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गरीबों के पैसों से आंदोलन!- तवलीन सिंह

प्रधानमंत्री ने अपने खास उदारवादी अंदाज में गैरसरकारी संस्थाओं (एनजीओ) को फटकार क्या लगाई कि हाय-दुहाई मच गई। वही संस्थाएं जो बेझिझक आरोप लगाती हैं राजनीतिकों पर, पत्रकारों पर, उद्योगपतियों पर और न जाने किस किस पर। जब उनकी बारी आई, तो हल्ला मचाना शुरू कर दिया। क्या सिर्फ एनजीओ ही हैं इस विशाल देश में, जो दूध के धुले हैं? क्या उनसे इतना भी नहीं पूछा जा सकता कि उनके पास इतने पैसे आते कहां से हैं, जिससे वे वर्षों तक आंदोलन चला सकते हैं?

प्रधानमंत्री ने किसी का नाम लेकर इलजाम नहीं लगाया। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि कुडनकुलम के परमाणु बिजली घर के विरोध में जो आंदोलन चल रहा है, उसको चलाने के लिए विदेशों से पैसा आया है। हो गई, जनाब चोर की दाढ़ी में तिनका वाली बात। सबने कहना शुरू कर दिया, हमने नहीं लिया।
इनमें से एक व्यक्ति के साथ मेरी बातचीत हुई पिछले सप्ताह एक भेंट के दौरान। जब इस महाशय से एंकर ने साफ शब्दों में पूछा, आप सिर्फ यह बताएं कि आपके पास पैसे आते कहां से हैं, तो वह बौखला गए।

कहने लगे,हमें किसी विदेशी एनजीओ से पैसा नहीं मिलता, हमें पैसा मिलता है गरीब मछुआरों से, दलित महिलाओं से, गरीब किसानों से। उनकी यह बात सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। गरीबों से इतना पैसा कि एक पूरे साल आंदोलन चला सकें कुडनकुलम में? जिन लोगों के पास दो वक्त की रोटी मुश्किल से होती है, उनके पास कहां से आया इतना धन?

मजे की बात तो यह है कि मैंने जब भी किसी एनजीओ से मालूम करने की कोशिश की है कि उनका पैसा आता कहां से है, तो हमेशा जवाब यही मिलता है कि उनका पैसा गरीबों से आता है। मेधा पाटकर की संस्था से मुझे बिलकुल इन्हीं शब्दों में जवाब मिला, जब मैंने कुछ महीने पहले मालूम करने की कोशिश की कि मेधा जी की हवाई यात्राओं का खर्च कौन उठाता है। वह आज अगर मुंबई में हल्ला मचाती दिखती हैं, तो कल दिखेंगी भुवनेश्वर या तिरुवनंतपुरम में और अगले दिन कहीं और। आजकल सस्ती से सस्ती फ्लाइट का किराया हजारों में होता है। इतना पैसा क्या गरीबों से आता है?


मुझे उनके जैसे लोगों से शिकायत है कि उनके आंदोलन हमेशा होते हैं उन योजनाओं के विरोध में, जिनसे इस देश की गरीब जनता को लाभ हो सकता है। बिजली के न होने से सबसे ज्यादा परेशान होते हैं इस देश के वे नागरिक, जो सबसे गरीब तबके में गिने जाते हैं। इसलिए कि इनके पास इंवर्टर खरीदने की ताकत नहीं होती। मेरी दूसरी शिकायत इनसे यह है कि ये उन योजनाओं में अड़ंगे लगाते हैं, जिन पर आधे से ज्यादा काम हो चुका होता है।

मसलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन के द्वारा एक दशक तक उस योजना को रोके रखा गया, जिस पर जनता के करोड़ों रुपये लग चुके थे। बिलकुल ऐसा ही कुछ हो रहा है कुडनकुलम में। परमाणु बिजली घर के अगर इतने खिलाफ थे वहां के लोग, तो क्यों नहीं इस योजना में निवेश होने से पहले आवाज उठाई? क्यों अब हल्ला हो रहा है, जब बिजली घर पूरी तरह से तैयार है बिजली पैदा करने के लिए?

आंदोलनकारियों से पूछा गया है यह सवाल बहुत बार और उनका जवाब अकसर होता है कि जापान के फुकुशिमा दाइची वाले हादसे के बाद परमाणु बिजली घरों के खतरों की ओर ध्यान गया है। लेकिन यह नहीं समझ पाए हैं ये लोग कि अगर सुनामी न आती, तो शायद कुछ नहीं होता फुकुशिमा दाइची को, बावजूद इसके कि इसे दशकों पुरानी तकनीकों से बनाया गया था।

इतना खतरा होता अगर परमाणु बिजली से, तो फ्रांस जैसे मुल्क क्यों 70 फीसदी बिजली पैदा करता है परमाणु बिजली घरों से? कितने हादसों की खबर है उस देश से?

रही बात विदेशों से पैसा आने की, तो यकीन मानिए कि प्रधानमंत्री ने जो कहा, वह सौ प्रतिशत सच है। हमारे देश की जो एनजीओ संस्थाएं हैं, उनके पास हर साल करोड़ों रुपये आते हैं विदेशी हमदर्दों से। कभी पर्यावरण के नाम पर, कभी गरीबी हटाने के नाम पर, तो कभी धर्म-मजहब के नाम पर। इस धन को अकसर इस्तेमाल किया जाता है बड़ी-बड़ी योजनाओं को रोकने के लिए, जिनसे देश का विकास हो सके, जिनसे देश की गरीबी कम हो सके।

ऐसा करने में एनजीओ संस्थाएं सफल होती हैं इस आधार पर, क्योंकि वे बनी हैं जनता की सेवा करने के लिए और वे हर तरह से बेदाग हैं। शायद यह पहला मौका है, जब इस देश के किसी बड़े राजनेता ने उन्हें आड़े हाथों लिया है। शाबाश प्रधानमंत्री जी।