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खेती की सुध कब लेगी सरकार- एम के वेणु

उत्तर और पश्चिमी भारत के किसानों को इस वर्ष के प्रारंभ में तब भारी संकट का सामना करना पड़ा था, जब बेमौसम बरसात के कारण उनकी रबी की पकी फसलें खेतों में बर्बाद हो गई थीं। उस भयावह अनुभव के बाद (जिसने दस एकड़ से कम कृषि भूमि वाले छोटे और मंझोले किसानों की आर्थिक हालात को काफी प्रभावित किया था) अब हम पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार के कुछ हिस्से, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक समेत देश के ज्यादातर हिस्सों में भारी सूखे का सामना कर रहे हैं। कुल मिलाकर देश में औसत से करीब 16 फीसदी कम वर्षा हुई है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश में दीर्घकालीन औसत से 45 फीसदी कम वर्षा हुई। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में औसत से 25 से 55 फीसदी तक कम बारिश हुई। लिहाजा विशेषज्ञों में इस बात पर आम सहमति है कि देश में वर्ष 2015-16 में संभवतः खाद्यान्नों के उत्पादन में नकारात्मक विकास देखने को मिलेगा।

भारत में जब दूसरे सूखे वर्ष की स्पष्ट झलक दिख रही है, कृषि अर्थशास्त्री डॉ अशोक गुलाटी बताते हैं कि सौ वर्षों में यह पहली बार है, जब भारत लगातार चौथे सूखे वर्ष का सामना कर रहा है। इसका कृषि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ ग्रामीण मांग पर गहरा असर पड़ेगा, जो आर्थिक विकास को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। बिहार के चुनाव में किसानों की बदहाली भी एक मुद्दा बन गई है।

नीति आयोग को कृषि मामलों में सलाह देने वाले गुलाटी बताते हैं कि राजग सरकार स्थिति की गंभीरता को पूरी तरह से पकड़ नहीं पा रही है। वह बताते हैं कि 'मैंने स्वयं कई सूखा प्रभावित इलाकों का दौरा किया है और स्थिति इतनी भयावह है कि कई राज्यों में खाद्यान्नों के उत्पादन में बीस फीसदी से ज्यादा गिरावट हो सकती है। देश के ज्यादातर हिस्से में किसानों को कृषि उत्पाद से उनकी लागत भी नहीं मिल पाएगी।' वह चेताते हैं कि अगर सरकार किसानों के लिए लगातार प्रोत्साहन की व्यवस्था नहीं करती है, तो भारत 1960 के दशक के खाद्यान्न संकट की स्थिति में पहुंच सकता है।

याद कीजिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान स्पष्ट रूप से कहा था कि किसान राजग की प्राथमिकता में होंगे और उनकी सरकार किसानों को कुल लागत पर 50 फीसदी मुनाफा सुनिश्चित करेगी। सरकार द्वारा जुटाए आंकड़ों के मुताबिक, किसानों को उनके कई कृषि उत्पादों पर लागत भी नहीं मिल पाई है। धान पर किसानों को मामूली 6.5 फीसदी ही मुनाफा मिला। और वह भी केवल पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में, जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था बेहतर है। पूर्वी राज्यों में, जहां एमएसपी बहुत कम है, किसानों को अपनी लागत से दस से पंद्रह फीसदी कम मूल्य पर धान बेचना पड़ा।

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने देश भर के किसानों से फसलों के अनुसार लागत और उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी के जरिये मिले मूल्य का आंकड़ा जुटाया। अशोक गुलाटी द्वारा की गई गणना के मुताबिक, किसानों को ज्यादातर फसलें या तो लागत से कम मूल्य पर बेचनी पड़ीं या उन्हें इकाई अंक में मुनाफा मिला। मसलन, सरकारी आंकड़ा दर्शाता है कि धान पर किसानों को औसतन छह फीसदी मुनाफा मिला और मूंग दाल, उड़द, कपास, मूंगफली और सूरजमुखी पर सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी के आधार पर किसानों को लागत से कम मूल्य मिला। यह हैरान करने वाली बात है कि मूंग दाल पर किसानों को लागत से कम मूल्य मिला, जबकि वही दाल हाल के महीनों में दोगुने से ज्यादा डेढ़ सौ रुपये प्रति किलो की दर से खुदरा बाजार में बिक रही थी। इसलिए किसान और उपभोक्ता, दोनों पीड़ित हैं। तो आखिर दालों के मूल्य में वृद्धि से किसे फायदा हुआ? ऐसा लगता है कि इसका फायदा बिचौलियों ने उठाया।

दूसरा हैरान करने वाला आंकड़ा यह है कि भारत सरकार ने इस वर्ष गेहूं पर करीब 1,400 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी दिया है, जबकि पाकिस्तान में, जहां मौसम भारत की तरह ही है, सरकार ने गेहूं पर 2,200 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी दिया है। विडंबना देखिए कि पाकिस्तान में किसानों को गेहूं पर जो एमएसपी दिया गया, वह चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए वायदे के करीब है।

राजग ने किसानों से किए अपने वायदे को पूरा नहीं किया, क्योंकि घरेलू अर्थशास्त्रियों-डॉ अरविंद सुब्रमण्यम और डॉ अरविंद पनगड़िया ने चेतावनी दी कि किसानों को उनकी फसल का ज्यादा मूल्य देने से खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। लेकिन यह सलाह पिछले वर्ष नवंबर में दी गई थी, जब वित्त मंत्रालय ने अर्थव्यवस्था की मध्यकालीन समीक्षा रिपोर्ट पेश की थी। तब से पिछले नौ महीनों में चीनी, कॉफी, गेहूं, सोयाबीन जैसी उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में कमी आई है, स्थितियों में गुणात्मक बदलाव आया है। अन्य देशों ने महसूस किया कि अगर कृषि उत्पादन को बढ़ाना है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करनी है, तो किसानों को उसका बकाया देय भुगतान करने की जरूरत है। यहां तक कि चीन ने भी अपने किसानों को गेहूं पर 2,500 रुपये प्रति क्विंटल मूल्य का भुगतान किया, जो भारत की तुलना में बहुत ज्यादा है!

भाजपा के घोषणा पत्र में किए वायदों को पूरा करने में स्पष्ट रूप से मोदी सरकार बुरी तरह से विफल रही है। निश्चित रूप से देश के कई हिस्सों में सूखा और किसानों की निर्बाध आत्महत्या राजग के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगी। कृषि क्षेत्र का व्यापक संकट बड़े पैमाने पर दिख रहा है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-13 से 2017-18) में चार फीसदी कृषि विकास का अनुमान लगाया गया था। लेकिन लगातार सूखे की वजह से अब तक करीब 1.7 फीसदी वार्षिक कृषि विकास दर रही है। खाद्य उत्पादन में नकारात्मक वृद्धि इस साल आगे और बढ़ सकती है। जाहिर है, नरेंद्र मोदी और उनके आर्थिक प्रबंधकों को कृषि एवं कृषि क्षेत्र के संकटों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।