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खुलासा या खबर?

मेरे एक करीबी मित्र इस बात के लिए ‘मीडियावालों’ की लानत-मलामत कर रहे थे कि उसका ध्यान केवल एक के बाद एक हो रहे घोटालों की खबरों पर ही केंद्रित है। मैं कुछ देर के लिए सोच में पड़ गया। मेरे मित्र उद्योगपति थे और उनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं था। न ही उन्होंने मीडिया में प्रकाशित होने वाले विश्लेषणों के आधार पर अपनी राय बनाई थी।

कॉमनवेल्थ खेलों में हुई गड़बड़ियों से उन्हें खासी चिढ़ हुई थी। २जी स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, राडिया टेप्स वगैरह के साथ उनका गुस्सा बढ़ता चला गया। उन्होंने मुझसे कहा : ‘क्या तुम लोगों के पास सुनाने के लिए कभी कोई अच्छी खबर नहीं होती?’

यदि इस तरह की बातें कहने वाले वे अकेले व्यक्ति होते तो शायद उनकी बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। लेकिन ऐसा नहीं है। हर दूसरे दिन आप लोगों को इस तरह की बातें करते सुन सकते हैं। यह तो तय है कि अखबार पढ़ने वाले और टीवी पर समाचार देखने वाले लोग अब भ्रष्टाचार की खबरों से बुरी तरह तंग आ चुके हैं। लेकिन मुसीबत यह है कि वे भ्रष्टाचार की खबर सुनाने वालों से भी नाराज हैं।

मेरा नजरिया इससे ठीक उलट है। मुझे लगता है कि मीडिया भ्रष्टाचार की खबरों को पर्याप्त महत्व नहीं दे रहा है। मिसाल के तौर पर २जी स्पेक्ट्रम घोटाले को ही लें। इस घोटाले ने मीडिया की सुर्खियों में केवल तभी जगह बनाई, जब सीएजी की रिपोर्ट आई और उसने बताया कि इस घपले के कारण सरकारी खजाने को कितना भारी नुकसान पहुंचा है। क्या मीडिया को बहुत पहले ही इस घपले का खुलासा करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी? यदि ऐसा होता तो सीएजी की रिपोर्ट केवल अतिरिक्त सूचनाभर बनकर रह जाती।

इलाहाबाद हाईकोर्ट में भ्रष्टाचार जैसे कुछ अन्य मसले हैं, जिनका खुलासा मीडिया द्वारा नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद यह मामला सुर्खियों में आया। आदर्श सोसायटी बिल्डिंग को निर्माण की अनुमति मिल गई, उसका निर्माण हो गया और उस पर कब्जा भी कर लिया गया, लेकिन मीडिया को भनक तक न लगी। जब एक वरिष्ठ जलसेना अधिकारी का अंदरूनी पत्र लीक हुआ, तब जाकर मीडिया को इस बाबत पता चला। हैदराबाद में रेड्डी बंधुओं की कारस्तानी और कर्नाटक में भूमि घोटाला भी इसी तरह के उदाहरण हैं। क्या मीडिया इन मामलों में जांच-पड़ताल की अगुआई कर रहा है या वह केवल सियासी पार्टियों से मिलने वाली छिटपुट सूचनाओं से ही अपना काम चला रहा है?

हाल ही में हुए भ्रष्टाचार के एक अन्य मामले में मीडिया की निष्क्रियता उजागर हुई। करोड़ों रुपए के इस भूमि घोटाले में उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव और एक उद्योगपति लिप्त थे। जब सीबीआई की विशेष अदालत ने इन दोनों को चार साल की सजा सुना दी, तब जाकर इस खबर को सभी अखबारों में जगह दी गई। यहां कुछ दिलचस्प बातों पर गौर किया जाना चाहिए।

नीरा यादव 1971 बैच की आईएएस अधिकारी हैं। भ्रष्ट अधिकारियों का सालाना खुफिया मतपत्र तैयार करने वाले उत्तरप्रदेश आईएएस अधिकारी संगठन ने वर्ष 1995 में नीरा यादव को भ्रष्ट अधिकारियों की फेहरिस्त में राज्य में दूसरे नंबर पर रखा था। इसके बावजूद वर्ष 2005 में मुलायम सिंह सरकार ने उन्हें मुख्य सचिव के रूप में पदोन्नत कर दिया। जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने भी नीरा को मुख्य सचिव के पद पर बनाए रखा।

लेकिन नोएडा भूमि घोटाले की खबर का न तो मीडिया ने खुलासा किया और न ही उस पर नजर बनाए रखी। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देशित किया था कि वह जांच शुरू करे। यह वर्ष 1998 की बात है। यहां तक कि सीबीआई की चार्जशीट भी सात साल पुरानी है। फिर भी मीडिया को इतने सालों तक कोई खबर न लगी। यह स्थिति तब है, जब नीरा कतई सतर्कता नहीं बरत रही थीं। नोएडा, दिल्ली, गाजियाबाद, मुंबई और बेंगलुरू में नीरा के बंगले हैं। यहां तक कि स्कॉटलैंड के ग्लासगो में भी उनका एक बंगला है! बताया जाता है कि उनके पास 500 करोड़ रुपए की संपत्ति है।

इतना ही नहीं। सीबीआई निदेशक ने उत्तरप्रदेश के राज्यपाल उमेश भंडारी सिंह को चिट्ठी लिखकर उन्हें करोड़ों रुपए मूल्य की उस अचल संपत्ति के बारे में जानकारी दी थी, जो नीरा द्वारा नोएडा प्राधिकरण की सीईओ के रूप में अर्जित की गई थी। उनसे पहले भी एक अन्य सीबीआई निदेशक ने नीरा की निजी संपत्तियों की जांच करने के लिए राज्यपाल से अनुमति चाही थी। लेकिन अनुमति नहीं दी गई। उत्तरप्रदेश सरकार ने बाकायदा केंद्र को चिट्ठी लिखकर जवाब दिया कि किसी तरह की कोई कार्रवाई की जरूरत ही नहीं है।

जाहिर है इस मामले में राजनीतिक हित जुड़े थे। अगर मुलायम और मायावती दोनों ने ही एक भ्रष्ट अधिकारी को राज्य के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर बनाए रखा, तो इसलिए क्योंकि उनका पद पर बने रहना दोनों के लिए अनुकूल था। लेकिन मीडिया को जांच करने के लिए किसी राज्यपाल की स्वीकृति की जरूरत नहीं होती है। न ही किसी भ्रष्ट का भंडाफोड़ करने के लिए मीडिया को किसी से सहमति लेने की जरूरत है। इसके बावजूद मीडिया ने अपनी भूमिका नहीं निभाई।

अब उत्तरप्रदेश से अनाज घोटाले की खबरें आ रही हैं। यह एक और बड़ा घोटाला है, जिसमें 35 हजार से लेकर 2 लाख करोड़ रुपए तक के घपले का अनुमान लगाया जा रहा है। यानी यह 2जी स्पेक्ट्रम से भी बड़ा घोटाला साबित हो सकता है। बताया जा रहा है कि इस घोटाले का दायरा पांच से ज्यादा देशों और उत्तरप्रदेश के आधे से अधिक जिलों तक फैला हुआ है और इसमें 12 सौ से अधिक प्रथम श्रेणी अधिकारी लिप्त हैं।

यह घोटाला पिछले लगभग एक दशक से चल रहा था, जिसमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न् भोजन और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए संचालित की जा रही विभिन्न योजनाओं के लिए आवंटित किए गए अनाज में हेरफेर किया जा रहा था। अनाज निजी रिटेलरों को बेचा जा रहा था, जबकि कागज पर दर्शाया जा रहा था कि उसे वितरित किया जा रहा है। ये सारी सूचनाएं अब जाकर प्राप्त हुईं क्योंकि यह मामला अब लखनऊ हाईकोर्ट तक पहुंच गया है। लेकिन सवाल तो अब भी वही है कि मीडिया इतने सालों से आखिर क्या कर रहा था?

बीते कुछ समय से मीडिया द्वारा खुद की पीठ थपथपाई जा रही है कि उसने कुछ घोटालों का खुलासा किया। जबकि सच्चाई यह है कि मीडिया ने किसी घोटाले का खुलासा नहीं किया। किसी अन्य व्यक्ति या संस्था द्वारा हस्तक्षेप करने के बाद जब भ्रष्टाचार का खुलासा हो गया तो मीडिया ने केवल उसकी खबरें प्रसारित कीं। इसीलिए भ्रष्ट अब भी भ्रष्ट बने हुए हैं। उन्हें किसी का डर नहीं है। कम से कम मीडिया का तो कतई नहीं।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)