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गांवों की अनदेखी से विकास असंभव- उमेश चतुर्वेदी

उदारवादी अर्थव्यवस्था के इस दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था यदि खेती-किसानी और उसके जरिये जीने वाले गांवों पर टिकी हुई है, तो मान लेना होगा कि हजारों वर्षों से चली आ रही भारतीयता की परंपरा अब भी बनी हुई है। आर्थिक नीतियों की कामयाबी और नाकामी का पैमाना अब अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों फिच और मूडी की रिपोर्टों और उनके आकलन के आधार पर तय होता है। हाल ही में मूडी की इंटरनल इंडिया रिपोर्ट में भी बताया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी नहीं रहने जा रही। मूडी ने इसकी बड़ी वजह भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आई सुस्ती को माना है।

मूडी की इस रिपोर्ट की पड़ताल से पहले हमें अपनी ग्रामीण आबादी और उसकी जीवन शैली से जुड़े तथ्यों पर निगाह डालनी चाहिए। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अब भी 72.2 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के बाद भी अगर ग्रामीण जनसंख्या शहरी आबादी से दोगुनी से भी ज्यादा हो, तो इसका एक अर्थ यह है कि शहरों में तमाम सहूलियतों के बावजूद आम आदमी की जिंदगी सहज नहीं है। यदि शहरों में रोजगार है, तो भी उससे होने वाली आमदनी शहरों में उसका खर्च उठाने की ताकत नहीं रखती। इसलिए लोग गांवों में कम खर्च में जिंदगी गुजारना बेहतर मानते हैं।

वर्ष 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती-किसानी की हिस्सेदारी 55 फीसदी थी। तब से आज भारतीय अर्थव्यवस्था कई गुना बड़ी हो गई है। पर जीडीपी में खेती-किसानी का योगदान घटकर 14 फीसदी से भी कम रह गया है। हालिया नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक किसानों की कुल संख्या 26 करोड़ है। पर खेती पर जीने वाले लोगों की संख्या कुल आबादी का करीब दो-तिहाई है। भारतीय अर्थव्यवस्था का करीब 35 फीसदी अब भी ग्रामीण इलाकों पर ही निर्भर करता है। इसीलिए मूडीज को भी मानना पड़ा है कि अगर अल नीनो का असर हुआ और मानसून कमजोर रहा, तो आर्थिक विकास दर घटकर साढ़े सात फीसदी रह जाएगी। इससे शहर तो चमकते रहेंगे, पर ग्रामीण इलाके अंधरे में डूब जाएंगे।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने जिस अंत्योदय या एकात्म मानववाद की कल्पना की थी, उसमें सबसे बड़ी चिंता इसी ग्रामीण समाज की थी। बेशक दलहन और दूसरे खाद्यान्न के उत्पादन पर बोनस का ऐलान कर दिया गया है। पर अगर मानसून सही नहीं रहेगा और ग्रामीण इलाके की परेशानियों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो अच्छे दिन लाने का सपना अधूरा ही रह जाएगा।

2008 की आर्थिक मंदी का वियतनाम और लाओस जैसे अपेक्षाकृत छोटे देशों के अलावा भारतीय अर्थव्यवस्था पर खास असर नहीं पड़ा था, तो उसके पीछे इन देशों की अपनी सामाजिक व्यवस्था और संयुक्त परिवार की संस्कृति का बड़ा योगदान था। सांस्कृतिक त्योहारों और शादी-ब्याह की पारिवारिक-सामाजिक परिपाटी ने तब भारतीय अर्थव्यवस्था की गति बनाए रखी थी। संयुक्त परिवारों ने भोजन और आवास के साथ मानसिक संबल का आधार मुहैया कराया था। मूडी के आकलन को इस परिप्रेक्ष्य में भी समझने की जरूरत है। उसका आकलन इस तरफ भी इशारा कर रहा है कि देश में स्मार्ट सिटी के साथ ही ग्रामीण समाज और अर्थव्यवस्था को भी जिंदा रखना होगा।