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गौरी लंकेश की हत्या किसने की?-- योगेन्द्र यादव

जबसे उनकी कायराना हत्या की खबर आयी, तबसे बार-बार यह सवाल पूछ रहा हूं. किसी मौत पर हमारी प्रातिक्रिया इस पर निर्भर करती है कि हम मृतक से कितना नजदीकी महसूस करते हैं. यह जरूरी नहीं कि हम मृतक को जानते हों. जिस सड़क से हम रोज गुजरते हैं, जिस ट्रेन से हम रोज सफर करते हैं, उस पर होनेवाले हादसे हमें गहराई से छूते हैं. 'इसकी जगह मैं हो सकता था', यह विचार किसी दूर के हादसे को हमारे बहुत नजदीक खड़ा कर देता है.

शायद इसलिए गौरी लंकेश की हत्या की खबर ने ज्यादा गहरा असर किया. मैं उनसे कई बार मिला था. पिछले साल मैंगलोर में अंतिम मुलाकात हुई थी. गांधी जयंती पर एक सम्मेलन में हम साथ थे. सोच रहा था, जब इस महीने मैंगलोर जाऊंगा, तब उनसे फिर मुलाकात होगी, इसलिए उनकी हत्या का समाचार ज्यादा विचलित करनेवाला था.

कोई कैसे इतनी संवेदनशील और सहज महिला से इतनी घृणा कर सकता है? कहीं कोई निजी रंजिश का मामला तो नहीं था? कहीं इसका संबंध उनके विरुद्ध बीजेपी नेताओं द्वारा अदालत में मानहानि के मुकदमे से तो नहीं है? इन प्रशनों का पक्का उत्तर देना हमारे बस में नहीं है. यूं भी हत्या के मामलों को अखबार के पन्नों या टीवी स्टूडियो की चर्चा में निपटा देना कोई समझदारी का काम नहीं है. हत्या के सुराग इकट्ठा करना, आरोपियों की शिनाख्त करना और उन्हें सजा दिलाना पुलिस का काम है.

हम एक बड़े सवाल पर सार्थक चर्चा कर सकते हैं. किसी भी हत्या के तीन तरह के गुनहगार होते हैं- वो जिनके हाथों से हत्या होती है, वो जो हत्या की साजिश रचते है और वो जो हत्या का माहौल बनाते हैं. पहले और दूसरे गुनहगारों की शिनाख्त करना पुलिस का काम है. लेकिन, अगर तीसरे तरह के गुनहगार की पहचान हम नहीं करेंगे, तो हम अपना फर्ज निभाने में चूक करेंगे. अगर इस सवाल पर चुप रहेंगे, तो आगे और हत्याओं का रास्ता साफ करेंगे. गौरी लंकेश सिर्फ एक व्यक्ति नहीं एक विचार हैं. उनकी हत्या जिसने भी की हो, उसके पीछे एक व्यवस्था थी, एक विचार था. हत्यारे व्यक्ति की शिनाख्त चाहे जब भी हो ,लेकिन हत्यारे विचार और हत्यारी व्यवस्था की शिनाख्त हमें ही करनी है.

गौरी लंकेश पत्रकार थीं. कन्नड़ में छपनेवाले एक समाचार पत्र 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. इस अनूठे पत्र की शुरुआत उनके पिताजी पी लंकेश ने सन् 1980 में की थी. लंकेश पत्रिके ने शुरू से ही एक आंदोलनकारी तेवर के साथ पत्रकारिता की है. सत्ता प्रतिष्ठान को बेनकाब करना और हाशिये की आवाज को बुलंद करना ही इसका उद्देश्य रहा है. लंकेश पत्रिके ने प्रदेश और देश मैं सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर आवाज उठायी. इसके चलते बीजेपी और आरएसएस के लोगों से उनका खुला टकराव चलता रहता था. बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा किया था और अदालत में जीत हासिल की थी. उस मामले की अपील हाइकोर्ट में लंबित थी. गौरी कर्नाटक में सांप्रदायिकता के विरोध में अभियान चला रही थीं और उन्हें हिंदूवादी संगठनों से धमकियां मिलती रहती थीं. अपने अंतिम इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि अब हत्या की धमकियां मिलना आम बात हो गयी है. ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक है कि इस हत्या के पीछे कहीं न कहीं हिंदू धर्म के नाम पर दबंगई करनेवाले विचार और व्यवस्था की भूमिका है.

यह कोई अकेली घटना नहीं है. इससे पहले महाराष्ट्र में प्रोफेसर दाभोलकर और श्री पनसारे और कर्नाटक में प्रोफेसर कुलबर्गी की हत्या हो चुकी है. वे सब विज्ञान और तर्कशीलता के समर्थन में अभियान चला रहे थे. उन्हें भी हिंदुत्व के ठेकेदारों से चुनौती मिली. उनकी हत्या के दोषियों को आज भी सजा नहीं मिली है. पहली नजर में गोरी लंकेश की हत्या भी इसी कड़ी का हिस्सा लगती है, कर्नाटक की कांग्रेस सरकार का दायित्व है कि वह इसकी पूरी जांच करवाये.

गौरी लंकेश केवल पत्रकार नहीं थीं. वे कर्नाटक की एक अनूठी वैचारिक परंपरा की वारिस थीं. कर्नाटक के बाहर के लोग इस परंपरा से उतने परिचित नहीं हैं. दरअसल, कर्नाटक के साहित्यकारों पर राम मनोहर लोहिया के विचारों का गहरा प्रभाव था. उनसे प्रेरणा लेकर शिमोगा शहर के तीन लेखकों- यूआर अनंतमूर्ति, पूर्णचंद्र तेजस्वी और पी लंकेश- ने कन्नड़ साहित्य में एक नयी धारा का सूत्रपात किया. इनके लेखन में जाति व्यवस्था का विरोध, औरत के साथ गैरबराबरी का प्रतिकार, और किसान आंदोलन के साथ सहकार मुखर था. इस नयी परंपरा ने कन्नड़ साहित्य पर गहरी छाप छोड़ी. लंकेश पत्रिके इसी विरासत की वाहक रही है.

यह पृष्ठभूमि गौरी लंकेश की हत्या को समझने के लिए प्रासंगिक है. अगर लंकेश पत्रिके अंग्रेजी में निकलती तो उनके विरोधियों को कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन, वह तो सामान्य की भाषा में छपती थी, उनके मुहावरे में लिखी जाती थी और हिंदू संस्कृति के प्रतीकों का खुलकर प्रयोग करती थी. कर्नाटक में बरहवीं सदी के महान समाज सुधारक बसवण्णा के समय से ही हिंदू समाज की गैरबराबरी और कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष की लंबी परंपरा रही है. यह परंपरा हिंदुत्व के ठेकेदारों को बहुत विचलित करती है. हमारी सांस्कृतिक परंपराओं में रची-बसी ऐसी पत्रकार के तीखे सवालों का जवाब देना कहीं ज्यादा मुश्किल है. हिंदू सांप्रदायिकतावादियों को नेहरू की हत्या में दिलचस्पी नहीं थी, उनके लिए गांधी की हत्या जरूरी थी. कहीं न कहीं लंकेश की हत्या के सुराग भी यहीं छुपे हैं. उसकी हत्या उन ताकतों के लिए जरूरी थी, जो हिंदू धर्म की सांस्कृतिक विरासत पर राजनीतिक कब्जा करना चाहते हैं, लेकिन हिंदू धर्म और संस्कृति की सच्ची विरासत का सामना करने से डरते हैं.

शरद मास आरंभ होने से कुछ ही दिन पहले गौरी लंकेश की हत्या में एक और गहरा संकेत छिपा है. गौरी मां दुर्गा का ही एक और नाम है, वही दुर्गा जो काली के नाम से भी जानी जाती हैं. यह महीना मां दुर्गा के घर आगमन और वापिस लौटने का समय है. नवरात्रि और दुर्गा पूजा से पहले गौरी की हत्या में कहीं एक घबराहट दिखती है. उधर लंकेश यानी रावण भगवान शिव के भक्त के रूप में पूजे जाते हैं. देशभर में एक तरह का हिंदू धर्म चलानेवाले इस बात को पचा नहीं पाते कि इसी देश में शिव भक्त रावण की पूजा भी करते हैं. गौरी यानि दुर्गा अपने दूसरे रूप में पार्वती हैं, शिव की संगिनी. कहीं ऐसा तो नहीं कि शिव और पार्वती के इस संगम और नारी शक्ति से घबराई हुई व्यवस्था का गौरी लंकेश की हत्या में हाथ हो!

प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
yogendra.yadav@gmail.com