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गरीब की थाली से गायब होती दाल-- अश्विनी महाजन

अभी महंगे प्याज से त्रस्त जनता को आंशिक राहत मिलने लगी थी कि पिछले लगभग दो महीने से दाल, खासकर अरहर और मूंग की दालों के भाव आसमान छू रहे हैं। बाजार में अरहर की दाल 187-210 रुपये और उड़द की दाल 195 रुपये प्रति किलो बिक रही है। दालों के भाव पिछले कुछ वर्षों से ऊंचे बने हुए हैं और यह आम जन की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। वित्त मंत्री भी मानते हैं कि चाहे दूसरी चीजों में महंगाई कुछ थमी हो, लेकिन प्याज और दालों में महंगाई तेजी से बढ़ी है। आनन-फानन में सरकार ने दालों के आयात का तो हुक्म जारी किया ही है, 500 करोड़ रुपये का एक फंड भी बनाया है, जिससे आयातित दालों की ढुलाई और प्रसंस्करण की लागत कम की जा सके।

आश्चर्य है कि कृषि प्रधान देश होते हुए भी, दुनिया में दालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता राष्ट्र भारत दूसरे देशों से इसका आयात कर रहा है। भारतीय थाली में दालों का खास महत्व है। अधिकांशतः शाकाहारी भोजन पर निर्भर आम जनता को ये दालें जरूरी प्रोटीन उपलब्ध कराती हैं। दालों के महंगे होने से घर का बजट ही नहीं बिगड़ता, बल्कि गरीब की थाली से पोषण भी गायब हो जाता है।

गौरतलब है कि एक ओर लोगों की आमदनी बढ़ी, और दालों को खरीदने की क्षमता भी, दूसरी तरफ दालों का उत्पादन बढ़ने की गति अपर्याप्त रही। वर्ष 1960-61 में देश में दालों का उत्पादन 130 लाख टन था, जो 2013-14 तक आते-आते मात्र 190 लाख टन तक ही बढ़ पाया, यानी 50 प्रतिशत से भी कम वृद्धि। इसका कारण था दालों के अंतर्गत कृषि क्षेत्र का स्थिर रहना और प्रति हेक्टेयर उत्पादन में बहुत कम वृद्धि होना। दालों के उत्पादन में वृद्धि कम होने के कारण दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1960-61 में 69 ग्राम से कम होकर 2013-14 में मात्र 42 ग्राम रह गई। हालांकि अनाज की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी 400 ग्राम से बढ़कर लगभग 440 ग्राम तक ही पहुंच पाई है, लेकिन दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में भारी कमी वास्तव में चिंता का विषय है।

पिछले कुछ समय से किसी वस्तु की कमी और इस कारण महंगाई बढ़ने पर सरकार के पास एक आसान तरीका है कि उसका आयात बढ़ा दिया जाए और जैसे-तैसे कीमत पर काबू किया जाए। देश में दालों और खाद्य तेलों का उत्पादन कम होने और उनकी महंगाई से निजात पाने के लिए भी यही तरीके अपनाए गए। उसका असर यह हुआ कि आज हमारा देश आयातित दालों और खाद्य तेलों पर निर्भर होने लगा है। यह सही है कि चावल, चाय, काफी, तंबाकू, मसाले आदि कृषि वस्तुओं का निर्यात भी भारत से होता है, लेकिन साथ ही साथ दालों और खाद्य तेलों के लिए विदेशों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है।

साफ तौर पर कहा जा सकता है कि आम आदमी को प्रोटीनयुक्त पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने में दालों की उचित कीमत पर उपलब्धता बहुत जरूरी है। दाल उत्पादक क्षेत्रों को चिह्नित कर उन्हें अच्छे बीज और सिंचाई की सुविधा देना भी एक अच्छा कदम होगा। सरकारी उदासीनता के कारण दालों के उत्पादन को प्रोत्साहन न मिलने के कारण दालों की कमी के फलस्वरूप कई बीजों की कंपनियां दालों के जीएम बीजों को आगे बढ़ाने का भी प्रयास कर रही हैं। हमें ऐसे प्रयासों से सावधान रहना होगा। देश में जैविक दालों का उत्पादन बढ़ाकर हम उसके निर्यात में भी आगे बढ़ सकते हैं।