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गोली मार मेन्यू को

पटना, [शशिरमन]। पटना की सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के हुजूम में जहां हर पांचवीं गाड़ी लाल-नीली बत्ती वाली होती है, वहीं एक ओर नंगे बदन, बिखरे बालों के साथ बच्चे गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल में पढ़ने आते हैं। कहने को उन्हें मिलता है मिड डे मील, लेकिन सरकार की तय मेन्यू की जगह उन्हें मिलती है, पानी में पकी खिचड़ी और दाल पकती है साहबों की रसोई में। ऐसे स्कूलों की खासियत यह होती है कि यहां पढ़ाई के बाद हमारे बच्चों को मुफ्त में भोजन भी दिया जाता है।

बेली रोड आशियाना मोड़ पर है राजकीय प्राथमिक विद्यालय, खाजपुरा। इस स्कूल की दूरी सचिवालय, जहा सरकारी योजनाएं बनती हैं, से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर है। यहा से निकली बच्चों केमिड डे मील की योजना स्कूल पहुंचते-पहुंचते किसी और साहब की रसोई में पहुंच जाती है। स्कूल रजिस्टर के मुताबिक चालीस बच्चों के नाम दर्ज हैं और सरकारी मेन्यू के अनुरूप इन बच्चों को हर दिन दोपहर में पढ़ाई के बाद पौष्टिक भोजन दिया जाना है। कभी राजमा-चावल, कभी अंडा-रोटी, कभी खिचड़ी।

पर हकीकत तो काफी कड़वी है। दैनिक जागरण की आई नेक्स्ट टीम ने अपने पांच दिन के सर्वे में पाया कि पाच दिन में बच्चे नहीं बदले, न उनके कपड़े और न ही बदला उनका मिड डे मील। राजमा और अंडा खाते बच्चे कभी नहीं मिले। न ही रोटी-सब्जी को निगलते बच्चे नजर आए। हर रोज एक कलछुल खिचड़ी हर रोज एक कलछुल खिचड़ी में पेट की आग को ठंडा करते बच्चे मिले। ललचाए मासूमों की इस उम्मीद में टीचर जी के पास थाली बढ़ती थी कि शायद आज दो कलछुल खिचड़ी मिल जाए. लेकिन क्या मजाल जो कलछुल की गिनती में चूक हो जाए। भले ही पहाड़े और टेबुल याद कराने में टीचर दीदी को चूक हो जाए, लेकिन खिचड़ी की कलछुल तो बच्चों की थाली में बस एक ही गिरेगी।

जबकि सच्चाई है कि गवर्नमेंट ने बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य बनाने के लिए छह दिनों का अलग-अलग मेन्यू तय किया है।

डेढ़ किलो में 40 बच्चे व्यवस्था यह बनी थी कि बच्चा पढ़े भी और उसका शारीरिक मानसिक विकास भी हो, लेकिन हो रहा है कुछ और। एक टीचर से यह सवाल पूछने पर कि कि आपके स्कूल में चालीस बच्चे हैं तो उनके लिए कितनी खिचड़ी बनाती हैं। जो जवाब आया वो चौंकाने वाले थे। मैडम जी ने हमें जानकारी दी कि डेढ़ किलो चावल की खिचड़ी। चालीस बच्चे और डेढ़ किलो चावल कैसे चलेगा काम? लेकिन हकीकत जो दिखाई दे रही थी उससे भी अलग हटकर थी। इस विद्यालय में काम करने वाली आगनबाड़ी सेविका निर्मला कुमारी ने बताया कि कई बार ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि दो-चार दिनों तक हमारे पास अनाज ही नहीं होता। बच्चों को क्या दिया जाए? लेकिन समस्या का निदान भी एक दो दिन में निकल आता है. हमने पूछा क्या, तो जवाब आया अरे जब बच्चा ही नहीं आएगा तो कैसा मिड डे मील और किसके लिए खाना..। फिर जब अनाज आता है तो हम बच्चों के घर जाते हैं और वापस पुराना ढर्रा शुरू हो जाता है। बच्चे आते और खाते हैं, थोड़ा पढ़ते भी हैं..।