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खेती फायदेमंद तभी किसान खुशहाल-- मोंटेक सिंह अहलूवालिया

खेती-किसानी की बदहाली की खबरें इधर काफी सुर्खियों में रही हैं। अटकलें लगाई जा रही थीं कि अंतरिम बजट में आय हस्तांतरण से जुड़ी कुछ योजनाएं घोषित की जाएंगी। ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत सरकार ने किसानों को सालाना आय देने की घोषणा की है। मगर कृषि संकट से पार पाने के लिए हमारे राजनीतिक दलों को छह बातों पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।

 

पहली, गरीबी दूर करना अलग बात है, कृषि संकट का समाधान अलग। देश के लगभग 70 फीसदी किसान एक हेक्टेयर से कम भूमि पर खेती करते हैं और इससे उन्हें बमुश्किल 9,000 रुपये की मासिक आमदनी होती है। किसानों का यह समूह निश्चित तौर पर गरीब है और किसी भी आय हस्तांतरण योजना से लाभान्वित होने का मुनासिब हकदार भी। लेकिन कुल पैदावार का 75 फीसदी हिस्सा शेष 30 फीसदी किसान उगाते हैं और यही वर्ग बाजार में भी ज्यादा अनाज बेचता है। ये किसान गरीब नहीं हैं, लेकिन मुश्किल में हैं, क्योंकि वे महसूस करते हैं कि खेती उतनी लाभदायक नहीं, जितनी उसे होनी चाहिए। लिहाजा हमें खेती को फायदेमंद बनाना होगा, ताकि किसान इसमें अधिक से अधिक निवेश करें और इससे अच्छी-खासी कमाई हो सके। समृद्ध खेती से खेतिहर मजदूरों की मजदूरी भी बढ़ेगी और गैर-कृषि उत्पादों की मांग में भी वृद्धि होगी। चूंकि ऐसे कई उत्पाद ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा होंगे, इसीलिए इससे ग्रामीण रोजगार में भी वृद्धि होगी।

 

दूसरी बात। कृषि उत्पादकता में बढ़ोतरी बहुत जरूरी है। दरअसल, पैदावार बढ़ाने के लिए पानी की उपलब्धता सबसे ज्यादा जरूरी है, खासतौर से उन 60 फीसदी खेतों में, जो बारिश पर निर्भर हैं। राज्य सरकारें बड़ी सिंचाई योजनाओं पर अधिक जोर देती हैं, जिनमें भारी संसाधन खर्च होता है, मगर उनका फायदा जमीन के छोटे हिस्से को ही पहुंचता है। बेहतर होगा कि लघु सिंचाई और जल संरक्षण परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाए। मनरेगा को निवेश का साधन बनाकर इस तरह की परियोजनाएं शुरू की जा सकती हैं। हमें कृषि उत्पादन को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए भी कदम उठाने होंगे। इसे लेकर जिलेवार दीर्घकालिक योजनाएं बनानी होंगी, और उन जिलों पर सबसे पहले ध्यान देना होगा, जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से कमजोर माने जाते हैं। इसके लिए हर जिले में मनरेगा को जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कार्यक्रम के साथ जोड़ा जा सकता है, जिसका अधिकांश खर्च केंद्र को उठाना होगा।

 

तीसरी, पैदावार बढ़ाने के लिए अच्छे बीज काफी महत्व रखते हैं, लेकिन न तो भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (आईसीएआर) और न ही राज्य के कृषि विश्वविद्यालयों ने इस दिशा में अब तक कोई बड़ा काम किया है। केंद्र सरकार आईसीएआर और इससे संबद्ध 120 संस्थानों का पुनर्गठन कर सकती है, ताकि शोध-कार्य अधिक से अधिक नतीजे देने वाले होें। किसानों की यह आम शिकायत है कि खास लॉबी के निहित स्वार्थों के कारण उन्हें आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जीएम तकनीक से दूर रखा जाता है। आलम यह है कि अपने देश में तैयार बैंगन के इस्तेमाल की इजाजत यहां नहीं है, मगर यह बांग्लादेश में खूब उगाया जा रहा है। जाहिर है, नई जीएम तकनीक के वैज्ञानिक परीक्षण की अनुमति देने के लिए स्पष्ट नीति बननी चाहिए। इसी तरह, हर हाथ में स्मार्टफोन होने का फायदा उठाते हुए सरकार को ऐसे एप्प बनाने चाहिए, जो खेती-बाड़ी में किसानों की मदद करें। इसके लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

 

चौथी महत्वपूर्ण चीज है, बढ़ी हुई उपज की मार्केटिंग। असल में, कोई चीज तभी फायदेमंद होती है, जब बाजार में वह अच्छी कीमत पर बिके। मगर हमारे देश में इससे जुड़ी अधिकांश चर्चा इसी बात पर सिमट आती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कितना तय होना चाहिए? जबकि यह बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण साबित नहीं होता। दरअसल, कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) अपनी रिपोर्ट में जो कीमत बताता है, वह कीमत औसत होती है और उसे लेकर तमाम भिन्नताएं भी सामने आती हैं। इसीलिए आधे से अधिक किसानों को घोषित की गई कीमत से ज्यादा लाभ नहीं मिलता। फिर, सीएसीपी को वैश्विक रुझानों का भी ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि वहां की परिस्थितियों को दरकिनार करके कीमतें कतई तय नहीं की जा सकतीं। इसके अलावा भी कई दूसरे कदम उठाए जाने चाहिए। मसलन, राज्य अपने मौजूदा कृषि उत्पादन बाजार समिति अधिनियम को बदलकर ऐसा आधुनिक कानून बनाएं, जो निजी बाजारों को प्रोत्साहित कर सके। इसी तरह, केंद्र को भी आवश्यक वस्तु अधिनियम खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि यह स्टॉक यानी भंडार की सीमा तय करता है और निजी निवेश की अनुमति नहीं देता। इसके कारण बडे़ निजी व्यापारी इसमें रुचि नहीं दिखाते।

 

पांचवीं बात विदेश व्यापार नीति से जुड़ी है। आयात-निर्यात नीति किसानों के हित में होनी चाहिए, ताकि विदेशों में ऊंची कीमतों का उन्हें पूरा लाभ मिल सके। विश्व बाजार में आई अचानक गिरावट से भी किसानों को बचाया जाना चाहिए। इसके लिए ‘शुल्क' का उचित निर्धारण करना होगा। हमारे यहां निर्यात को भी नियंत्रित करने की जरूरत महसूस की जाती रही है। इसे भी शुल्क के सहारे किया जाना चाहिए, न कि निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर। किसानों की शिकायत है कि सरकार वैश्विक बाजार में कीमतों का अनुमान लगा पाने में विफल रहती है और उसके उपाय तलाशने में भी सक्रियता नहीं दिखाती। वित्त मंत्री की अध्यक्षता में एक कैबिनेट समिति बनाकर और उसमें कृषि तथा नागरिक आपूर्ति मंत्री को शामिल करके इस समस्या का तेजी से हल निकाला जा सकता है।

 

छठी है- आय हस्तांतरण। शायद ही कोई इंसान ऐसी किसी आय हस्तांतरण योजना पर आपत्ति करेगा, जो प्रभावी रूप में गरीबों तक पहुंचती हो और राजस्व दूरदर्शिता के साथ कोई समझौता न करती हो। फिर भी, यह उन उपायों का विकल्प नहीं है, जो खेती को लाभदायक बनाने के लिए जरूरी हैं। तेलंगाना की रायतु बंधु योजना और ओडिशा की आजीविका व आय संवद्र्धन के लिए कृषक सहायता योजना आय हस्तांतरण योजनाएं हैं, मगर ये किसी तरह से खेती में निवेश से नहीं जुड़ी हैं। हमें समझना चाहिए कि आय हस्तांतरण योजनाएं कृषि संकट का हल नहीं निकालने वालीं। इसके लिए हमें खेती को ही अधिक फायदेमंद बनाना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)