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घाटे के अर्थशास्त्र पर ई-कॉमर्स- राजीव रंजन झा

भारत में ई-कॉमर्स का कारोबार काफी तेजी से फैलने लगा है, इसमें कोई संदेह नहीं है. ई-कॉमर्स यानी इंटरनेट की मदद से व्यापार चलाना. पहले यह काम कंप्यूटर-लैपटॉप के जरिये इंटरनेट पर हो रहा था, अब मोबाइल पर भी एप्प के जरिये होने लगा है. इस क्षेत्र में भारतीय सफलता की सबसे बड़ी कहानियां फ्लिपकार्ट और स्नैपडील की रही हैं. हाल में पेटीएम ने भी खुद को बड़ी तेजी से आगे बढ़ाया है. इन कंपनियों के तेजी से बढ़ते कारोबार के बीच इन्हें लगातार बड़े निवेशक मिलते गये और इनके मूल्यांकन का ग्राफ भी चढ़ता गया.

 

पिछले साल जुलाई में फ्लिपकार्ट ने 70 करोड़ अमेरिकी डॉलर यानी साढ़े चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की पूंजी वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों से जुटायी थी और इस लेन-देन में कंपनी का मूल्यांकन 15.2 अरब अमेरिकी डॉलर यानी एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा रखा गया था. इसकी तुलना में किशोर बियानी के फ्यूचर समूह की प्रमुख कंपनियों- फ्यूचर रिटेल, फ्यूचर कंज्यूमर इंटरप्राइजेज और फ्यूचर लाइफस्टाइल का कुल बाजार पूंजीकरण 10,000 करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा है. इनमें भी फ्यूचर कंज्यूमर इंटरप्राइजेज को खुद किशोर बियानी रिटेल कंपनी नहीं, बल्कि एफएमसीजी कंपनी मानते हैं. केवल फ्यूचर रिटेल का बाजार पूंजीकरण 5,278 करोड़ रुपये ही है. 

आखिर इनके मूल्यांकन में इतना अंतर क्यों आ रहा है? यह इनके तेजी से बढ़ते कारोबार की वजह से ही है. अंतरराष्ट्रीय ब्रोकिंग फर्म मॉर्गन स्टैनले ने फरवरी में एक रिपोर्ट में आकलन किया है कि साल 2015 के दौरान ई-कॉमर्स बाजार की तीन बड़ी कंपनियों- फ्लिपकार्ट, स्नैपडील और अमेजन की कुल ग्रॉस मर्केंडाइज वैल्यू (जीएमडब्लू) यानी इनके द्वारा बेचे जानेवाले सामानों की कुल कीमत 13.8 अरब डॉलर की हो गयी, जबकि दूसरी ओर खुदरा दुकानों के जरिये बिक्री करनेवाली शीर्ष 10 कंपनियों की कुल बिक्री 12.6 अरब डॉलर की रही. ई-कॉमर्स बाजार के बड़े खिलाड़ी अब संगठित खुदरा कारोबार की शीर्ष कंपनियों से काफी आगे निकल गये हैं.

ई-कॉमर्स के खिलाड़ी न केवल जमीनी कारोबार वाली कंपनियों से आगे निकल गये हैं, बल्कि उनके बढ़ने की रफ्तार भी काफी तेज है. मतलब यह है कि आनेवाले वर्षों में ई-कॉमर्स और खुदरा स्टोर वाली कंपनियों के कारोबार का अंतर काफी बढ़ने की संभावना है. इस समय ही भारत की इंटरनेट जनसंख्या विश्व में दूसरे स्थान पर है. मॉर्गन स्टैनले की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में इंटरनेट की पहुंच 2015 के 32 प्रतिशत से बढ़ कर 2020 तक 59 प्रतिशत तक होने की उम्मीद है. इसका सीधा मतलब होगा- इंटरनेट के जरिये होनेवाली खरीद-बिक्री का बढ़ना. अब तक बड़े शहरों में केंद्रित रहा ई-कॉमर्स अब छोटे शहरों की ओर भी पांव पसारने लगा है. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मॉर्गन स्टैनले ने साल 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स के संभावित कुल कारोबार का आकलन बढ़ा दिया है. पहले इसका अनुमान था कि 2020 तक भारत में ई-कॉमर्स 102 अरब डॉलर का होगा, मगर अब इसने ताजा अनुमान लगाया है कि यह तब तक 119 अरब डॉलर का हो जायेगा.

इस चमकदार तसवीर का दूसरा पहलू यह है कि ई-कॉमर्स कंपनियों का घाटा भी सुरसा के मुंह की तरह फैलता जा रहा है. यह थोड़ा आश्चर्यजनक लग सकता है कि जब धंधा इतनी तेजी से फैल रहा हो, तो कंपनी भला घाटे में कैसे होगी! मगर सच यही है कि तेजी से विस्तार के लिए कंपनियों का अपने वितरण-तंत्र पर होनेवाला निवेश, कर्मचारियों की बढ़ती संख्या, आक्रामक ढंग से विज्ञापन पर खर्च और खुद अपनी जेब से पैसा लगा कर ग्राहकों को छूट देने की वजह से ये कंपनियां घाटे में जा रही हैं. 

उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2014-15 में फ्लिपकार्ट ने 11,050 करोड़ रुपये की आमदनी पर 1,933 करोड़ रुपये का घाटा दर्ज किया है, जो पिछले वित्त वर्ष की तुलना चौगुना है. यानी, जिस रफ्तार से कंपनी का कारोबार बढ़ रहा है, उससे कहीं तेजी से इसका घाटा बढ़ रहा है. जाहिर है कि इतना बड़ा घाटा फ्लिपकार्ट या इसके जैसी अन्य ई-कॉमर्स कंपनियां तभी उठा सकती हैं, जब इनके पास वेंचर कैपिटल और प्राइवेट इक्विटी निवेशकों के पास से लगातार नयी पूंजी आती रहे. एक आकलन के मुताबिक, अब तक फ्लिपकार्ट ने ऐसे निवेशकों से 3.5 अरब डॉलर, स्नैपडील ने 1.74 अरब डॉलर और पेटीएम ने 0.59 अरब डॉलर की पूंजी जुटायी है. इस फरवरी में ही स्नैपडील ने 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर जुटाये हैं, जिसमें उसका मूल्यांकन 6.5 अरब डॉलर आंका गया.
इन सबके बीच यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या ई-कॉमर्स केवल एक बुलबुला है, जो देर-सबेर फटनेवाला है? मॉर्गन स्टैनले ने फ्लिपकार्ट में अपने निवेश का मूल्यांकन हाल ही में खुद 15 अरब डॉलर से घटा कर 11 अरब डॉलर कर दिया. ऐसे में फ्लिपकार्ट के घाटे वाले कारोबारी मॉडल की नकल करनेवाली कंपनियों का क्या कोई भविष्य होगा? बड़े वैश्विक निवेशकों के समर्थन पर चलनेवाली और भारतीय ई-कॉमर्स में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी वाली फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी कंपनियों पर तो शायद अस्तित्व का संकट नहीं आयेगा. मगर छोटी कंपनियों के लिए लगातार नयी पूंजी जुटाना संभव नहीं होता, और आगे घाटे उठाने के लिए हाथ में पैसा नहीं होता. 

दरअसल घाटे का यह अर्थशास्त्र तभी तक चल सकता है, जब तक उस घाटे की रकम देने के लिए नया निवेश आता रहे. ई-कॉमर्स क्षेत्र की ऐसी कितनी ही स्टार्टअप यानी नवांकुर कंपनियां हैं, जो घाटे के जाल में फंसने और नया निवेश नहीं मिलने के बाद न घर की रहीं न घाट की. कुछ कंपनियों को अपने प्रतिद्वंद्वियों के हाथों बिक जाने के लिए मजबूर होना पड़ा, तो कुछ कंपनियों को अपने कामकाज का कुछ हिस्सा बंद कर देना पड़ा. एक महत्वपूर्ण आकार हासिल कर चुकी बड़ी कंपनियों की तो अच्छी-बुरी खबरें आती भी हैं, पर गुमनाम ढंग से चुपचाप नाकामी के अंधेरे में खो जानेवाली छोटी-छोटी नवांकुर कंपनियों की तो कोई गिनती भी नहीं होगी.