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ग्राम स्वराज पर पुनः चिंतन-- मणीन्द्र नाथ ठाकुर

वर्तमान सरकार ने ग्रामीण विकास के लिए एक नया प्रयास किया था. सांसदों को एक-एक गांव गोद लेने की सलाह दी गयी थी. उनसे कहा गया था कि इस गांव को विकास का प्रतिमान बनाया जाये.

लेकिन, आखिरकार यह भी जुमला ही प्रतीत हो रहा है. पिछली सरकार के समय राष्ट्रपति कलाम साहब ने भी एक सपना देखा था कि ग्रामीण इलाकों में शहरों की सुविधाएं दी जाएं. लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं आया. दरअसल, सवाल यह पूछना होगा कि क्या शहरी सभ्यता में गांव की नियति उसकी अंत्येष्टि में ही है? ग्रामीण सभ्यता को बचा पाना शायद मुश्किल ही है. क्या फर्क है दोनों सभ्यताओं में?

यदि आप गांधी को पढ़ें, तो बात समझ में आने लगती है. नगर पहले भी थे, लेकिन वे ग्रामीण सभ्यता के नगर थे. आज का गांव शहरी सभ्यता का गांव है. आज का शहर बाजार है, उसके रिश्ते भी बाजारू हैं. प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन ने कभी इससे खिन्न होकर लिखा था ‘एहन शहर के हमर प्रणाम, जकर हर घर में छै दुकान' यानी इस सभ्यता में घरेलू रिश्ते भी धीरे-धीरे बाजारू हो जाते हैं.

हाल ही में मुझे अपने एक शिक्षक के लिखे पुस्तक विमोचन में बिहार के एक शहर अररिया जाने का मौका मिला. उन्होंने अररिया का एक संक्षिप्त इतिहास लिखने का प्रयास किया है. यह पुस्तक सत्तर साल के एक बुद्धिजीवी का उस शहर से, उसकी मिट्टी से मोह का प्रतीक है. उनके पुराने छात्रों का उनके प्रति स्नेह देखकर अद्भुत लगा. अपनी जवानी में एक छोटे से कमरे में रहते थे और जिला स्कूल पूर्णिया में अंग्रेजी पढ़ाते थे.

उस खंडहरनुमा कमरे में इतनी ताकत थी कि असम के एक बड़े पुलिस अधिकारी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक शिक्षक और अनेक ऐसे छात्रों को पिछले पैंतीस वर्षों से उनसे और आपस में जोड़े रखा. उस सभ्यता के शिक्षकों में यह क्षमता है, जिनके लिए शिक्षक होना केवल वेतनभोक्ता कर्मचारी होने से कहीं ज्यादा एक गुरु होना है.

मुझे पुस्तक विमोचन का यह कार्यक्रम ग्रामीण सभ्यता के शहर की आखिरी घटना जैसी दिखा रही थी. अब शहर बड़ा होता जायेगा, लोग अजनबी होते जायेंगे. फिर अपराध होगा, समाज का अवमूल्यन होगा.

राज्य सरकार पुलिस को मजबूत करेगी, लेकिन अपराध भी उसी गति से बढ़ता जायेगा. अररिया और सीमांचाल के अन्य शहरों की एक बड़ी खासियत है कि यहां अनेक संस्कृतियों का संगम है. यहां सिख, ईसाई, हिंदू, मुस्लिम, आदिवासी, पठान, मारवाड़ी, न जाने कितने ही तरह के लोग रहते हैं. उतनी ही भाषाएं हैं और उनमें रचनाएं भी हुई हैं. हिंदी, उर्दू, बांग्ला, फारसी, मैथिली, सूरजापूरी, संस्कृत, न जाने कितनी भाषाओं में रचनाएं हुई हैं और कितनी ही लोकपरंपराएं हैं.

मजे की बात यह है कि ये संस्कृतियां आपस में इस तरह से घुली-मिली हैं कि आप इनके बीच आसानी से भेद-भाव नहीं कर सकते हैं. इन सबका एक साथ जीवित रहना शायद इसलिए भी संभव है कि यह इलाका अभी शहरी विकास के मापदंड पर बहुत नीचे है.

ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि उनमें आपस में मतभेद नहीं है या फिर ग्रामीण समाज शोषण मुक्त है या रहा होगा. लेकिन उन मतभेदों को मिटाने का, उसे कम करने का ‘पंच परमेश्वर' उनका अपना तकनीक निश्चित रूप से रहा हाेगा.

गांधी उस सभ्यता की कहावतों को बचाना चाहते थे और उसकी कमियों को दूर करना चाहते थे. अररिया में मुझे कुछ ऐसे लोग भी मिले, जो इस प्रयास में लगे हैं. एक एेसा ग्रुप है, जिसमें आइआइटी, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, कॉर्नेल विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, आंबेडकर विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रा रह चुके युवक-युवतियां शामिल हैं. इन सब लोगों ने ग्रामीण समाज की सेवा का व्रत लिया है.

गांधी शायद राजनीति को भी सेवा के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. मुझे इस छोटे से युवा दल की आंखों में वही सपना दिखा. हाल के दिनों में ऐसे कई संगठनों से मेरा संपर्क हुआ है, जिनमें इन संस्थाओं से शिक्षित छात्र अपनी मोटी तनख्वाह वाली नौकरियां छोड़कर अपना सहयोग दे रहे हैं. मैं अक्सर उनसे पूछता हूं कि ऐसा निर्णय उन्होंने क्यों लिया? उनका उत्तर मुझे आश्वस्त करता है कि अभी हमारी सभ्यता में काफी जान बची हुई है.

इसमें कोई शक नहीं कि उनका प्रयास सराहनीय है. लेकिन, शायद ग्रामीण विकास पर पुनः चिंतन की जरूरत है. इस नये प्रयास में राजनीतिक चेतना का अर्थ केवल लोगों को उनके अधिकारों का बोध कराना न हो, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रयोग भी शामिल हों. भारत में ऐसे कई प्रयोग हो भी रहे हैं, लेकिन उनका आपस में कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के प्रयोग को ही लें. ग्रामीणों और कामगारों के इस आंदोलन ने छत्तीसगढ़ी भाषा का एक विद्यालय बनाया, जिसमें स्थानीय ज्ञान को शामिल करते हुए पाठ्यक्रम बनाया गया.

लोगों को खेल, तकनीकी, स्वास्थ्य सब की शिक्षा दी गयी. शंकर गुहा नियोगी अस्पताल बनाया गया. नब्बे के दशक में जब मैं वहां शोध के सिलसिले में गया था, तब उस अस्पताल को देखकर आश्चर्यचकित था. उसमें सर्जरी की फीस 50-60 रुपये ही हुआ करती थी. ऐसा ही एक प्रयोग पलामू जिला के बरवाडीह में देखने को मिला. प्रसिद्ध मृदा वैज्ञानिक पीआर मिश्रा ने इस आदिवासी इलाके में सहकारी खेती का अद्भुत नमूना पेश किया था.

ग्रामीण संस्कृति काे बचाने का यह सराहनीय प्रयास था. एक प्रयोग बेगूसराय के गोदरगांवा का विप्लवी पुस्तकालय भी है, जिसमें केवल पुस्तकें ही नहीं हैं, बल्कि नाटक समारोह, साहित्य सम्मेलन और कई बौद्धिक गतिविधियां भी वहां होती हैं. इसके अलावा राजेंद्र सिंह का अलवर प्रयोग भी है, जिसमें जनसहयोग से नदियों को पुनर्जीवित किया गया. अब जरूरत है इन सबसे आगे जाकर ग्राम स्वराज के नये प्रयोग करने की, जो राजनीतिक भी हो, सामाजिक और आर्थिक भी हो.

इस तरह के प्रयोग के लिए उन सब लोगों को जोड़ने की जरूरत है, जो गांव से बाहर रहने लगे हैं, ज्ञान-विज्ञान में शिक्षित हुए हैं. उन शिक्षकों में यह ऊर्जा पैदा करनी होगी कि अपने छात्रों को उनके समाज से जोड़ सकें. निश्चित रूप से उनके मन में भी अपने गांव-समाज का इतिहास लिखने और गढ़ने की चाहत होगी. अब सवाल है कि क्या सांसदों में ऐसी चाहत काे विकसित किया जाना संभव है?