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घरेलू कामगारों की लड़ाई- सुभाषिनी अली

देवयानी खोबरागड़े के नाम से पूरा देश परिचित हो गया है। अमेरिकी सरकार की बदतमीजी की भर्त्सना संसद से लेकर चौराहे तक हुई है। दूसरे देशों के प्रतिनिधियों का हवाई अड्डों पर अपमान करना, दूसरे मुल्कों में घुसकर वहां के ऐसे नागरिकों का अपहरण कर लेना, जिन्हें वे अपने लिए खतरनाक मानते हैं, दूसरे देशों के सामान्य नागरिकों पर ड्रोन हमले कर जान लेना, पूरी दुनिया के नेताओं और नागरिकों के मोबाइल फोन और इंटरनेट की जासूसी करना और हमारे देश की राजनयिक को उसकी बच्ची के स्कूल के सामने गिरफ्तार कर लेना- ये सब अमेरिकी घमंड के उदाहरण हैं।

लेकिन देवयानी के पक्ष में मचे कोहराम में संगीता रिचर्ड्स के पक्ष की अनदेखी कर दी गई है। वह देवयानी की घरेलू कामगार थी, जिसे वह अपने साथ भारत से अमेरिका ले गई थीं। उन्हें लगा होगा कि वह संगीता पर एहसान कर रही हैं। अच्छे वेतन के साथ उन्हें विदेश जाने का मौका दे रही हैं। यह 'अच्छा वेतन' भारत में घरेलू कामगारों को मिलने वाले वेतन के मुकाबले वाकई बढ़िया था, लेकिन वह अमेरिका में घरों में काम करने वाले लोगों के लिए तय मजदूरी से बहुत कम था।

खोबरागड़े के साथ हमदर्दी जताने का मतलब यह नहीं कि हम संगीता की कहानी को अनदेखा कर दें। संगीता की कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह केवल उसकी ही नहीं, बल्कि उन करोड़ों औरतों और पुरुषों की कहानी है, जो दूसरे के घरों में काम करते हैं, लेकिन जिनके काम के घंटे, वेतन, इलाज, छुट्टी इत्यादि तमाम फैसलों को उनके मालिकों के रहमो करम पर छोड़ दिया गया है।

हर साल घरेलू कामगारों, खास तौर से महिलाओं और बाल कामगारों के साथ, होने वाले अत्याचार के किस्से उजागर किए जाते हैं। विगत मार्च में वड़ोदरा में 93 घरेलू कामगारों का सर्वेक्षण महाराज शिवाजी राव विश्वविद्यालय के लिए प्रो. उमा जोशी और नीता ठक्कर ने किया था। इनमें से आधी कच्ची बस्तियों में रहनेवाली थीं और ज्यादातर पूरी तरह अशिक्षित।

93 में से 73 महिलाएं अपनी मजदूरी से अपने पूरे परिवार का पालन-पोषण कर रही थीं, जबकि 47 का कहना था कि बीमारी की हालत में उन्हें थोड़ा आराम करने की अनुमति मिल जाती है, लेकिन 44 ने यह भी कहा कि उनकी किसी प्रकार की देखभाल नहीं होती थी। केवल 27 को कुछ दवा दी जाती थी और 10 को अस्पताल में दिखाया जाता था। 10 कामगारों ने कहा कि उन्हें बचा-खुचा खाना दिया जाता है और तीन-चार ने छुआछूत की शिकायत भी की।

साफ है कि घरेलू कामगारों के वेतन बहुत ही असमान हैं। जो औरतें झाडू-पोछा, बरतन मांजने और कपड़े धोने का काम कई घरों में करती हैं, उन्हें सौ से चार सौ रुपये तक हर घर से औसतन मिल जाता है। जो घरों में रहती हैं, उन्हें डेढ़ से चार हजार रुपये तक मिल जाते हैं।

कहने को उन्हें रहने की जगह, खाना और कपड़ा भी मिलता है, लेकिन अलग से कमरा तो कम को ही नसीब होता है। इनके काम के घंटों की सीमा नहीं है, छुट्टी अनिश्चित है, लंबी छुट्टी के पैसे काटे जाते हैं और इलाज का निश्चित प्रावधान नहीं है।

देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता है। उन्हें दया के पात्र के रूप में देखा जाता है। इन कामगारों को आलसी, गैरजिम्मेदार, फायदा उठाने वाला और बेइमान बताया जाता है, पर जिस दिन ये काम पर नहीं आते या काम छोड़कर चले जाते हैं, उस दिन घरवालों की हालत देखने वाली होती है। वैसे में न बच्चों को तैयार किया जा सकता है, न उन्हें समय से स्कूल भेजा जा सकता है, न ढंग का खाना पकता है, न कपड़े धुलते हैं, न घर की सफाई होती है, न ही घर की मालकिन समय पर काम को जा सकती है।

इन कामगारों की संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है। संयुक्त परिवार समाप्त होने और पति-पत्नी, दोनों के काम करने के कारण बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार के सदस्य उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए ऐसे कामगारों की मांग तेजी से बढ़ रही है, दूसरी तरफ देश में व्याप्त गरीबी और बेरोजगारी उनकी कतारों में रोज नए सदस्य बढ़ा रही हैं। कामगारों के लिए आज तक कारगर कानून का न होना आश्चर्य की बात है। याद रखना चाहिए कि विदेशों में काम करने वाले भारतीय मूल के घरेलू कामगारों के अधिकारों और हितों की रक्षा की जिम्मेदारी भी देवयानी खोबरागड़े जैसी अधिकारियों पर है।

बहरहाल, इन कामगारों को कानूनी सुरक्षा देने के काम को अब टाला नहीं जा सकता। बालश्रम तो गैरकानूनी है ही, यौन शोषण के खिलाफ बने कानून की परिधि में अब घरेलू कामगारों के साथ काम की जगह पर होने वाले यौन शोषण को भी ला दिया गया है। उनके काम की शर्तों पर भी कानून बनाने की मांग बढ़ रही है। 2008 में संसद में घरेलू कामगार के पंजीकरण और सामाजिक सुरक्षा और कल्याण का कानून पारित किया जा चुका है, पर अभी तक केंद्र सरकार ने इसका शासनादेश नहीं निकाला है और विभिन्न राज्यों ने भी इस पर अपनी सहमति नहीं दी है। केरल जैसे कुछ ही राज्यों ने अपने यहां काम करने वाले घरेलू कामगारों के लिए कुछ कानून बनाए हैं, जबकि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, झारखंड और बिहार में उनकी� सुरक्षा के लिए कुछ नियम पारित किए गए हैं।

कानून का बनना एक बात है, उसकी आत्मा और औचित्य को स्वीकार करना ज्यादा कठिन बात है। घरेलू कामगारों के प्रति हमने अब तक जिस सोच का परिचय दिया है, वह हमारी हकीकत का पर्दाफाश करता है। इसीलिए उनकी हर तरह से सुरक्षा के लिए कानून की आज इतनी आवश्यकता है।