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गुजरात मॉडल का राष्ट्रीय हो जाना- रामचंद्र गुहा

पिछले आम चुनाव के प्रचार में नरेंद्र मोदी ने बार-बार ‘गुजरात मॉडल' का जिक्र किया और वादा किया कि भाजपा सत्ता में आई, तो यह मॉडल राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाएगा। पार्टी चुनाव जीत गई और मोदी ने अपना वादा निभाया।

गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने प्रशासनिक चुस्ती और व्यापार करने की आसानी बढ़ाने के लिए कई काम किए। जब वह प्रधानमंत्री बन गए, तब भी उन्होंने ऐसा ही किया। इस संदर्भ में खास तौर पर आधार योजना और वस्तु एवं सेवा कर महत्वपूर्ण हैं। अजीब बात यह है कि ये दोनों संप्रग सरकार की योजनाएं थीं। लेकिन मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने उनके पीछे अपना राजनीतिक जोर नहीं लगाया, जिससे वे अटक गईं और उनको नई राजग सरकार ने पुनर्जीवित किया।

जिसे भी व्यावहारिक अर्थशास्त्र की थोड़ी-सी समझ हो, वह इन दोनों योजनाओं का समर्थन करेगा। आधार योजना में सस्ते अनाज और ईंधन को गरीबों तक पहुंचाने के रास्ते में भ्रष्टाचार को कम करने की संभावना है। दूसरी ओर, जीएसटी की वजह से अलग-अलग राज्यों की ओर से जो टैक्स और अधिभार लगते हैं, उनकी जगह समान टैक्स लागू होगा और एक राष्ट्रव्यापी बाजार बन पाएगा। इससे सामान आसानी से देश भर में पहुंचाया जा सकेगा और उत्पादकों तथा उपभोक्ताओं, दोनों को फायदा होगा। आधार को राष्ट्रव्यापी स्तर पर लागू करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर है, दूसरी ओर जीएसटी में कई राज्यों को आपत्ति है, जो शराब, तंबाकू और पेट्रोलियम पदार्थों पर अपना अधिकार बनाए रखना चाहते हैं, जो कि वैध और अवैध, दोनों किस्म की कमाई के बड़े स्रोत हैं। इन दोनों योजनाओं का भविष्य अधर में टंगा है, लेकिन पिछले एक साल में इस सरकार ने इन योजनाओं को लागू करने के लिए जितनी ऊर्जा खर्च की है, उतनी संप्रग सरकार ने अपने दस साल में नहीं की।

जो तीसरा सुधार मोदी सरकार ने किया है, वह उसका अपना है। उसने एक नया जमीन अधिग्रहण विधेयक पेश किया है, जो संप्रग सरकार के 2013 के कानून की जगह लेगा और जिसे उस वक्त राजग का भी समर्थन हासिल था। संप्रग सरकार का कानून खुद 1894 के जमीन अधिग्रहण कानून की जगह लेने के लिए बनाया गया था, जिसमें सरकार के पास नागरिकों की जमीन को हथियाने के लिए असीमित अधिकार दिए गए थे। 1950 से 1980 के दशक तक अंग्रेजी राज के कानून का इस्तेमाल सरकारी उद्योग, खनन और पनबिजली योजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण में खूब किया गया। 1980 के दशक के बाद इसका दुरुपयोग राजनेताओं ने किया, जिन्होंने बढ़ते हुए शहरों के बाहर जमीनें सस्ते में खरीदकर उनको नाजायज मुनाफे के साथ बिल्डर माफिया और निजी उद्योगों को बेचा। इस बीच, जो लाखों किसान और आदिवासी विस्थापित हुए, उन्हें बहुत मामूली मुआवजा दिया गया। इन ऐतिहासिक गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए सन 2013 में नया जमीन अधिग्रहण कानून बनाया गया। भाजपा ने तब इस कानून का समर्थन किया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने नए बिल में जमीन अधिग्रहण के सामाजिक असर के आकलन और सहमति की जरूरत को काफी कम कर दिया। आधार से भ्रष्टाचार कम होगा और जीएसटी से व्यापार और उपभोक्ता दोनों का फायदा होगा, लेकिन यह नया जमीन कानून उद्योगपतियों और मजदूरों के हितों को किसानों व खेत-मजदूरों के हितों के खिलाफ खड़ा कर देगा।

बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी व्यापार के मित्र थे, लेकिन पर्यावरण विरोधी थे। उनके राज में समुद्र तट के दलदली जंगल उनके एक प्रिय औद्योगिक घराने को दे दिए गए। राज्य के दूसरे इलाकों में वन क्षेत्र निजी कंपनियों को दे दिए गए। इस बीच औद्योगिक प्रदूषण जांचने या रोकने की कोई कोशिश नहीं की गई। पर्यावरण की उपेक्षा अब केंद्र में भी दिख रही है। भारतीय वन्य जीवन मंडल में बड़े फेरबदल किए गए हैं, जिसके तहत वैज्ञानिक और पर्यावरण विशेषज्ञों की जगह औद्योगिक घरानों के समर्थकों ने ले ली है। वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों को जो अधिकार मिले हैं, उनकी अनदेखी की जा रही है। खनन लॉबी की मदद के लिए जंगलों के जल संरक्षण के आकलन का मुद्दा हटा दिया गया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी करके उत्तराखंड में बांध योजनाएं जारी रखी हैं।

नरेंद्र मोदी की गुजरात सरकार का शिक्षा के क्षेत्र में भी अच्छा रिकॉर्ड नहीं रहा है। बड़ौदा का एम एस विश्वविद्यालय देश के सर्वश्रेष्ठ प्रांतीय विश्वविद्यालयों में से है। उस पर आरएसएस कार्यकर्ताओं ने कई हमले किए और मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया। मोदी के राज में शिक्षा और शोध के प्रति आमतौर पर उपेक्षा का भाव रहा है। सालाना एएसईआर रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता लगातार खराब रही है। यही उपेक्षा का भाव अब केंद्र सरकार में आ गया है। जब स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्री का कैबिनेट दर्जा दिया, तो इसके बारे में तरह-तरह के कयास लगाए गए। उनमें काफी सारा सच भी होगा, लेकिन मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि इसकी बड़ी वजह मोदी के अपने नजरिये में है। चाहे गांधीनगर हो या दिल्ली, मोदी नहीं सोचते कि अच्छी शिक्षा बेहतर व समृद्ध भारत बनाने के लिए कोई जरूरी शर्त है।

नरेंद्र मोदी का गुजरात मॉडल मुख्यमंत्री के चुनिंदा नौकरशाहों के एक छोटे-से गुट पर निर्भर करता था। जब मोदी दिल्ली आए, तो उनमें से कुछ अफसर उनके साथ यहां आ गए, लेकिन भारत सरकार का विस्तार राज्य सरकार के मुकाबले बहुत ज्यादा होता है। इसकी वजह से सारे महत्वपूर्ण पदों पर अपने वफादार लोगों को बैठाना संभव नहीं था। इस बीच प्रधानमंत्री अपनी छवि में इतने उलझे हुए थे कि वह कई महत्वपूर्ण पदों के लिए सही उम्मीदवार चुनने का वक्त नहीं निकाल पाए। केंद्र में लगभग 450 वरिष्ठ पद खाली पड़े हैं। इनमें केंद्रीय सूचना आयुक्त, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और दो केंद्रीय चुनाव आयुक्त शामिल हैं। कुछ लोग मानते हैं कि सरकार जान-बूझकर इन सांविधानिक संस्थाओं को कमजोर करना चाहती है। मेरी मान्यता अलग है। मोदी हर चीज पर अपना नियंत्रण चाहते हैं, इसलिए वह हर पद पर अपने वफादार आदमी को बैठाना चाहते हैं। ऐसे में, वह चुनाव आयुक्त या सतर्कता आयुक्त का चुनाव किसी विशेषज्ञ समिति को नहीं सौंप सकते और उनकी व्यस्तताओं की वजह से वह खुद हर पद के लिए चुनाव नहीं कर सकते।

गुजरात मॉडल के भारी प्रचार में नरेंद्र मोदी को उनके कुछ समर्थक पत्रकारों और संकीर्ण नजरिये वाले अर्थशास्त्रियों ने मदद की है, जो तरक्की को सड़कों, कारखानों और वाइब्रेंट गुजरात आयोजनों से जोड़ते हैं। और जो इस मॉडल की कमियां दिखाते हैं, उन्हें विघ्न डालने वाले कहा जाता है। गुजरात मॉडल के राष्ट्रीय स्तर पर आने के एक साल में ही उसकी कई कमियां उजागर हो गईं। शिक्षा की गुणवत्ता और पर्यावरण देश के दूरगामी भविष्य के लिए कितना जरूरी हैं, यह मोदी और उनके अर्थशास्त्री मित्र या तो नहीं जानते या समझना नहीं चाहते। एक छोटा राज्य अकेले आदमी के सहारे चलाया जा सकता है, लेकिन एक विशाल और बहुलता वाले देश को चलाने के लिए लोगों पर विश्वास करना, अच्छे संस्थान और व्यवस्थाएं बनाना अनिवार्य है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)