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गांव मात्र वोटों से ज्यादा कुछ नहीं है- अनिल जोशी

जिस देश का अस्तित्व उसके गांवों से हो, वही नकारे जाएं, तो इससे बड़ी विडंबना कुछ नहीं हो सकती। देश में 8,800 शहर और 22,000 कस्बों की तुलना में साढ़े छह लाख गांव संख्या में कहीं ज्यादा हैं। देश की करीब 70 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में बसती है, और यह बड़ी संख्या ही इस देश की राजनीतिक दिशा तय करती है। राज्यों के मुख्यमंत्री व देश के प्रधानमंत्री इन्हीं के रुख से तय होते हैं। ऐसे में लोकतंत्र में गांवों की आवाज ज्यादा सुनी जानी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है।

संसाधनों की दृष्टि से हमारे गांव कहीं आगे हैं। वनस्पति, खनिज और इनसे जुड़े उत्पाद सब गांवों से ही जुड़े हैं। देश की आर्थिकी गांवों से ही जुड़ी है। देश में उत्पादक भी गांवों में ही हैं, चाहे वे खेती से जुड़े हों या फिर किसी अन्य संसाधन से। मूल उत्पाद के स्रोत हमेशा गांव ही रहे हैं और रहेंगे। शहरों में गांवों से उत्पादित संसाधनों का मात्र प्रबंधन होता है। दुर्भाग्य यह है कि उत्पादक की भागीदारी प्रबंधन के किसी हिस्से में नहीं है और न ही उसे उसके श्रम का लाभ मिलता है। शहरीकरण का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि वह उत्पादन व उत्पादक से तो दूर होता ही है, लाभ के बड़े हिस्से को भी हड़प लेता है। आज शहर खुद को देश की बौद्धिक संपदा के हकदार समझते हैं। इसलिए देश को नेतृत्व देने का ठेका भी उन्हीं का है। आज देश के नीति निर्धारण में शहरीपन ही झलकता है। मुल्क की बड़ी आबादी का इसमें कोई योगदान नहीं। उद्योग, ढांचागत विकास, नौकरी के नए रास्ते-ये सब हमारी नीतियों के बड़े हिस्से हैं। गांव भी शहरों जैसे हो सकें, यही हमारी बड़ी चिंता है।

लोकसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दलों के लुभावने घोषणापत्र हमारे सामने हैं। इन्हें आम आदमी का घोषणापत्र और रोजगारोन्मुखी बनाने की कोशिशें लगातार जारी हैं। इनमें सबकी भागीदारी का दावा तय करने की कोशिशें की जा रही हैं। पर गांवों के विकेंद्रित विकास की झलक इनमें ज्यादा नहीं दिखाई देती। पिछले लगभग 65 वर्षों से देश में ऐसा ही हो रहा है। विकास की रूपरेखा में गांव कहीं नहीं हैं।

विकास की इस मौजूदा शैली ने देश में कई तरह की विसंगतियां पैदा कर दी हैं। ये विसंगतियां आर्थिक असमानता से शुरू होकर सामाजिक, पारिस्थितिक व सांस्कृतिक हैं। कम श्रम और ज्यादा लाभ, सुविधाओं की ललक और शहरी सभ्यता जैसे मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। खाली होते गांव और शहरों की बढ़ती भीड़ ने विस्फोटक स्थिति पैदा कर दी है। नीति व निर्णय शहरों में तय किये जाते है। स्वतंत्रता के बाद गांव और पिछड़ते ही चले गए। हमारे नीति-नियंताओं की प्राथमिकता में ये दूर-दूर तक नहीं हैं। हमारे राजनीतिक दल गांवों को केवल वोट के लिए ही जानते हैं। सिर्फ चुनाव के समय ही उन्हें गांवों की याद आती है।

असंतुलित विकास नीति को दुरुस्त करने के लिए जरूरी है कि अब हम गांव पर केंद्रित विकास मॉडल पर काम करें। इसके लिए आवश्यक है कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक निर्णयों में गांव की भागीदारी हो। आसन्न चुनाव में देश के सभी राजनीतिक दलों को गांव के विकास के प्रति अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांवों को लगातार हाशिये पर रखना व्यापक असंतोष को जन्म दे सकता है। आजादी के बाद से ही हमने गांवों के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। स्वतंत्रता से पहले गांवों की जो स्थिति थी, हालत अब उससे बदतर ही हो चुकी है। खाली और खोखले होते गांव भविष्य में हमारे लिए बड़ा संकट बन सकते हैं, इसे समय रहते समझना होगा। ऐसे राजनीतिक नजरिये की जरूरत है, जो सत्ता में रहते हुए अगले दस-पंद्रह वर्षों तक गांव की समृद्धि पर अपना ध्यान केंद्रित करे।