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गोरेपन की चाहत निरापद नहीं-- मनीषा सिंह

सरकार की मंशा है कि देश में अब गोरा बनाने का दावा करने वाली क्रीमें बिना डॉक्टर की पर्ची के न बिकें। इसके लिए सरकार ने एंटीबॉयोटिक दवाओं और स्टेरॉयड के मिश्रण वाली ऐसी चौदह तरह की क्रीमों को ‘ओवर द काउंटर' की सूची (जिन दवाओं के लिए डॉक्टर का लिखित पर्चा जरूरी नहीं है) से हटा दिया है। इसकी जगह इन्हें ‘शेड्यूल-एच' में शामिल किया है, जिसका मतलब यह है कि अब ऐसी क्रीम खरीदने के लिए डॉक्टरी सलाह वाला पर्चा जरूरी होगा। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बारे में जो निर्देश जारी किए हैं, उनके अनुसार एस्टेरॉयड के मिश्रण वाली क्रीम को डॉक्टरी पर्चे के बिना बेचने वाले दुकानदारों पर खाद्य एवं दवा प्रशासन (एफडीए) कार्रवाई कर सकता है।

यह प्रबंध असल में कुछ चिकित्सकों की लगातार शिकायतों के बाद किया गया, जिसमें उन्होंने बताया था कि कुछ कंपनियां चिकित्सकीय निर्देशों की अवहेलना करते हुए बाजार में ऐसी फेयरनेस क्रीमें बेच रही हैं, जिनमें एंटीबायोटिक दवाएं और काफी तीखे एस्टेरॉयड होते हैं और उनके अंधाधुंध इस्तेमाल से लोगों को त्वचा की गंभीर समस्याएं हो रही हैं। इनमें से कई क्रीमें ऐसी हैं जिन्हें चेहरा साफ करने वाला (फेस क्लीनिंग) उत्पाद बता कर बेचा जा रहा है, लेकिन वे साधारण क्रीम न होकर असल में दवाओं की श्रेणी में आने वाले उत्पाद हैं, जिन्हें डॉक्टरी सलाह के साथ ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कई कंपनियां अपने विज्ञापनों में चेहरे के दाग-धब्बे मिटाने के दावे के साथ जिन क्रीमों का प्रचार कर रही हैं, वे असल में ‘प्रोडक्ट ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940' के तहत दवाओं की श्रेणी में आती हैं। साथ ही उन क्रीमों से कोई कंपनी दाग-धब्बे मिटाने का दावा नहीं कर सकती है। जाहिर है, यह पूरा मामला कंपनियों के बिक्री तंत्र द्वारा विज्ञापनों से खड़े किए गए गोरखधंधे का है, पर इसमें हमारे समाज की वह सोच भी ज्यादा जिम्मेदार है जिसमें चेहरे की साफ रंगत यानी गोरेपन को अहमियत दी जाती है।


समाज में इस चाहत का विस्तार जिस विज्ञापन और सिनेमा जगत से हुआ है, वहां कायम रंगभेदी मानसिकता के कुछ खुलासे कई अभिनेता खुद कर चुके हैं। हाल में प्रियंका चोपड़ा ने ऐसी बातें कही थीं, उनसे पहले अभिनेत्री नंदिता दास ने एक जगह लिखा था कि वे यह देख कर हैरान हैं कि सिनेमा जगत में शामिल होने आई सांवली अभिनेत्रियों की रंगत भी हर फिल्म, विज्ञापन, मैगजीन और टीवी पर कुछ समय में बदलने लगती है और धीरे-धीरे वे गोरी अभिनेत्रियों में गिनी जाने लगती हैं। साफ है कि वे सिने उद्योग की मानसिकता को बदलने के बजाय खुद उसके दबावों में घिर जाती हैं और सफलता के लिए कई तरह के सौंदर्योपचार लेते हुए खुद को गोरा व सुंदर बनाए रखने का जतन करने लगती हैं। हमारा समाज इस फिल्मी चकाचौंध से काफी प्रभावित है। जाति, वर्ग और रंग को लेकर हमारे समाज में कई पूर्वाग्रह बैठे हुए हैं, जिनके तहत साफ (गोरे) रंग वालों को सवर्ण समझा जाता है, उनसे मेलजोल बढ़ाया जाता है, जबकि सांवली रंगत को निचली जातियों से जोड़ते हुए उन्हें अछूत माना जाता है। हमारे समाज में स्त्रियों के संदर्भ में तो गोरी-सांवली रंगत कई नाकामियों का सबब बनती है, जब शादी से लेकर कैरियर तक के विकल्पों में चमड़ी का रंग उनकी अहमियत (औकात) तय करता है।

वैसे तो अगर स्त्रियां गोरी व सुंदर दिखना चाह रही हैं, तो यह उनकी मर्जी पर छोड़ा जाना चाहिए, पर अफसोस यह है कि बाजार और हमारा समाज गोरी चमड़ी को स्त्रियों की मजबूरी साबित करने पर तुला हुआ है। गोरा बनाने का दावा करने वाली एक क्रीम के विज्ञापनों में बड़े जोर-शोर से दावा किया जाता है कि क्रीम के इस्तेमाल से लड़की का रंग साफ हो जाएगा और तब वह लड़के (भावी दूल्हे) के साथ हर मामले में बराबरी पर होगी। ऐसे विज्ञापनों का ही असर है कि अब छोटे कस्बों में भी महिलाओं में ब्यूटी पार्लर जाने का शौक पनपने लगा है। इस वजह से महंगे सौंदर्य प्रसाधनों का बड़े पैमाने पर चलन हो गया है और आज उनका अरबों डॉलर का वैश्विक बाजार है। पहले जिन घरों में सिर्फ सिर में लगाने वाला तेल और बोरोलीन जैसी एकाध क्रीम होती थी, अब वहां भी कई तरह के शैंपू, कंडीशनर, डियो, सनस्क्रीन क्रीम आदि मौजूद दिखते हैं।

अब महिलाओं में ही नहीं, पुरुषों में भी गोरा व सुंदर दिखने की चाहत पैदा हो गई है। यही वजह है कि कि 2011 से 2016 के बीच सौंदर्य उत्पादों में सबसे ज्यादा बिक्री गोरा बनाने वाली क्रीमों की हुई है। ‘यूरोमानीटर' के मुताबिक रंगत सुधारने वाले सौंदर्य प्रसाधनों कारोबार इस अवधि में सालाना 21.3 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ा। चेहरे का रंग काला न पड़े, इसके लिए सनस्क्रीन क्रीमों की बिक्री इसी अवधि में हर साल करीब पंद्रह प्रतिशत की दर से बढ़ी। पर ये क्रीमें रंगत सुधारने में मदद करती हैं या फिर त्वचा रोग पैदा करने में, यह प्राय: कम ही लोग जानते हैं। कुछ समय पहले पर्यावरणवादी संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायर्नमेंट' (सीएसई) की तरफ से की गई एक जांच का समाचार देश भर के अखबारों में प्रकाशित हुआ था कि महिलाओं द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे सौंदर्य प्रसाधनों (कॉस्मैटिक्स) में तरह-तरह के जहरीले रसायन भरे हुए हैं, पर न तो उनकी नियमित जांच हो रही है और न उनकी बिक्री रोकी जा रही है।

सीएसई ने दावा किया था कि उसकी प्रयोगशाला में की गई जांचों में कई नामी कंपनियों के सौंदर्य प्रसाधनों में पारे (मरकरी), क्रोमियम और निकल जैसी भारी धातुओं का अंधाधुंध इस्तेमाल पाया गया है। जैसे, रंग गोरा बनाने वाली 44 फीसद क्रीमों में पारा तय की गई मात्रा के मुकाबले ज्यादा था और देश में बिकने वाली पचास प्रतिशत लिपस्टिक में क्रोमियम और निकल की मात्रा काफी ज्यादा थी। विभिन्न ब्रांडों की गोरेपन की क्रीमों, लिप बाम और त्वचा को उम्र के मुकाबले जवान दिखाने वाली क्रीमों में ये सारे तत्त्व अधिक मात्रा में और हानिकारक स्तर तक पाए गए। कहने को तो इन सारे तत्त्वों की मात्रा तय करने के लिए हमारे देश में कानून (ड्रग्स ऐंड कॉस्मैटिक एक्ट, रूल आॅफ इंडिया) है, जिसके मुताबिक बताई गई मात्रा से अधिक मात्रा में उपर्युक्ततत्त्वों का इस्तेमाल अवैध है और इसका उल्लंघन करने पर सजा और जुर्माने की व्यवस्था है। लेकिन ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा कि देश में गोरेपन की किसी क्रीम-पाउडर या लिपिस्टिक को प्रतिबंधित किया गया हो।

यह पहली बार है जब चुनिंदा फेयरनेस क्रीमों को डॉक्टरी पर्चे के साथ बेचने की हिदायत दी गई है। इस सलाह पर कितना अमल होगा यह वक्त ही बताएगा, पर भ्रूण-जांच के लिए अल्ट्रासाउंड मशीनों का चोरी-छिपे इस्तेमाल होने की घटनाएं साबित करती हैं कि ऐसी पाबंदियां का हर तोड़ बाजार और समाज के पास हमेशा मौजूद रहता है। इससे यही लगता है कि जिस तरह नकली दवाओं का गोरखधंधा देश में जारी है, उसी तरह महिलाओं को गोरा और सुंदर बनाने का दावा करने वाले उत्पादों की बिक्री भी धड़ल्ले से होती रहेगी। यह बात और है कि बेचारी महिलाओं को पता ही नहीं है कि खुद के चेहरे-मोहरे को सुंदर व आकर्षक दिखाने के लालच में वे जिन चीजों पर पैसा फूंक रही हैं, वे कुछ देर के लिए ऊपरी चमक-दमक भले ही ला दें, लेकिन उनसे देर-सबेर त्वचा कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं।