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खेती की उपेक्षा और खाद्य सुरक्षा- भारत डोगरा

जनसत्ता 21 मार्च, 2012: लोकसभा में पिछले वर्ष प्रस्तुत किए गए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक से कोई सहमत हो या असहमत, पर इसके महत्त्च से इनकार नहीं किया जा सकता। मौजूदा रूप या इससे काफी मिलते-जुलते रूप में यह विधेयक पारित हो गया तो आने वाले अनेक वर्षों तक इसका हमारी खाद्य और कृषि व्यवस्था पर बहुत व्यापक असर पड़ेगा। इसलिए इस विधेयक से संबंधित जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे और देश में उस पर व्यापक बहस हो यह बहुत जरूरी है।
इस विधेयक में देश के छियालीस प्रतिशत ग्रामीण और अट्ठाईस प्रतिशत शहरी परिवारों को अधिक जरूरतमंद मानते हुए उनके लिए बहुत सस्ता अनाज देने की व्यवस्था की गई है। इस श्रेणी को मुख्य प्राथमिकता की श्रेणी मान कर प्रतिमाह प्रति व्यक्तिको सात किलो सस्ता अनाज उपलब्ध करवाने के लिए विधेयक ने कहा है। इन परिवारों को चावल तीन रुपए प्रति किलो, गेहंू दो रुपए प्रति किलो और मोटे अनाज मात्र एक रुपए प्रति किलो की दर से उपलब्ध करवाने की व्यवस्था इस विधेयक में है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में आने वाली सामान्य श्रेणी में ग्रामीण भारत के उनतीस प्रतिशत और शहरी भारत के बाईस प्रतिशत परिवारों को लिया जाएगा। विधेयक के अनुसार इन परिवारों को कम से कम तीन किलो प्रतिव्यक्ति प्रति माह अनाज उपलब्ध होगा। जिस कीमत पर सरकारी एजेंसियां किसानों से अनाज खरीदेंगी, उससे आधी कीमत पर अनाज इस श्रेणी के परिवारों को दिया जाएगा। इस तरह कुल मिला कर गांवों में पचहत्तर प्रतिशत और शहरों में पचास प्रतिशत परिवारों को सस्ता अनाज उपलब्ध होगा, जबकि शेष परिवार इस खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे से बाहर रखे गए हैं।
इस विधेयक के कानून बनने पर कौन-से परिवार प्राथमिकता की श्रेणी में चुने जाएंगे और कौन-से सामान्य श्रेणी में, यह एक बहुत पेचीदा सवाल है जिससे कानून का क्रियान्वयन बहुत प्रभावित होगा। पहले भी बीपीएल का अनुचित चुनाव होना बहुत विवाद का विषय बनता रहा है, प्राय: अनेक बेहद जरूरतमंदों के बीपीएल श्रेणी से वंचित रहने की शिकायतें मिलती रही हैं।
पहले के आंगनवाड़ी आदि कार्यक्रमों का विस्तार करते हुए यह विधेयक कहता है कि गर्भवती महिलाओं को गर्भावस्था के दौरान और बच्चे के जन्म के छह महीने बाद तक निशुल्क भोजन दिया जाएगा। इसके अलावा छह महीने तक एक हजार रुपए प्रतिमाह का मातृत्व लाभ देने की बात भी इसमें कही गई है। छह महीने तक के बच्चों के लिए स्तनपान को बढ़ावा दिया जाएगा।
छह माह से छह वर्ष तक आंगनवाड़ी में एक समय का निशुल्क भोजन मिलेगा। छह से चौदह वर्ष तक की आयु के बच्चों को आठवीं कक्षा तक स्कूल में छुट्टियों को छोड़ कर शेष सभी दिन दोपहर का भोजन मिलेगा। सभी ग्रामीण स्कूलों और आंगनवाड़ी में रसोई, पानी और स्वच्छता की व्यवस्था होगी, जबकि शहरी क्षेत्रों में केंद्रीकृत रसोई से भी भोजन आ सकता है।
सभी असहाय लोगों के लिए प्रतिदिन एक समय के निशुल्क भोजन का प्रावधान किया गया है। बेघर लोगों के लिए सामुदायिक रसोई से सस्ते भोजन की व्यवस्था की जाएगी। किसी आपदा से प्रभावित परिवारों को तीन महीनों (अधिकतम) तक दिन में दो बार निशुल्क भोजन दिया जाएगा। राज्य सरकारें भुखमरी से प्रभावित व्यक्तियों, परिवारों और समुदायों को चिह्नित करेंगी। उन्हें छह महीने तक प्रतिदिन दो समय का निशुल्क भोजन दिया जाएगा और अन्य सहायता भी दी जाएगी। इन विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत किसी कारण अनाज या पका हुआ भोजन न दिया जा सका तो इसके बदले में नकद सहायता दी जाएगी।
इन सब प्रावधानों को मिलाकर देखा जाए तो यह प्रस्तावित कानून केंद्र और राज्य सरकारों के सहयोग से ऐसी व्यवस्था की स्थापना करने का प्रयास करता है जिसमें कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। पर साथ में कानून के कुछ कमजोर पहलू भी हैं। यह कानून यह नहीं बताता है कि अगर विभिन्न सरकारों ने इस कानून के विभिन्न प्रावधानों के अनुसार अनाज और भोजन उपलब्ध नहीं करवाया (या उसके स्थान पर नकद राशि उपलब्ध नहीं करवाई) तो भूखे या कुपोषित लोग क्या कर सकेंगे। वे कानून में बताई गई शिकायत निवारण व्यवस्था के अंतर्गत शिकायत जरूर कर सकते हैं, इस कानून के अंतर्गत बनाए जा रहे आयोगों तक शिकायत ले जा सकते हैं। पर यह अपने में पर्याप्त नहीं है। होना तो यह चाहिए था कि किसी की शिकायत सही पाई जाए तो उसकी क्षतिपूर्ति की जाए और साथ ही जिम्मेदार अधिकारियों को दंड दिया जाए। पर न तो मुआवजे या क्षतिपूर्ति की व्यवस्था है न ही दोषी अधिकारियों के दंड की।
इस तरह देखा जाए तो कानून बस नेक इरादों की एक लंबी सूची मात्र है कि सरकारें इस जरूरतमंद को भी खाना खिलाएंगी और उस जरूरतमंद को भी खाना खिलाएंगी, मगर ऐसा न हो सकने पर एक अधिकार के रूप में भूख और कुपोषण से पीड़ित व्यक्तियों की मांग को मजबूत और सुनिश्चित करने वाला कोई प्रावधान इस विधेयक में नहीं है।
इतना ही नहीं, विधेयक के अंत में स्पष्ट कहा गया है कि बाढ़ और सूखे जैसी स्थिति में (जब भूख या कुपोषण से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है) विधेयक के प्रावधानों के अनुसार खाद्य उपलब्ध न करा पाने पर किसी क्षतिपूर्ति का दावा स्वीकार नहीं किया जाएगा। सूखे की स्थिति तो किसी क्षेत्र में वर्षों तक भी चल सकती है, उस दौरान वहां भूख की स्थिति बहुत विकट ही होगी। विडंबना यह है कि ऐसी स्थिति में सरकार को जिम्मेदारी से यह विधेयक मुक्त करता है।
भूकम्प   और समुद्री तूफान जैसी अन्य आपदाओं की स्थिति में भी सरकार को ऐसी किसी जिम्मेदारी से विशेष तौर पर मुक्त करते हुए यह विधेयक कहता है कि किसी ‘ईश्वरीय कृत्य (एक्ट आॅफ गॉड) के कारण उत्पन्न स्थिति में सरकार खाद्य सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारियों से इस रूप में मुक्त होगी कि किसी क्षतिपूर्ति का दावा स्वीकार नहीं होगा। पर सामान्य स्थिति में भी क्या क्षतिपूर्ति होगी या जिम्मेदारी पूरी न करने वाले अधिकारियों के लिए दंड की क्या व्यवस्था होगी यह इस कानून में नहीं बताया गया है।
कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस कानून की आलोचना इस आधार पर की है कि इससे सरकार पर सबसिडी का बोझ बढ़ जाएगा। पर यह आलोचना उचित नहीं है क्योंकि वास्तव में देश को भूख और कुपोषण से छुटकारा मिल जाता है तो इस महान लक्ष्य के लिए कितना भी खर्च करना वाजिब होगा। पर समस्या यह है कि वादे करने के बावजूद प्रस्तावित कानून इसमें सक्षम नहीं है।
एक बड़ा सवाल यह है कि बड़ी मात्रा में अच्छी गुणवत्ता का अनाज नियमित रूप से इस कानून के विभिन्न प्रावधानों के लिए उपलब्ध होगा कि नहीं। अभी जो इस कानून की अपेक्षया सीमित जरूरतें हैं, उनके लिए भी देश में पर्याप्त अच्छा अनाज प्राप्त नहीं हो पाता है। जिस तरह देश में कृषि की हालत बिगड़ती जा रही है, उसके कारण भी यह सवाल उठता है कि भविष्य में अनाज उपलब्धता कितनी संतोषजनक होगी।
कृषि में सरकार का निवेश कम हुआ है। उपजाऊ कृषि भूमि को तेजी से शहरीकरण, उद्योगों आदि के लिए सौंपा जा रहा है। किसानों का विस्थापन बढ़ता जा रहा है। महंगी और पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक कृषि तकनीकें फैलाने वाले कॉरपोरेट-हितों को तेजी से आगे बढ़ाया जा रहा है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी के उपजाऊपन और मित्र कीट-पतंगों और अन्य जीवों को नष्ट किया जा रहा है। भूजल के बेतहाशा दोहन से खेती-किसानी के लिए जल-संकट बढ़ता जा रहा है। देश के नीति-निर्धारक विकास को तेज शहरीकरण से जोड़ रहे हैं। परंपरागत बीज और ज्ञान का आधार भी नष्ट होता जा रहा है।
इन सब स्थितियों में सवाल उठना वाजिब है कि हमारी कृषि खाद्य-सुरक्षा का आधार बन सकेगी या नहीं। किसानों की परंपरागत आत्म-निर्भरता की व्यवस्था को नष्ट कर निरंतर महंगे बीजों और तकनीकों के माध्यम से खेती को महंगा रखा जाए, पर अनाज को निरंतर सस्ते से सस्ते में मुहैया कराए जाए, यह अंतर्विरोध कब तक चल पाएगा?
अगर कृषि खासकर छोटे किसानों की स्थिति को तरह-तरह से मजबूत कर सस्ता अनाज अधिक लोगों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए तो यह बहुत अच्छी बात होगी। पर छोटे और मध्यम किसान पहले से संकट में हैं तो इस स्थिति में सस्ते अनाज की बढ़ती बिक्री से किसानों की अनाज उपजाने की क्षमता और उत्साह पर भी प्रतिकूल असर पड़ सकता है। आज व्यापक भूख और कुपोषण की स्थिति में बहुत-से परिवारों की सहायता जरूरी है, पर आगे चल कर दीर्घकालीन उद्देश्य तो यही होना चाहिए कि सभी मेहनतकशों की क्षमताओं और आर्थिक सुरक्षा को इतना मजबूत किया जाए कि उन्हें किसी बाहरी सहायता की जरूरत ही न पडेÞ।
खाद्य सुरक्षा विधेयक अनाज उपलब्धि की एक अति केंद्रीकृत व्यवस्था पर आधारित है, जिसमें केंद्र सरकार अतिरिक्त उपज वाले क्षेत्रों से अनाज खरीद कर उसे दूर-दूर के अन्य क्षेत्रों में भेजेगी। इससे कहीं बेहतर स्थिति यह होगी कि त्रि-स्तरीय पंचायत राज के स्तर पर यानी पंचायत, ब्लाक और जिले के स्तर पर विकेंद्रित खाद्य सुरक्षा व्यवस्था स्थापित की जाए।
इस व्यवस्था में एक पंचायत, ब्लाक या जिले में अनाज और अन्य जरूरी खाद्य (जैसे दलहन, तिलहन, गुड़) आदि वहां के किसानों से खरीद कर उसी क्षेत्र की सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड-डे मील, आंगनवाड़ी आदि के लिए उपयोग किए जाएंगे। जहां उत्पादन कम हो, वहां आसपास से खरीद की जा सकती है। साथ ही उत्पादन बढ़ाने के प्रयास तेज करने चाहिए। इस तरह स्थानीय रुचि और परंपरा के अनुसार जो खाद्य प्रचलित हैं, वही खाद्य सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत लोगों को मिल पाएंगे।