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खेतिहर मजदूरों की संख्या घटने का अर्थ

वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक देश के 58.2 फीसदी कामगार कृषि एवं संबंधित क्षेत्र से अपनी जीविका चला रहे थे. इस तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि पिछले दो दशकों में भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगातार कम हुई है.

2012-13 के आर्थिक सर्वेक्षण में यह आंकड़ा 14.1 प्रतिशत था. दोनों आंकड़ों की तुलना करें, तो यह एहसास होगा कि कृषि अब फायदे का सौदा नहीं है. हालात ऐसे हैं कि ज्यादातर किसान अगर विकल्प मौजूद हों, तो दूसरे रोजगार में जाना चाहते हैं.

बीते कुछ वर्षो से यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा था कि कृषि विकास में आयी जड़ता और गिरती उत्पादकता के मद्देनजर क्या दूसरे क्षेत्रों में कृषि कामगारों के लिए रोजगार के नये अवसरों का सृजन हो रहा है? एसोचैम की एक नयी रिपोर्ट इन सवालों के कुछ जवाब देती है.

रिपोर्ट का दावा है कि 1999-2000 से लेकर 2011-12 तक के बारह वर्षो में कृषि एवं संबंधित क्षेत्रों में लगे श्रमबल में 11 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है. इस रिपोर्ट के मुताबिक अच्छी बात यह है कि इन वर्षो में द्वितीयक (विनिर्माण) और तृतीयक (सेवा) क्षेत्र में कामगारों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि दर्ज की गयी है.

यानी संभवत: कृषि से बाहर हुए लोगों को बड़ी तादाद में विनिर्माण और सेवा आदि क्षेत्रों ने स्थान दिया है. लेकिन ये आंकड़े हर सवाल का जवाब नहीं देते. बड़ा सवाल यह है कि कृषि से बाहर निकलनेवाले कामगारों की स्थिति कैसी है? यह अकसर देखा जाता है कि गरीबी के कारण खेती छोड़ कर शहरों की ओर रुख करनेवाले कामगारों की स्थिति अच्छी नहीं होती. इन्हें बेहद कठिन कार्य परिस्थितियों में काम करना पड़ता है.

 

शहरों में मलिन बस्तियां ही इन्हें आसरा देती हैं. गांव का जीवन जहां उन्हें एक सामाजिक सुरक्षा देता है, वहीं शहरों में वे पूरी तरह जोखिमग्रस्त होते हैं. यहां यह समझना जरूरी है कि कृषि क्षेत्र से पलायन से ही गांवों की समस्या का स्थायी हल नहीं निकलनेवाला. इसके लिए सबसे पहले कृषि क्षेत्र में पिछले लंबे समय से जारी जड़ता को तोड़ने की जरूरत है. ऐसा कृषि में सरकारी व निजी निवेश को बढ़ावा देकर तथा कृषि को उद्योग के साथ जोड़ कर ही मुमकिन है. फिलहाल इस दिशा में कोई बड़ी पहल नजर नहीं आती.