंचा पाए तो वालमार्ट और टेस्को जैसी बाहरी कंपनियां कितना असर डाल लेंगी? श्रीनिवासन अंत में यह भी पूछते हैं कि क्या बड़े रिटेल ने छोटे दुकानदार को तबाह किया है, जिसकी बात सभी विपक्षी पार्टियां एक सुर में कर रही हैं। उनके मुताबिक इस बात को लेकर कोई तथ्य मौजूद नहीं हैं कि पिछले डेढ़ दशक में बड़े पैमाने पर नुक्कड़ की दुकानें बंद हुई हैं।
वैसे बड़े रिटेल में विदेशी पूंजी निवेश को सुगम बनाने को लेकर पक्ष और विपक्ष के बीच फौरी लड़ाई जिस तरह पेश हुई है, वह पूंजी के वास्तविक चरित्र पर परदा डालती है। विदेशी पूंजी की मुखालफत का अर्थ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देशी पूंजी को क्लीनचिट देने वाला निकलता है? क्या हम कह सकते हैं कि ‘देशज’ पूंजी सांता क्लॉज का दूसरा रूप है, जिसकी हिमायत की जानी चाहिए?
फिलवक्त हम विपक्षी पार्टियों के उसूली नहीं, बल्कि रणनीतिक विरोध की बात को भले ही मुल्तवी कर दें- जिसका सबसे बड़ा प्रतीक मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआइ की मुखालफत के लिए उतरी भाजपा है (जिसके द्वारा अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में इसके लिए प्रस्ताव लाने के लिए तैयार रहने के प्रमाण मौजूद हैं)- हम इस बहस को टाल नहीं सकते कि बड़े आर्थिक सुधारों के नाम पर किस तरह पूंजीपतियों को अधिकाधिक छूट की जमीन तैयार की जा रही है। यह समझना बेहद जरूरी है, क्योंकि तभी हम लड़ाई के नए प्रतिमान बनाने की बात कर सकते हैं।
आर्थिक सुधारों के जिस दूसरे चरण को तेज करने की बात हो रही है, उसकी बुनियाद में बढ़ती मुद्रास्फीति और धीमी पड़ती आर्थिक वृद्धि की दर से निपटने का एक खास नुस्खा पेश किया जा रहा है। इसका   एक रास्ता यह मौजूद था कि सरकार करों की आमद बढ़ा कर अतिरिक्त संसाधन जुटाती और सार्वजनिक खर्चों को बढ़ाती ताकि जिसे फिस्कल डेफिसिट- राजकोषीय घाटा- कहा जाता है, वह न बढ़े।
लोगों को याद होगा कि प्रणब मुखर्जी के वित्त मंत्री रहते इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाए जा रहे थे, ताकि कॉरपोरेट क्षेत्र से अधिक करों की वसूली हो सके। हम याद कर सकते हैं कि कॉरपोरेट मीडिया ने किस तरह ‘गार’ का विरोध किया था और प्रणब मुखर्जी को पाप्युलिस्ट अर्थात लोकरंजक वित्तमंत्री का खिताब दिया था।
स्पष्ट है इस रास्ते पर सत्ताधारी तबके में सहमति नहीं बन पाई। सहमति इस बात पर बनी कि सरकार निजी निवेश को प्रोत्साहित करे। तर्क यह था कि बड़ी घरेलू पूंजी और विदेशी निजी पूंजी की ‘भूख’ को बढ़ावा देते रहा जाए। अगर मुनाफे में तेजी आएगी तो वे पूंजी निवेश करना चाहेंगी।
इस संदर्भ में रिजर्व बैंक की सलाह थी कि सरकार सबसिडी जैसे मदों में कटौती करके निवेश के खर्चे बढ़ाए, जिससे नई मांग पैदा होगी और वह निजी निवेश को प्रोत्साहित करेगी। रिजर्व बैंक ने साफ कहा था कि अनाज और पेट्रोलियम उत्पादों पर जो सबसिडी दी जाती है, उसी में कटौती हो।
उसके विशेषज्ञों का कहना था कि भले इसका असर गरीबों पर अधिक पड़े, मगर यह ‘कीमत’ चुकानी पड़ेगी, अगर घाटे को नियंत्रण में रखना है। दूसरे शब्दों में कहें तो संपत्तिशाली तबकों से अतिरिक्तकर वसूली के रास्ते बढ़ोतरी तेज करने का विकल्प अपनाने के बजाय गरीबों की सबसिडी में कटौती के रास्ते को अपनाया जाए।
इस मसले पर दूसरा सरकारी रुख यह था कि वित्त मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय ‘बिग टिकट रिफॉर्म्स’ को अंजाम दे। जैसे बहुब्रांड खुदरा में एफडीआइ या बीमा में विदेशी इक्विटी को बढ़ावा देना या सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण को तेज करना आदि, ताकि अर्थव्यवस्था की ‘एनिमल स्पिरिट’ मुक्त हो और निवेश आए। अगर हम पिछले दो दशक से अधिक वक्तसे देश में किए जा रहे नवउदारवादी आर्थिक बदलावों पर गौर करें तो इस तर्क को अधिक व्यापक फलक पर देख सकते हैं।
प्रख्यात अर्थशास्त्री और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सीपी चंद्रशेखर ने ‘फ्रंटलाइन’ में लिखे एक लेख में इस पर विस्तृत रोशनी डाली है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत किस तरह मुनाफा बढ़ रहा है और मजदूर की मजदूरी का प्रतिशत घट रहा है। उनके मुताबिक 1981-82 के बाद के तीस सालों में उत्पादकता पांच गुना बढ़ी, जिसका तीन चौथाई 90 के बाद सामने आया। पर उसका लाभ मजदूर को नहीं मिला, उसकी खालिस मजदूरी (नेट वेज) में कोई अंतर नहीं आया। मिसाल के तौर पर 1980 के दशक के दौरान अगर कुल संग्रहीत मूल्य (नेट वैल्यू एडेड) में मजदूरी का हिस्सा तीस प्रतिशत के करीब था तो 2009-2010 तक आते-आते यह अनुपात 11.6 प्रतिशत तक पहुंच गया। मजदूरी में ह्रास का सीधा असर बढ़े मुनाफे में दिखता है। वर्ष 2001-2002 में कुल संग्रहीत मूल्य में लाभ का अनुपात 24.2 फीसद था जो 2007-2008 तक बढ़ कर 61.8 फीसद पर पहुंच गया।
ऐसे कौन-से कारक हैं कि 2002 के बाद मुनाफे में इतनी जबर्दस्त तेजी आई। जवाब है, आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकार ने कॉरपोरेट क्षेत्र को करों में छूट प्रदान करने, अलग-अलग किस्म के सौदों और वित्तीय लेन-देन को सुगम बनाने, जमीन और अन्य दुर्लभ परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्र को बहुत मामूली कीमत पर सौंपने जैसे जिन कदमों को आगे बढ़ाया, उसी से पूंजी के मालिकों की चांदी होती दिखी। यूपीए सरकार ने 2009 में सत्ता संभालने के साथ ही विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) के निर्माण में आ रही बाधाओं को दूर करने का प्रस्ताव रखा था।
सेज के आकार पर अपने पिछले कार्यकाल में पाबंदी लगाने के लिए मजबूर हुई सरकार ने यह निर्णय लिया था कि अब ऐसी कोई पाबंदी नहीं रहेगी। इतना ही नहीं, इसकी जगह चुनने के मामले में डेवलपरों को आजादी दी थी। सेज को कई तरह के करों में रियायत देने के साथ ही श्रम कानून आदि के लिहाज से भी काफी छूट दी गई है। यहां निर्मित तमाम उत्पाद निर्यात के लिए होते हैं, जिन्हें लगभग दस साल तक तमाम करों से मुक्तरखा जाता है।
इस तरह हम देखते हैं कि नवउदारवाद के अंतर्गत न्यूनतम राज्य की धारणा को पूंजी के मालिकों और उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारिंदों के हाथों संपत्ति और आय को राज्य द्वारा ही हस्तांतरित करने में इस्तेमाल किया जाता है और इस बात को जनता से छिपाया जाता है कि खुद राज्य-व्यवस्था के अंग ही संचय के स्थान बन रहे हैं। वे लोग जो ‘बिग टिकट रिफार्म्स’ की बात कर रहे हैं, मानते हैं कि निवेशकों का भरोसा और उत्साह बनाए रखने के लिए यह बेहद जरूरी हैं।
यह मॉडल मुट्ठी भर लोगों के ही हित साधता है, व्यापक आबादी को और अधिक विपन्न बनाता है। असली समस्या घटती मांग की है। क्या करों के दायरे को बढ़ाए बिना इसके बारे में सोचा जा सकता है?
अगर हम जनता की वाकई हिमायत करना चाहते हैं तो इस मसले को देशी बनाम विदेशी पूंजी के तौर पर पेश करने के बजाय नवउदारवादी आर्थिक बदलावों को वास्तविक चुनौती दे सकने वाले अंदाज में प्रस्तुत करना अधिक तर्कसंगत होगा।