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गांधी के बाद महानतम भारतीय- उदितराज


कुछ लोग अपने जीवन में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, तो कुछ लोग मरणोपरांत। डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने जीवन में बहुत ज्यादा प्रसिद्ध नहीं हो पाए, पर धीरे-धीरे उनका कद बढ़ता ही चला गया है। विगत दौर में महापुरुषों के अमर होने की अवधि भले बहुत लंबी रही हो, पर भविष्य में मूल्यांकन काम और विचार के आधार पर ही होने वाला है। संचार की दुनिया में क्रांति आने के बाद किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह अपने प्रचार तंत्र के बल पर आगे भी कामयाब होते रहेंगे।

आउटलुक पत्रिका, सीएनएन-आईबीएन एवं नेल्सन ने अगस्त-सितंबर, 2012 में सर्वेक्षण कराया कि गांधी के बाद कौन महानतम भारतीय है। महानतम भारतीय की फाइनल रैंकिंग में डॉ. अंबेडकर प्रथम स्थान पर रहे। यही उनकी लोकप्रियता और योगदान बताने के लिए काफी है। हालांकि उनके योगदान के बारे में भी काफी भ्रम है। ज्यादातर लोग इतना ही मानते हैं कि देश का संविधान लिखना उनका सबसे बड़ा योगदान है, जबकि यह सच नहीं है। डॉ. अंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान दलितों को गुलामी से आजाद कराना एवं समतामूलक समाज का संघर्ष रहा है।

सच तो यह है कि अब भी उनका सटीक मूल्यांकन नहीं हो पाया है। अधिकतर गैरदलित सोचते हैं कि अंबेडकर ने मूल रूप से अछूतों के लिए ही संघर्ष किया, जबकि ऐसा नहीं है। 1951 में कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र उन्होंने दलितों के सवाल पर नहीं, महिलाओं को संपत्ति में बराबरी का अधिकार देने के मुद्दे पर दिया था। दरअसल नेहरू जी से मशविरा करके उन्होंने हिंदू कोड बिल पेश किया था, जिसमें संपत्ति में महिला और पुरुष, दोनों के बराबर अधिकार का प्रावधान था। तमाम सांसदों ने जब इसका विरोध किया, तो नेहरू जी ने बिल वापस ले लिया। वैसी स्थिति में बिल पास होने का मतलब ही नहीं था। बिल पास न होने पर अंबेडकर बहुत आहत हुए और उन्होंने कानून मंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। क्या महिला अधिकारों की वकालत करने वालों ने अंबेडकर के साथ न्याय किया? हकीकत यह है कि लैंगिक समानता की बात करने वाले कभी इसकी चर्चा भी नहीं करते। दलित महिलाओं को तो इस मामले में कुछ पता भी है, पर उच्च तबके की महिलाएं शायद ही इस बारे में जानती हों। यहीं पर लगता है कि इतने वर्षों बाद भी अंबेडकर के साथ न्याय नहीं हो पाया है।

लेकिन यह सच बहुत दिनों तक छिपने वाला नहीं है। रामलीला मैदान में अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चलाया, तो सर्वाधिक नारा भारत माता की जय वहीं से गूंजा। ऐसा नहीं है कि पहले यह नारा नहीं लगता था। दलित सभाओं में भारत माता की जय के नारे नहीं लगते हैं, तो मैं सोचने लगा कि कहीं कोई गलती तो नहीं हो रही है? अगर ऐसा है, तो इसे ठीक किया जा सकता है। कुछ और लोग भी सोचते होगें कि दलित ‘जय भीम', ‘जय भारत' का नारा तो लगाते हैं, पर ‘भारत माता की जय', क्यों नहीं बोलते। वास्तव में चाहे ‘जय भारत' हो या ‘भारत माता की जय', दोनों का भावार्थ एक ही है। सामाजिक न्याय की ताकतें अपने अधिकार की बात करती हैं, तो वह शुद्ध राष्ट्रवाद है। इससे देश की एकता और अखंडता कहीं ज्यादा सुदृढ़ होती है। जनतंत्र और आरक्षण की वजह से महिलाओं और लगभग सभी जातियों की कम या ज्यादा भागीदारी शासन-प्रशासन में सुनिश्चित हुई। वस्तुतः अंबेडकरवाद सामाजिक न्याय, सम्मान एवं भागीदारी है और वह राष्ट्रीय एकता और अखंडता का ही पर्याय है।

-लेखक भाजपा सांसद हैं