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गांव और गरीब की चिंता कब?- अश्विनी महाजन

भारत सरकार द्वारा वर्ष 2011 में हुई जनगणना के आर्थिक, सामाजिक गणना के आंकड़े हाल ही में प्रकाशित किये गये हैं. ये आंकड़े भारत में गरीबों की वर्तमान दुर्दशा की कहानी बयान कर रहे हैं. चिंता का विषय केवल यह नहीं है कि गरीबों की हालत खराब है, बल्कि वह पहले से तेज गति से बदतर होती जा रही है. गौरतलब है कि अभी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ही ये आंकड़े प्रकाशित हुए हैं. जनगणना के आंकड़े बताते है कि जहां 2001 में जनजाति वर्ग के 45 प्रतिशत किसान अपनी जमीन पर खेती करते थे, 2011 में इस वर्ग के मात्र 35 प्रतिशत लोगों ने ही यह बताया कि वे अपनी जमीन पर खेती करते हैं. जहां 2001 में अनुसूचित जाति के 20 प्रतिशत लोग अपनी जमीन पर खेती करते थे, 2011 में 15 प्रतिशत की अपनी जमीन पर खेती करते रिपोर्ट हुए. जहां 2001 में 37 प्रतिशत लोगों ने यह कहा था कि वे भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं, 2011 में 44.4 प्रतिशत लोगों ने अपने आपको भूमिहीन खेतिहर मजदूर बताया. यानी 2001 से 2011 के बीच दस वर्षो में काफी संख्या में गरीबों के हाथ से भूमि छिन गयी.

भूमि की मिल्कियत व्यक्ति और परिवार के लिए रोजगार और आमदनी का मात्र एक जरिया ही नहीं, वह परिवार के लिए एक बीमा का भी काम करती है. समाज में व्यक्ति और परिवार का सम्मान भी भूमि की मिल्कियत से बढ़ता है. भूमिहीन लोग रोजगार के लिए सरकार समेत अन्य लोगों पर निर्भर करते हैं और उनका रोजगार भी आकस्मिक होता है, जबकि भूमि के मालिक लोग स्वरोजगार युक्त कहलाते हैं. भूमि के छिनने की यह प्रक्रिया राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 68वें दौर की रिपोर्ट में भी परिलक्षित होती है. गौरतलब है कि इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 2004-05 से लेकर 2009-10 के पांच सालों में ही स्वरोजगार में लगे 2 करोड़ 50 लाख लोग स्वरोजगार से बाहर हो गये और दूसरी ओर 2 करोड़ 20 लाख लोग दिहाड़ी मजदूर बन गये.

परिवार की आय से उसकी आर्थिक स्थिति का सही जायजा मिलता है. जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि कुल 13.35 करोड़ परिवारों (यानी कुल परिवारों का 74.5 प्रतिशत) में अधिकतम कमानेवाले सदस्य की आमदनी 5000 रुपये मासिक से कम थी. पांच से 10 हजार रुपये के बीच आमदनी वाले परिवारों की संख्या 3.1 करोड़ थी. ये आंकड़े स्पष्ट रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में अभावग्रस्तता की कहानी बयान करते हैं.

हमारी सरकारें आजादी के बाद से ही लगातार किसान और गांव की बेहतरी के वादे करती रही हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि आज भी गांवों में 36 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं. मात्र 29.7 परिवारों के पास ही सिंचित भूमि है. अभी तक मात्र 3.8 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ही किसान क्रेडिट कार्ड हैं. शहरों में जनदबाव व सुविधाओं के अभावों के चलते, अभावों में जी रही ग्रामीण जनता के पास कोई विकल्प भी नहीं दिखता.

किसी भी समस्या का हल उसके कारणों से निकलता है. लेकिन ग्रामीण अभावग्रस्तता और गरीबी का हल आसान नहीं है. सब जानते हैं कि भूमि की मिल्कियत गांव में सशक्तीकरण का माध्यम है. आजादी के बाद भू-सुधारों के द्वारा भूमिहीनों के आर्थिक सशक्तीकरण का कुछ प्रयास जरूर हुआ, लेकिन आज भू-सुधार बीते जमाने की चीज हो गये हैं. आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 वर्षो में गरीबों के हाथों से भूमि छिनने की गति बढ़ गयी है. लाखों किसानों की आत्महत्याएं इस बात का प्रमाण हैं कि कृषि अलाभकारी होती जा रही है और किसान मजबूरन खेती से विमुख होकर भूमि बेच रहा है. यही नहीं, जनसंख्या का दबाव भी भूमि के अभाव को बढ़ा रहा है. इसके अलावा बड़ी मात्र में भूमि का उपयोग गैर कृषि कार्यो के लिए होने लगा है. शहरीकरण, औद्योगीकरण, इन्फ्रास्ट्रर के लिए भूमि का उपयोग बढ़ा ही है और भविष्य में लाभ कमाने के लिए अमीरों द्वारा बड़ी मात्र में भूमि हस्तगत कर ली गयी है.

इन सब कारणों से भूमिहीनता की प्रक्रिया को बल मिला है. गणना के आंकड़े भी भूमिहीनता को ही अभावों का सबसे बड़ा कारण बता रहे हैं. ऐसे में गरीब को भूमि मिले, इसका तो प्रयास होना ही चाहिए, साथ ही वैकल्पिक रोजगार के अवसरों द्वारा उसका आर्थिक सशक्तीकरण भी जरूरी है. ग्रामीण उद्योग धंधों, विशेष तौर पर फूड प्रोसेसिंग, दस्तकारी, समेत लघु-कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा. कृषि को लाभकारी बना कर गांवों को खुशहाल बनाना होगा और गांवों को मुख्य धारा से जोड़ना होगा. ऐसी सब वस्तुएं जो गांवों में बन सकती हैं, उनके आयातों पर अंकुश लगाना होगा. ग्रामीण महिलाओं के लिए रोजगार के विशेष अवसर जुटाने होंगे. गांवों में स्वरोजगार के अवसर जुटा कर ही हम भूमिहीनों की दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भरता को कम कर सकते हैं. तभी उनके परिवार पढ़ पायेंगे और अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर पायेंगे और किसी भी मुश्किल का सामना करने में सक्षम होंगे.