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गांव में अमन चैन का इंतजार है डेढ़ सौ विस्थापित परिवारों को

नारायणपुर(ब्यूरो)। यहां शांतिनगर में आकर बसे अबूझमाड़ के करीब डेढ़ सौ परिवारों को उनके गांवों में अमन लौटने का इंतजार है। अभी उनके दिल में अपने गांव को एक बार देखने की चाहत तो है लेकिन खौफ के चलते वे यहां आने के बाद एक बार भी वहां नहीं गए। सलवा जुड़ूम शुरू होने के बाद जब फोर्स और माओवादियों में टकराव तेज हुई तो इसके शिकार अबूूझमाड़ समेत जिले के प्रभावित गांवों के लोगों पर आफत आ गई। यही हाल जिले से लगे कांकेर के आसपास के गांवों का भी हुआ।

दोनों के बीच पिसने से पहले ही कुछ परिवारों ने जिला मुख्यालय में आना बेहतर समझा। इसके बाद वहां रह रहे लोगों की परेशानी बढ़ गई। गांव में रहने वाले कई परिवार माओवादी हिंसा का शिकार हुए। इससे ऐसे परिवार भी जिला मुख्यालय आ गए। कुछ परिवारों के युवा एसपीओ में भर्ती हो गए तो कुछ परिवारों पर नक्सलियों ने मुखबिरी का शक जताया। एसपीओ के परिजनों को भी गांव छोड़ना पड़ा।

नक्सली शक के दायरे में आए परिवारों को गांव से बेदखल कर दिया गया। ऐसे में एक ही चारा था और वह था जिला मुख्यालय में आकर अपनी जान बचाने का। ऐसे परिवारों ने शांतिनगर में आकर अपनी बस्ती बना ली। अभी करीब डेढ़ सौ परिवार यहां रह रहे हैं। ये परिवार मुरनार, कोहकामेटा, कानागांव, कुंदला, कुतूल, नेलनार, पदमकोट, झरवट, बालेबेड़ा, गारपा, सोनपुर, किहकाड़, बासिंग, पीड़ियाकोट एवं अन्य सुदूर गांवों से आए हैं। प्रभावित परिवारों को पहले सरकार की ओर से मुआवजे के तौर पर 15 हजार रुपए दिए गए। बाद में आए परिवारों को 30 हजार रुपए दिए गए।

इससे इन्होंने झोपड़ियां बना लीं। सरकार ने कुछ युवाओं को एसपीओ बना दिया। अब ये सहायक आरक्षक बन गए हैं। शुरू में जिला मुख्यालय में आकर बसे अबुझमाड़ियों को बेहद तंगहाली से गुजरना पड़ा। कई युवा मजदूरी में लग गए। जिला गठन के बाद निर्माण कार्य शुरू होने से कई युवकों को इसमें रोजगार मिल गया। कुछ दुकानों और होटलों में काम पर लग गए।

अबुझमाड़ के कुंदला गांव से आकर बसे राधेलाल भण्डारी बताते हैं कि वे अपना सब कुछ छोड़कर आए हैं। गांव जाने की इच्छा तो होती है लेकिन दहशत के कारण वे नहीं जा पाते हैं। शांति बहाल होती तो वे गांव चले जाते। यहां कुछ ऐसे भी परिवार हैं जिन्होंने अपने तीन से चार परिजनों को नक्सली हिंसा में खोया है। कांकेर जिले के बहिया सालेभाट निवासी रामदास वट्टी के परिवार को माओवादियों ने 2011 में बेदखल कर दिया। दरअसल उनका पुत्र कांकेर जिले में एसपीओ था और माओवादियों को इससे नाराजगी थी। दुर्घटना होने पर उनका पुत्र काम पर नहीं गया। इससे उसकी नौकरी चली गई। अब वह नौकरी पाने चक्कर लगा रहा है। रामदास भी शांतिनगर में आकर बस गया और कुली-मजदूरी करता है।

मवेशी भी नहीं ला पाए

प्रभावित लोग बताते हैं कि उन्हें यहां आने से पहले अपने मवेशी बेचने या लाने का भी मौका नहीं मिला। वे बताते हैं कि उनके कपड़े-बर्तन सब कुछ छूट गए। उनके मवेशियों को नक्सली ले गए और खेत को गांव के लोगों को ही खेती करने दे दिया। कभी उनके खेतों में लोग काम करते थे, अब वे दूसरे के खेतों में काम करने विवश हैं।