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खेत में उगाई ‘नोटों की फसल’

बिलासपुर. अचानकमार टाइगर रिजर्व क्षेत्र से बैगा परिवारों को विस्थापित करने के खेल में वन विभाग ने करोड़ों का भ्रष्टाचार किया है। लोरमी के कठमुडा में 74 बैगा परिवारों को विस्थापित कर बसाया गया है। इन परिवारों के पुनर्वास के लिए 7 करोड़ 40 लाख रुपए दिए गए थे। इस राशि में से प्रत्येक परिवार को 10 लाख रुपए मिलने थे, जिसमें उन्हें घर, खेत, अन्य सुविधाएं और प्रोत्साहन राशि दी जानी थी। 74 परिवारों को 148 हेक्टेयर जमीन खेती के लिए मुहैया कराई गई।


खेत तैयार करने के एवज में वन विभाग को 2 करोड़ 59 लाख रुपए दिए गए थे। वन विभाग के अधिकारियों ने फर्जी मस्टररोल और फर्जी वाहन के बिल बनाकर आधी से ज्यादा रकम गबन कर ली है। रकम के गबन में उलझे अधिकारियों को यह तक ध्यान में नहीं रहा कि दस्तावेजों में कम से कम ऐसी गलतियां न करें, जो बाद में उनके खिलाफ सबूत बन जाएं। सूचना का अधिकार के तहत हासिल हुए यही फर्जी दस्तावेज भोले-भाले बैगाओं के हक की रकम की लूट के गवाह हैं।



लोरमी के कठमुडा में विस्थापित 74 बैगा परिवारों को विस्थापन के साथ खेती के लिए जमीन भी मुहैया कराई गई। खेती के लिए जमीन की खरीद और उसे खेत बनाने के लिए 2 करोड़ 59 लाख रुपए दिए गए थे। इस 148 हेक्टेयर जमीन को तैयार करने में डेढ़ करोड़ से अधिक रकम खर्च होना बताया जा रहा है, जबकि वास्तव में इस काम में 50 लाख का खर्च भी काफी ज्यादा माना जाएगा। विभाग की ओर से रकम की बंदरबांट के लिए फर्जी बिल और मस्टररोल तैयार किए गए हैं।


एक ही वाहन का कई को भुगतान हुआ है। दिन में जितने घंटे नहीं होते, उससे ज्यादा वाहन का उपयोग बताया गया है। इसी तरह की अनियमितताएं सूचना का अधिकार के तहत हासिल दस्तावेज से सामने आई हैं। करोड़ों के इस भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद भी विभाग को जांच करने की भी फुर्सत नहीं है। अचानकमार के टाइगर रिजर्व घोषित होने के बाद बाघों के संरक्षण के लिए प्रयास शुरू हुए। इसमें अचानकमार को मानव विहीन करना भी शामिल था।


अचानकमार में बसे विशेष संरक्षित एवं पिछड़ी जनजाति बैगा के ७४ परिवारों का आर्थिक-सामाजिक उत्थान और जंगल से निर्भरता कम करने के लिए विस्थापन किया गया। पुनर्वास नीति 2007 के तहत इन बैगा परिवारों के लिए वनमंडल बिलासपुर को 7 करोड़ 40 लाख रुपए का बजट मिला। इस राशि में से प्रति बैगा परिवार को 10 लाख रुपए दिए जाने थे। इसमें साढ़े 3 लाख रुपए में कृषि भूमि, 2 लाख रुपए में मकान और 5 डिसमिल की बाड़ी, 3 लाख रुपए में अधिकारों का व्यवस्थापन, 1 लाख रुपए में सामुदायिक सुविधाएं और 50 हजार रुपए नगद बतौर प्रोत्साहन दिया जाना था।



विस्थापन के तहत 74 परिवारों को 2-2 हेक्टेयर कृषि भूमि आबंटित करना था। इसके लिए आरक्षित वनक्षेत्र क्रमांक-550 कठमुडा की जमीन का चुनाव किया गया। यह मैदानी व उपजाऊ भूमि का समतल वन क्षेत्र है। इस जमीन में से 148 हेक्टेयर जमीन को 74 हिस्सों में बांटने की प्रक्रिया शुरू हुई। प्लाट को कृषि भूमि में बदलने के लिए स्टीमेट तैयार किया गया। जमीन को एक्सीवेटर, मानव श्रम व अन्य साधनों से समतल कर मेढ़ तैयार करना था।



इसमें मुश्किल से प्रति एकड़ अधिकतम 12 हजार रुपए या फिर प्रति हेक्टेयर 30 हजार रुपए का खर्च आना था। वन क्षेत्र की भूमि को खेत में बदलने का काम ३क् सितंबर 2009 से 15 जून 2010 तक जारी था। सूचना का अधिकार के तहत हासिल हुए वन विभाग की कैशबुक के मुताबिक पहले इस जमीन को एक फुट तक एक्सीवेटर से खोदकर मिट्टी निकाली गई है। फिर मिट्टी को प्लाऊ ट्रैक्टर से खींचकर मेढ़ बनाई गई है। प्रति हेक्टेयर खोदी गई मिट्टी की मात्रा 30 हजार घनमीटर है।



इस तरह 148 हेक्टेयर में से 4 लाख 44 हजार घनमीटर मिट्टी निकाली गई है। इस जमीन को खेत बनाने के लिए भूमि से कंटीली झांडियां, पत्थरों की खुदाई कर क्षेत्र से बाहर फेंकने, ऊंचे टीलों की खोदाई कर समतल करने के लिए मानव श्रम से 1918 सौ रुपए के हिसाब से 2 लाख 83 हजार 864 रुपए खर्च किए गए हैं। इसी प्रकार एक्सीवेटर से 27 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 4 लाख 44 हजार घनमीटर मिट्टी खोदने में 39 लाख 96 हजार खर्च हुए। एक्सीवेटर से खोदी गई मिट्टी को प्लाऊ ट्रैक्टर से 357 घंटे में खींचकर प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में मेढ़ बनाने, समतलीकरण व ठूंठों को बाहर करने में 81 हजार 305 रुपए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 1 करोड़ 20 लाख 33140 रुपए का खर्च आया।





वहीं 148 हेक्टेयर में फिर से मानव श्रम से एक्सीवेटर से उखाड़े गए ठूंठों को बाहर निकालने का ड्रेसिंग व लेवलिंग का कार्य 5 लाख ९६ हजार ६२२ रुपए में कराया गया है। इस तरह कैशबुक के अनुसार 1 करोड़ 63 लाख 14 हजार 135 रुपए का हिसाब सूचना का अधिकार के तहत हासिल हुआ है। करोड़ों रुपए से तैयार कराए गए खेत भी बैगा परिवारों के किसी काम के नहीं है। पारंपरिक तौर पर खेती का ज्ञान नहीं होने के कारण बैगा परिवार दूसरे किसानों की तरह इन खेतों से पैदावार हासिल नहीं कर पा रहे हैं। यही कारण है कि उपजाऊ भूमि होने के बाद भी वे इस जमीन पर कुछ ही क्विंटल धान उगा पा रहे हैं।