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गालिब! गुजरात का ख्याल अच्छा है- चंदन श्रीवास्तव

मिर्जा गालिब को लगता था कि जन्नत, एक ख्याल ही सही मगर दिल को बहलाये रखने के लिहाज से ‘यह ख्याल अच्छा है’. वैसे, ऐसा कहते हुए उनके दिल में कोई कांटा जरूर चुभता रहा होगा. तभी उन्होंने अपने मशहूर शे’र में जन्नत से दोहरा बदला लिया. एक तो उसे महज ख्याल भर बताया और साथ में यह भी जोड़ दिया कि- सबको मालूम है जन्नत की हकीकत..

यहां गालिब की बात इसलिए, क्योंकि नरेंद्र मोदी और उनके ‘वायब्रेंट गुजरात’ सम्मेलन के भीतर भारत की दरिद्रता का निदान देखने को आतुर कॉरपोरेटी बुद्धि-विवेक वाले अर्थशास्त्रियों का एक बड़ा कुनबा रोजाना इस देश के लोगों को यही समझाने में लगा रहता है कि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह ‘गुजरात’ ही है. यहां धरती के किसी-न-किसी कोने को स्वर्ग ठहराने का चलन बहुत पुराना है. मुगल बादशाह जहांगीर कश्मीर के कुदरती नजारों पर फिदा होकर बकौल शायर कह बैठा था-‘गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त. हमीं अस्त, हमीं अस्त.’ (अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है.)

गुजरात के बारे में बहुत कुछ यही टेक नरेंद्र मोदी के भाषणों में भी सुनाई देती है. फर्क यह है कि जहांगीर कश्मीर को धरती का स्वर्ग उसकी प्राकृतिक सुषमा पर रीझने के कारण कहा करता था, जबकि मोदी ‘आपणो  गुजरात’ में हुई आर्थिक तरक्की पर रीझ कर उसे भावी भारत की आदर्श तसवीर के रूप में प्रस्तुत करते हैं. गालिब को जो बात जन्नत के बारे में सही लगी थी वह एक हद तक गुजरात के बारे में भी ठीक है. ‘वायब्रेंट गुजरात’ हकीकत कम और एक ‘गढ़ंत’ ज्यादा है. बहरहाल, इसका एक फायदा हुआ है. महानगरों से लेकर कस्बों तक में आर्थिक तरक्की के जुदा-जुदा ख्याल पालनेवाले मध्यवर्गीय मानुष को गुजरात के बहाने दिल को बहलाये रखने के लिए एक ‘ख्याल’ मिल गया है.

ऐसे ख्यालों को झटका तब लगता है, जब सपनों की जन्नत की हकीकत बड़ी बेमुरव्वती से बंद आंखों के आगे पलक नोच लेने के लिए आ खड़ी होती है. फिर मध्यवर्गीय सपनों को पालनेवाला मानुष हतप्रभ सोचते ही रह जाता है कि ‘ऐसी जन्नत’ का क्या करे कोई, जहां से इश्तहार तो अमीरी के निकलते हैं, मगर इनको किसी फरियाद की तरह पहनने के लिए झुंड के झुंड गरीब पलते हैं. और हैरत यह कि अमीरी के इश्तहारों के बीच फरियादी गरीबों की कोई सुनवाई ही नहीं.

बीते हफ्ते ऐसा ही हुआ. खबर आयी कि गुजरात सरकार के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के मुताबिक गुजरात में अगर ग्रामीण व्यक्ति के पास हर महीने 324 रुपये और शहरी व्यक्ति के पास प्रतिमाह 501 रुपये खर्च करने की क्षमता हो, तो वह गरीब नहीं माना जायेगा. इस आंकड़े को प्रतिदिन उपभोग-खर्च के रूप में तोड़ें तो वह ग्रामीण क्षेत्र के लिए तकरीबन 11 रुपये और शहरी क्षेत्र के लिए करीब 17 रुपये के बराबर है. गुजरात का खाद्य एवं आपूर्ति विभाग योजना आयोग से भी एक कदम आगे निकल गया. याद रहे, बीते साल यूपीए ने गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 27 रुपये और शहरी इलाकों में 32 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के उपभोग-खर्च की सीमा मानी थी.

खैर, चलन के मुताबिक गुजरात के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग ने अपने आंकड़े का इस्तेमाल गुजरात को केंद्र की तुलना में गरीबों का कहीं ज्यादा बड़ा दर्दमंद साबित करने में किया. बीपीएल कार्डधारियों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अनुदानित मूल्य पर 35 किलो अनाज प्रतिमाह देने का प्रावधान है. योजना आयोग ने गुजरात के लिए बीपीएल श्रेणी के परिवारों की संख्या 13 लाख 10 हजार की तय की है. उपभोग-खर्च को योजना आयोग की घोषित सीमा-रेखा से कम रखने के बावजूद गुजरात के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग को बीपीएल श्रेणी के 11 लाख 20 हजार परिवार और बढ़ाने पड़े. और, इस बढ़वार के आधार पर गुजरात सरकार कह सकती है कि गरीबों को भोजन का हक देने के मामले में वह केंद्र की तुलना में गरीबों की कहीं ज्यादा दर्दमंद है.

अगर गुजरात के खाद्य एवं आपूर्ति विभाग का तर्क सही है, तो फिर सोचिए कि कुतर्क किसे कहते हैं? 17 रुपये दो जून की रोटी-सब्जी तो क्या, राज्यों की राजधानियों में सुबह-शाम चाय के साथ बिस्कुट मिल जाये तो गनीमत है और जहां तक 11 रुपये की सीमा का सवाल है, तो गुजरात के गांवों का पता नहीं, लेकिन देश के शेष राज्य के गांवों में खाली पेट दो प्याली चाय ही सुड़की जा सकती है. गरीबों के लिए दर्दमंद होने के दिखावे के बीच यह बात बिल्कुल छुपी रह गयी कि गुजरात में गरीबी-रेखा के निर्धारण के लिए जारी उपभोग-खर्च की सीमा आज की नहीं, बल्कि 14 साल पुरानी है. गुजरात के गांवों के लिए 11 रुपये और शहरों के लिए 17 रुपये की सीमा योजना आयोग ने नेशनल सैंपल सर्वे के 1999-2000 के आंकड़ों के आधार पर तय किये थे. इसके बाद से योजना आयोग तीन दफे यानी 2004-05, 2009-10 और 2011-12 में राज्यों के लिए गरीबी-रेखा के निर्धारण के लिए उपभोग-खर्च की सीमा को संशोधित कर चुका है. 2004-05 में लकड़ावाला समिति की सिफारिशों के अनुरूप योजना आयोग ने गुजरात के ग्रामीण व्यक्ति के लिए 16 रुपये 70 पैसे और शहरी व्यक्ति के लिए 21 रुपये 97 पैसे के उपभोग-खर्च की सीमा तय की थी. 2009-10 में तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर यह सीमा-रेखा (गुजरात के लिए) बढ़ा कर 24 रुपये 20 पैसे (ग्रामीण) और 31 रुपये 71 पैसे की गयी. 2011-12 में नेशनल सैंपल सर्वे ने एक सर्वेक्षण किया. तेंदुलकर समिति की सिफारिशों को आधार मानें, तो नये आंकड़ों के आधार पर गुजरात के ग्रामीण व्यक्ति के लिए गरीबी-रेखा की सीमा 31 रुपये 07 पैसे और शहरी व्यक्ति के लिए 38 रुपये 40 पैसे के उपभोग-खर्च की ठहरती है.

देश का विकास बड़े कारोबारियों के हवाले है और गरीबों को एक ऐसे लालकार्ड के हवाले कर दिया गया है जिस पर लिखा हुआ है ‘छल’ मगर पढ़ा जा रहा है ‘अधिकार’, वरना जिस तेंदुलकर समिति की सिफारिशों की बड़ाई करते योजना आयोग का जी नहीं भरता, उसके बारे में पूछा जाता कि आखिर उसने गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए पहले से चले आ रहे मानक को नीचे करके 1800 किलोकैलोरी रोजाना के आहार-उपभोग तक सीमित क्यों किया? कागज पर गरीबों की संख्या घटाने का इससे नायाब तरीका और क्या हो सकता है कि अगर पहले गरीब का पेट चार रोटी में भरता रहा है, तो एक विशेषज्ञ आकर कह दे कि नहीं, गरीब का पेट तीन रोटी में भरता है और यह बात छुपा जाये कि गरीबी निर्धारण में उसने गरीब के मुंह से एक रोटी और छीन ली है.