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गहरी समस्याओं के सतही समाधान - संजय कपूर

मैं पिछले 28 सालों से दिल्ली में रह रहा हूं और प्रदूषण का स्तर यहां हमेशा बेहद ज्यादा रहा है। 80 के दशक के अंत में जब मैं अपनी टू-व्हीलर से इस शहर के चक्कर लगाता था, तब भी यहां प्रदूषण का यह आलम था कि दिन खत्म होते-होते मेरे चेहरे पर कालिख की हल्की-सी परत जम जाया करती थी। तब भी हम यही पाते थे कि सरकारें इस समस्या से निपटने के लिए या तो कुछ करना नहीं चाहतीं या उनमें क्षमता ही नहीं है। तब भी सरकारें इस समस्या का सामना करने से बचने की कोशिश करती थीं, क्योंकि उन्हें लगता था कि देश में विकास करने की यह अनिवार्य कीमत है। आज दिल्ली में शहरी समस्याओं के प्रति अपेक्षतया अधिक सचेत रहने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार है, लेकिन उसने भी इस समस्या का समाधान करने की कोई दूरगामी समझ तो नहीं ही दिखाई है।

बहरहाल, कभी न कभी तो इन हालात का मुकाबला करने के लिए हरकत में आना जरूरी था। इसी को देखते हुए हाल में दिल्ली सरकार और सर्वोच्च अदालत द्वारा दो निर्णय लिए गए। दिल्ली सरकार के फैसले को सम-विषम फॉर्मूला कहकर पुकारा गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आगामी 1 जनवरी 2016 से दिल्ली में इस सम-विषम फॉर्मूले को लागू करने की घोषणा की है, जिसका मूल मकसद है दिल्ली की सड़कों पर दौड़ रहे वाहनों की संख्या में कटौती। अगर इस फॉर्मूले को ठीक से लागू किया जा सका तो आज दिल्ली में रोज सड़कों पर दौड़ रहे 88 लाख वाहनों की संख्या को घटाकर आधा किया जा सकेगा। जब इस फैसले की जाहिर अव्यावहारिकता के मद्देनजर उसका विरोध किया गया तो दिल्ली सरकार ने नियम में ढील देते हुए कहा कि महिलाओं को इस नियम से मुक्त रखा जाएगा। साथ ही आपातकालीन स्थितियों में भी नियम में छूट दी जाएगी।

बहरहाल, सम-विषम फॉर्मूले को लागू किए जाने में अभी दस दिन ही शेष हैं, इसके बावजूद बड़ी संख्या में दिल्लीवासियों को इस सवाल का जवाब नहीं पता है कि जिस दिन उनके वाहन का नंबर नहीं होगा, उस दिन वे काम पर कैसे जाएंगे, अपने बच्चों को स्कूल कैसे छोड़ेंगे इत्यादि। नौकरीपेशा लोगों के साथ ही फ्रीलांसरों को भी इसी समस्या का सामना करना पड़ रहा है। मेरे अपने योग शिक्षक ने मुझसे कह दिया है कि जिस दिन उनकी गाड़ी का नंबर नहीं होगा, वे उस दिन क्लास नहीं ले पाएंगे! यह तो एक बानगी भर है। दिल्ली जैसे भीमकाय शहर में, जहां सार्वजनिक परिवहन के इंतजामात लचर हैं, लोगों के सामने सम-विषम फॉर्मूले के कारण सैकड़ों ऐसी व्यावहारिक मुश्किलें खड़ी होने वाली हैं। मेट्रो ट्रेन शुरू होने के बावजूद इन समस्याओं में कोई राहत नहीं मिलने वाली।

दुनिया के दूसरे देशों में सम-विषम फॉर्मूले को आजमाया जा चुका है और यह पाया गया है कि लोग इसका तोड़ निकाल लेते हैं। जो सक्षम हैं, वे एकाधिक गाड़ियां खरीद लेते हैं और जिनके पास एक ही गाड़ी है, उनकी गाड़ी के फेरे बढ़ जाते हैं। नतीजा, वही ढाक के तीन पात रहता है। अभी तो यही तय नहीं है कि सम-विषम फॉर्मूले को लागू कौन करेगा : यातायात पुलिस का नाकाफी अमला या फिर 'आप" के कार्यकर्तागण?

इधर सर्वोच्च अदालत ने भी प्रदूषण की समस्या के निदान में अपनी ओर से दखल देते हुए वर्ष 2005 से पूर्व निर्मित ट्रकों के दिल्ली में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में 31 मार्च 2016 तक 2000-सीसी से ज्यादा की डीजल गाड़ियों के पंजीकरण पर भी रोक लगा दी गई। कोर्ट ने यह भी कहा कि जो लोग डीजल वाहन खरीदते हैं, उन्हें पर्यावरण क्षतिपूर्ति शुल्क देना चाहिए। इससे पहले भी सर्वोच्च अदालत ने ही दिल्ली में पर्यावरण सुधारने के लिए बसों को सीएनजी से चलाने और प्रदूषक उद्योगों को राजधानी से हटाने का आदेश देने जैसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए थे। लेकिन उसके भी तोड़ के रूप में डीजल कारों का चलन बढ़ गया। आज दिल्ली में 23 फीसदी कारें डीजल से चलती हैं, जबकि 1990 के दशक में यह संख्या महज चार प्रतिशत थी। यानी डीजल कारों की संख्या बढ़ने से सार्वजनिक वाहनों को सीएनजी से चलाने से हुआ लाभ खत्म हो गया। इसी कारण अदालत ने कहा है कि राष्ट्रीय राजधानी में अगले 31 मार्च के बाद सिर्फ सीएनजी टैक्सियां चलाने की इजाजत होगी।

किंतु ये तमाम निर्णय आपातकालीन हैं। जरूरत एक प्रदूषणरोधी संस्कृति बनाने की है, जिस पर अभी तो ध्यान नहीं दिया जा रहा। एक छोटा-सा उदाहरण लें तो सरकार चाहती है कि लोग गाड़ियों का इस्तेमाल कम करें, लेकिन उसने पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ और साइकिल सवारों के लिए साइकिल लेन का इंतजाम नहीं किया है। जब तक लोगों को प्रदूषण नियंत्रण के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही सरकार खुद इसमें उनके साथ मिलकर सहभागिता नहीं करेगी, इस तरह के आपातकालीन तरीकों से भी ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया जा सकेगा।

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।