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गांधी का स्वराज और युवाओं की उम्मीदें- रामचंद्र राही

आज जब हम स्वतंत्रता दिवस का जश्न मना रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि एक लोकतांत्रिक देश के सजग नागरिक होने के नाते हम यह पड़ताल करें कि देश की आजादी के महानायकों ने हमारे लिए जो स्वप्न देखे थे, वे कितने पूरे हुए। और यदि पूरे नहीं हुए हैं, तो आखिर हमसे गलतियां कहां हुई हैं? ऐसे में हमें सहज ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का ध्यान आता है, जिन्होंने आजादी से पहले ही इस पर सम्यक दृष्टि से विचार किया था कि आजाद भारत की आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था कैसी हो।

वह मानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी तो हमारे देश के लोग हासिल कर ही लेंगे, लेकिन उसके बाद हमारे स्वराज का स्वरूप कैसा होगा, क्या हम अंग्रेजों के ढांचे को ढोएंगे या अपना कोई नया ढांचा विकसित करेंगे। अगर वही व्यवस्था लागू रही, तो देश फिर से गुलाम हो जाएगा। उनका मानना था कि आजादी के बाद जो नए शासक सत्ता में आएंगे, वे भी अंग्रेजों से कम क्रूर नहीं होंगे, बल्कि देश के रग-रेशे से वाकिफ होने के कारण वे ज्यादा ही क्रूरता से पेश आएंगे। इसलिए उन्होंने देश की सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों का विश्लेषण करने के बाद हिंद स्वराज की अवधारणा प्रस्तुत की थी।

औद्योगिक क्रांति और साम्राज्यों का विस्तार साथ-साथ हुआ। औद्योगिक क्रांति के दौरान केंद्रित उद्योगों के लिए कच्चा माल जुटाना और वहां उत्पादित वस्तुओं के लिए बाजार की खोज करना ही साम्राज्यवादियों का मुख्य लक्ष्य था। सभी जानते हैं कि अंग्रेज यहां शासन करने नहीं, बल्कि व्यापार करने आए थे। गुलामी की बुनियाद आर्थिक स्तर पर शुरू हुई, जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गुलामी तक बढ़ गई।

उन्होंने स्वराज की अवधारणा में तय किया कि आजाद भारत में विकास की कसौटी समाज का वह अंतिम आदमी होगा, जो तमाम सुविधाओं से वंचित है और भारत स्वायत्त ग्राम गणराज्यों का महासंघ होगा। लोकतंत्र की बुनियाद नीचे से मजबूत होते-होते ऊपर तक जाएगी। शक्ति का केंद्रबिंदु व्यक्ति और व्यक्तियों का समूह होगा, जो परस्पर के संबंधों में जुड़ा होगा। शीर्ष पर जो परोक्ष व्यवस्थाएं होंगी, उनका नियंत्रण नीचे से होगा। गांधी इस तरह का स्वराज चाहते थे।

कहा जाता है कि हमारे देश का अतीत बड़ा ही गौरवपूर्ण था। अपने अतीत का गौरव-गान करने में कोई बुराई नहीं है। मगर गौरवमय अतीत के बावजूद देश क्यों गुलाम हुआ, इसका उन्होंने विश्लेषण किया और फिर आर्थिक विकास की अवधारणा पेश की। कुछ लोग कहते हैं कि गांधी देश को पीछे ले जाना चाहते थे। लेकिन ये भ्रामक बातें हैं। गांधी की नजर में यंत्र मनुष्यों के हाथों की कुशलता को बढ़ाने वाले तथा उनके सृजनात्मक कार्य को आनंदमय बनाने वाले होने चाहिए थे, न कि उनको बेकार करने वाले, क्योंकि जब लोगों में सृजनशीलता नहीं होगी, तो उनमें स्वाभाविक रूप से हिंसक प्रवृत्ति बढ़ेगी।

देश के आजाद होने तक गांधी को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना भारतीय राजनीतिक नेतृत्व की मजबूरी था। लेकिन आजादी के बाद जो रास्ता अपनाया गया, वह गांधी का रास्ता नहीं है, खासकर आर्थिक संरचना और विकास के मामले में। हालांकि गांधी के राजनीतिक विचारों को पूरी तरह से खारिज नहीं किया गया, कुछ बातों को स्वीकार भी किया गया। मसलन, लोकतंत्र, जिसमें बालिग मताधिकार की व्यवस्था होगी, इसे स्वीकारा गया। धर्म आधारित राज्य की अवधारणा को गांधी ने सिरे से नकार दिया था और धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा दी थी, इसे भी स्वीकार किया गया।

लेकिन मुख्य रूप से आर्थिक विकास की और राजनीतिक पुनर्रचना की जो उनकी अवधारणा थी, उसे स्वीकार नहीं किया गया। नतीजा यह है कि आज आर्थिक विकास दर की होड़ में भारत फंसा है, जिसे गांधी जी पागल अंधी दौड़ कहते थे। विकास का यह जो मॉडल है, इसका असर देखने के लिए ग्रीस का उदाहरण हमारे सामने है।

आज ग्रीस की यह दुर्गति क्यों हुई, कल तक जो चीन आर्थिक विकास की सीढ़ियां तेजी से चढ़ता जा रहा था, वहां की विकास दर भी अब गिरने लगी है, आखिर ऐसा क्यों हुआ? और क्या गारंटी है कि भारत की अर्थव्यवस्था ऐसे संकट में नहीं फंसेगी? जिस आर्थिक व्यवस्था का ऐसा भयावह परिणाम हमारे सामने है, उससे कुछ सीखना चाहिए या नहीं? असल में विकास का यह मॉडल प्रकृति के अत्यधिक दोहन और भोग की अदम्य लिप्सा पर आधारित है। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों और मनुष्य के भोग की भी अपनी एक सीमा है, इसलिए विकास के इस मॉडल का एक न एक दिन विफल होना तय है।

विकास के इस मॉडल ने हर जगह असंतुलन को बढ़ाया है। लोगों के बीच असमानताएं बढ़ी हैं, पर्यावरण का असंतुलन बढ़ा है, हवा, पानी और वातावरण प्रदूषित हो गया है। हमने जिस जीवन-दृष्टि को अंगीकार किया है, वह हमें कहां ले जाएगी? अगर इन सब बातों पर विचार किया जाए, तो समझ में आएगा कि आज गांधी की क्या प्रासंगिकता है।

एक बार गांधी जी साबरमती आश्रम में लोटे से हाथ-मुंह धो रहे थे, तो बहुत कम पानी खर्च कर रहे थे। पंडित नेहरू ने कहा, बापू आप पानी खर्च करने में इतनी कंजूसी क्यों कर रहे हैं, यहां तो जल का स्रोत साबरमती नदी बह रही है? इसके जवाब में बापू ने कहा, जवाहर, यह नदी सिर्फ मेरे लिए नहीं बह रही है। यह एक बात उनकी पूरी जीवन दृष्टि का संकेत देती है। हमारे सामने गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी आदि तमाम तरह की चुनौतियां हैं, जिनका समाधान गांधी के रास्ते से ही मिलेगा।

तो फिर उम्मीद कहां है? हमारा देश युवाओं का देश है, जहां बड़ी आबादी युवाओं की है। दुनिया भर में युवाओं ने अपने-अपने देशों को दिशा दिखाई है, तो हमारे देश के युवक ऐसा क्यों नहीं कर सकते! कुछ वर्ष पहले अमेरिका में 'ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट' आंदोलन हुआ था, जो युवाओं का ही आंदोलन था। उसमें शामिल युवाओं के हाथों में गांधी की तस्वीर और उनके कथनों की तख्तियां थीं।

उन युवाओं ने जो एक नारा दिया, वह पूरी दुनिया के युवाओं का नारा होना चाहिए। उन्होंने नारा दिया था कि मात्र एक फीसदी लोगों की अय्याशी के लिए 99 फीसदी लोगों की बर्बादी क्यों? लेकिन इसके लिए हमारे देश के युवाओं को बाजार के भ्रामक नारों से बचना होगा और आज की चुनौतियों का साहस के साथ मुकाबला करना होगा। जवानी सस्ते कुशल श्रमिक बनकर अपनी क्षमताओं को बेचने में नहीं है, बल्कि चुनौतियों को स्वीकार कर नया करने और सोचने में है। क्या हमारे देश के युवा इन चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं!