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खेती को कमजोर करने की साजिश- अनिल जोशी

खेती को लेकर अब छोटे और मध्यम किसानों में भी एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे किसानों में अपने खेत बेचकर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। हाल के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि 98.2 प्रतिशत किसानों की आनेवाली पीढ़ियों में किसानी के प्रति कोई रुचि नहीं है। निश्चय ही यह चिंता का विषय होना चाहिए। किसानों के बच्चों की इस बेरुखी की साफ वजह है कि साल भर की मेहनत के बाद भी किसानों को कुछ पल्ले नहीं पड़ता। जबकि अन्य व्यवसायों में उन्हें ज्यादा लाभ दिखाई देता है।

खेती के प्रति बढ़ते मोहभंग की कुछ साफ वजहें हैं। सरकारी नीतियां कृषि और किसान विरोधी हैं। खाद, बीज, डीजल और महंगे मजदूरों के चलते खेती करना आज अलाभप्रद व्यवसाय बन गया है। खेती में लागत बढ़ गई है, जबकि कृषि उत्पादों की खरीद में सारा लाभ बिचौलिए हड़प लेते हैं।

इसके अलावा इस कृषि प्रधान देश में कृषि और किसानों का सम्मान लगातार घटता गया है। किसानों को गंवार समझा जाता है, और उनकी आर्थिक हालत का अंदाजा देशभर में लगातार किसानों की हो रही आत्महत्या से पता चलता है। कभी इस देश में कृषि कार्य को उत्तम माना जाता था, पर अब इसे निम्नतर दरजा दे दिया गया है। लोग अपनी बेटियां किसानों के घर बहू के रूप में नहीं भेजते। इस तरह की मनोवृत्ति समाज में किसानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति को दर्शाती है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जहां भी किसान परिवार पूरी तरह से खेती पर निर्भर हैं, वहां ऐसा ही सामाजिक परिदृश्य देखने की मिलता है। कई जगहों पर तो किसानों को अपने बच्चों के विवाह के लिए दूसरी नौकरियों का दिखावा भी करना पड़ता है।

विकास की अंधी दौड़ ने सबसे ज्यादा नुकसान खेती का ही किया है। विकास का यह मॉडल पश्चिमी देशों का है, जहां शीतोष्ण जलवायु के कारण साल भर खेती संभव नहीं है। परंतु हमारे जैसे देश में, जहां मानसून एवं उष्ण जलवायु है, साल भर खेती संभव है। यहां कृषि आधारित उद्योग ही सही मॉडल हो सकता है। महात्मा गांधी ने कृषि आधारित लघु एवं कुटीर उद्योगों की वकालत की थी, लेकिन आजादी के बाद हमने कृषि को पीछे धकेल दिया और उद्योगों को ज्यादा जरूरी समझा।

नतीजतन मानव संसाधन से समृद्ध इस देश में बेरोजगारी भयावह समस्या के रूप में खड़ी हो गई। कितना अजीब लगता है कि कृषि प्रधान इस देश को आज कृषि के लिए नहीं, बल्कि आईटी पेशेवरों के लिए ज्यादा जाना जाता है। यहां आईटी एवं रियल स्टेट बिजनेस जैसे उद्योग जीडीपी का बड़ा हिस्सा बन गए और विकास खेत की पगडंडियों को छोड़कर उद्योगों के पीछे भाग रहा है।

उद्योग आधारित विकास मॉडल ने किसानों से जमीन छीनने की शुरुआत की। पिछले दस वर्षों में कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक किसानों की जमीन अधिगृहीत करने का सिलसिला जारी रहा। कभी हाई-वे के लिए, तो कभी हवाई अड्डे और टाउनशिप के विकास के लिए, तो कभी सेज (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) के लिए अपर्याप्त मुआवजा देकर जमीन ली गई। कई जगहों पर तो जमीनें बिल्डरों को बाद में बेच दी गईं, जिसके खिलाफ आंदोलन भी हुए। किसानों की नासमझी के कारण मुआवजे के पैसे जल्दी खत्म हो गए और ये किसान मजदूर बन गए। ऐसे लाखों उदाहरण हैं, जहां किसान जमीन खोकर भिखारियों की हालत में पहुंच गए।

अगर किसानों और कृषि के प्रति यही बेरुखी रही, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम खाद्य असुरक्षा की तरफ तेजी से बढ़ जाएंगे। खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत हमारे लिए खतरे की घंटी है। बेशक सरकार ने दूसरी हरित क्रांति का आह्वान किया है, लेकिन जब तक खेती को लाभप्रद नहीं बनाया जाएगा और उपजाऊ जमीन को अधिग्रहण के शिकंजे से मुक्त नहीं रखा जाएगा, तब तक ऐसा करना संभव नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि उद्योगों को ही नहीं, कृषि को भी विकास की रूपरेखा में शामिल किया जाए। इसके अलावा कृषि उत्पादों का किसानों को सही मूल्य मिले। जरूरत जमीन अधिग्रहण को किसान हितैषी बनाने की भी है। यह केवल किसानों के ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के हित में भी है।