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गरीब पर शक- विष्णु नागर

दिल्ली के जोहरीपुर इलाके के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के सत्रह वर्षीय लड़के अनुपम गुप्ता ने कुछ दिन पहले साइकिल चोरी का आरोप लगाए जाने और पुलिस द्वारा इस वजह से उसे परेशान किए जाने पर आत्महत्या कर ली। यों, आंकड़ों के मुताबिक 2012 में एक लाख पैंतीस हजार से कुछ अधिक आत्महत्याएं हुर्इं। यह वैसी ही घटनाओं में एक है। अनुपम के माता-पिता अपनी तीन बेटियों और अपने इस सबसे बड़ी संतान का बर्तन की एक छोटी-मोटी दुकान चला कर गुजारा करते थे। अनुपम पढ़ने में अच्छा था। दसवीं में पचासी फीसद अंक लाया था और उसका सपना डॉक्टर बनने का था, ताकि वह परिवार को गरीबी के कुचक्र से निकाल सके, मां-बाप के बोझ को हलका कर सके।

उसके मां-बाप ने बताया कि अनुपम के एक दोस्त की नई साइकिल देख कर उसका मन ललचाया। दोस्त ने उसे साइकिल चलाने के लिए दे दी। जब अनुपम साइकिल चला कर लौटा तो उसका दोस्त वहां से जा चुका था, सो वहीं एक दुकानदार को साइकिल सौंप कर अनुपम चला गया। बाद में इस साइकिल की चोरी की रिपोर्ट पुलिस में हुई और शक अनुपम पर गया। साइकिल ढूंढ़ने पर किसी और लड़के के पास मिली, लेकिन अनुपम को पकड़ लिया गया। पुलिस ने उसे पांच घंटे तक थाने में बैठाए रखा। रात दो बजे जब वह घर लौटा, तब पहले चुप रहा, फिर फूट-फूट कर रो पड़ा। उसने बताया कि पुलिस इस मामले को दबाने के लिए उससे दस हजार रुपए मांग रही है और कह रही है कि नहीं दिए तो मैं फिर धर लिया जाऊंगा। अगले दिन अनुपम मां-बाप को सामान्य नजर आया। जबकि रात में वह फैसला ले चुका था कि आगे क्या करना है। घर में अकेला होते ही वह जिंदगी से चला गया। इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ने के लिए पुलिस जो झूठ-सच बोलती है, वह उसने बोला। खबरों के मुताबिक दो सिपाहियों को निलंबित किया गया।

निश्चित रूप से परिवार की गरीबी वह वजह होगी कि अनुपम पकड़ा गया, क्योंकि आम धारणा है कि गरीब ही चोर हो सकता है। उसे आत्महत्या नहीं करना चाहिए था। मगर शायद उसे लगा होगा कि मेरे कारण गरीब मां-बाप को पुलिस को दस हजार रुपए देने पड़ेंगे, ताकि पुलिस आगे मुझे न फंसाए। चोरी करने की झूठी बदनामी को झेल पाना उसके लिए मुश्किल रहा होगा। उसे लगा होगा कि मैं आत्महत्या कर लूंगा तो मां-बाप इस कलंक से बच जाएंगे कि उनका बेटा चोर था और पुलिस भी आइंदा उन्हें परेशान नहीं करेगी।

संयोग कि हरिशंकर परसाई जब मैट्रिक में पढ़ते थे तो इस तरह का आरोप उन पर भी लगा था, जिसकी जड़ में उनके परिवार की गरीबी थी। लंबी बीमारी के बाद उनकी मां मर चुकी थीं। इसमें उलझे रहने के कारण पिता का कोयले का धंधा बिल्कुल बैठ चुका था। पत्नी की मृत्यु से उपजे अकेलेपन ने उन्हें भी तोड़ कर रख दिया था। पिता बीमार रहने लगे थे। घर की चीजें बेचने की नौबत आ चुकी थी। किसी तरह रोटी मिल रही थी। तभी अकारण परसाईजी पर फुटबॉल चोरी का आरोप लगा। उन्होंने लाख सफाई दी, मगर गरीब की बात पर भरोसा कौन करता है और अमीर की बात झूठी हो तो भी सब उसी पर भरोसा करते हैं।

अध्यापक ने उन पर फुटबॉल गायब होने के आरोप मे एक रुपए का जुर्माना लगा दिया। तब एक रुपया देना भी बहुत भारी हुआ करता था, खासकर गरीब परिवार के बच्चे के लिए। उन्होंने अध्यापक से एक-दो बार विनती की कि जुर्माना माफ कर दीजिए, मगर वे नहीं माने। पिता से कहा कि ऐसी-ऐसी बात है, जुर्माना दे दीजिए तो पिता ने कहा कि अगर बात झूठी है तो जाकर जुर्माना माफ करवाओ। परीक्षा एकदम पास थी और अध्यापक ने जुर्माना भरे बिना प्रवेश पत्र देने से मना कर दिया था। उन्होंने पिता को धमकी दी कि अगर आपने एक रुपया नहीं दिया तो कल सुबह मैं घर से भाग जाऊंगा और फिर कभी नहीं लौटूंगा। मुझसे जो उम्मीदें लगा रखी हैं, उन्हें भूल जाइएगा। तब जाकर पिता ने उन्हें एक रुपया दिया और वे परीक्षा में बैठे।

परसाई जी को भी इस आरोप के बाद आत्महत्या का खयाल आया था कि मैं गरीब हूं, इसीलिए चोर माना जाता हूं, जबकि मैं पढ़ने में पूरे स्कूल का सबसे होशियार छात्र माना जाता हूं। उन्होंने बताया था कि आगे उनकी जो दृष्टि बनी, वह शायद इस घटना से ही। पता नहीं अनुपम के साथ उसके मां-बाप, बहनों ने ही नहीं, हमने भी क्या खो दिया हो! मान लें कि परसाई भी तब कुछ ऐसा ही कर लेते तो क्या हमें कभी पता चल पाता कि उस छात्र के रूप में दुनिया ने किसे खो दिया है? कभी नहीं।