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गुड इकोनॉमिक्स बनाम बैड पॉलिटिक्स - प्रदीप सिंह

अपने देश में लड़कियों/महिलाओं के लिए समस्याएं जन्म के पहले से ही शुरू हो जाती हैं। मां के पेट में जीवित रह गईं तो पैदा होते ही परिवार में कमतरी का एहसास कराया जाता है। हर मामले में उन्हें लड़कों के पीछे खड़ा होना पड़ता है। यह एक ऐसा संघर्ष है जो ताउम्र चलता है। इन सबसे बच भी जाएं तो चूल्हे के धुएं की आग से बचना कठिन है। चूल्हे के धुएं की आग से हर साल बारह लाख लोग मरते हैं। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर महिलाएं ही हैं। चूल्हे का धुआं धीरे-धीरे आंख की रोशनी भी छीन लेता है। यह समस्या मूलत: देश के ग्रामीण इलाकों की है। गरीब पर नजर जाती नहीं या देर से जाती है। इसलिए विकास की योजना बनाने वालों का ध्यान पिछले सत्तर सालों में नहीं गया।

केंद्र की राजग की सरकार की दो योजनाएं 'उदय" और 'उज्ज्वला" ऐसी हैं जो आम लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव ला सकती हैं। राजनीतिक दृष्टि से दोनों में एक बुनियादी फर्क है। जहां 'उदय" से सरकार को शुरू में अलोकप्रियता मिलने की आशंका है, वहीं 'उज्ज्वला" से आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य व महिला सशक्तीकरण के नजरिए से लाभ मिलना तय है।

पहले 'उज्ज्वला" की बात करते हैं। मोदी सरकार के 2016-17 के बजट में पहली बार वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ग्रामीण महिलाओं की शायद सबसे बड़ी समस्या की ओर ध्यान दिया है। वित्त मंत्री ने बजट में घोषणा की है कि अगले तीन सालों में पांच करोड़ परिवारों को रसोई गैस के कनेक्शन दिए जाएंगे। एलपीजी सबसे साफ ईंधन है, किंतु गरीब आदमी की पहुंच से बाहर है। लिहाजा सरकार ने सबसिडी की व्यवस्था की है। यह कनेक्शन परिवार की महिला सदस्य के नाम होगा। शुरुआत में लगने वाला शुल्क नहीं वसूला जाएगा। इसका ग्रामीण औरतों पर क्या असर पड़ेगा, इसका अंदाजा कुछ आंकड़ों से लग सकता है। चूल्हे के धुएं से फेंफड़े में जितना धुआं जाता है, वह हर घंटे चार सिगरेट पीने के बराबर है। शहरों में प्रदूषण के स्तर में वृद्धि से पूरा देश चिंतित है। उसके लिए तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन दशकों से ग्रामीण महिलाएं किस यंत्रणा से गुजर रही हैं, इसकी चिंता किसी ने नहीं की। मिट्टी के चूल्हे का डिजाइन बदलने और बेहतर बनाने के कुछ प्रयास हुए, लेकिन नाकाम ही रहे। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक महिलाओं पर किए गए एक अध्ययन के अनुसार पीएम 2.5 का जो मानक स्तर है, उससे दस गुना ज्यादा चूल्हे पर खाना पकाने वाली महिलाओं के फेंफडों में जाता है। पांच करोड़ महिलाओं को रियायती दर पर गैस कनेक्शन देने की योजना से ग्रामीण क्षेत्रों में गैस वितरण का नेटवर्क खड़ा करना पेट्रोलियम व प्राकृतिक गैस मंत्रालय की सबसे बड़ी चुनौती होगी। यह ऐसी योजना है, जो कामयाब हो गई तो 2019 के आम चुनाव में भाजपा के लिए गेमचेंजर बन सकती है।

अब बात 'उदय" योजना की। बिजली एक ऐसी चीज है, जिस पर गरीब के घर की रोशनी, औद्योगिक और कृषि विकास निर्भर है। पिछले कई दशकों में वोट की राजनीति ने सरकारी बिजली कंपनियों को दिवालिया बना दिया है। देश की बिजली कंपनियों का सकल कर्ज 4.3 लाख करोड़ रुपए हो गया है, क्योंकि राज्य सरकारें चुनाव जीतने के लिए सस्ती या मुफ्त बिजली का वादा करती हैं। नतीजतन बिजली कंपनियां बैंकों से कर्ज लेकर बिजली खरीदती हैं। कर्ज अदा नहीं कर पातीं। इस तरह उनका सकल घाटा 3.8 लाख करोड़ रुपए हो गया है। ऐसे में बिजली कंपनियों का डूबना तो तय था ही, उन्हें उधार देने वाले बैंकों का भी गड्ढे में जाना तय था। नतीजा यह हो गया है कि बिजली की जरूरत और उपलब्धता के बावजूद सरकारी बिजली कंपनियां बिजली खरीदने को तैयार नहीं थीं, क्योंकि बिजली खरीदने का मतलब कर्ज और घाटा, दोनों में बढ़ोतरी।

मोदी सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में जिस कोऑपरेटिव फेडरलिज्म की बात कही थी, उसकी सबसे बड़ी मिसाल है ऊर्जा मंत्रालय की 'उदय" यानी उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना। यह ऐसी योजना है जो बिजली कंपनियों को कर्ज और घाटे से उबार लेगी और राज्य सरकारों को वित्तीय रूप से ज्यादा जिम्मेदार बना सकती है। इसमें केंद्र सरकार से कोई पैसा नहीं मिलना है। ऐसे में राज्यों को समझाना और कठिन काम था। लेकिन ऊर्जा राज्यमंत्री पीयूष गोयल ने करीब दो सौ बैठकें करके सबको राजी कर लिया। नौ राज्य इस योजना को स्वीकार कर चुके हैं, जिसमें उत्तर प्रदेश और बिहार भी शामिल हैं। पीयूष गोयल का दावा है कि इससे न सिर्फ बिजली की उपलब्धता बढ़ेगी, बल्कि इसके दाम में भी कमी आएगी। किंतु यह तत्काल नहीं होने वाला। यही एक मुद्दा है जो समस्या बन सकता है। बिजली के दाम घटना कई बातों पर निर्भर है। बिजली के दाम अगर शुरू में बढ़े तो ठीकरा केंद्र सरकार के सिर फूटेगा।

केंद्र की इन दोनों योजनाओं के आधार पर यह बात कही जा सकती है कि गुड इकोनॉमिक्स हमेशा बैड पॉलिटिक्स नहीं होती। आर्थिक निर्णय अगर लोगों के व्यापक हित के नजरिए से लिए जाएं तो वे राजनीतिक रूप से लाभकारी भी हो सकते हैं। जिस तरह किसी भी चीज का असली स्वाद उसे खाने के बाद ही पता चलता है उसी तरह किसी भी योजना का फायदा उसके ठीक से लागू होने पर ही मिलता है। ये दोनों योजनाएं केंद्र सरकार की संवेदनशीलता व राज्यों के हित में अपना हित देखने की नीति और नीयत को भी दर्शाती हैं। यही कारण है कि जरा-सी बात पर सबसिडी का विरोध करने वाली ब्रिगेड भी अभी तक 'उज्ज्वला" के विरोध में कुछ नहीं बोल पाई है। सरकार के लिए भी यह एक सबक है कि नीति बनाने के पीछे नीयत साफ हो तो आलोचना के स्वर अपने आप दब जाते हैं।