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घोषणापत्रों में नजरंदाज होते किसान

चुनाव अभियान पूरे देश में जोर-शोर से जारी है, लेकिन इसमें न किसान कहीं दिख रहा है और न किसान की चिंता। जहां भारत की लगभग 60 प्रतिशत आबादी कृषि और उससे जुड़े उद्योगों पर निर्भर है, वहां उस तबके की उपेक्षा हैरान करने वाली है। यह भी खबर आ रही है कि इस बार प्रमुख पार्टियों का ध्यान उन 250 सीटों पर ही है, जिनके बारे में माना जा रहा है कि ये सीटें सोशल मीडिया द्वारा प्रभावित हैं। दोनों दलों ने अपनी ऊर्जा इन्हीं सीटों पर ही ज्यादा लगाई है। इसलिए देश का पेट पालने वाले किसानों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा, जबकि एक तथ्य यह भी है कि पिछले सात साल में देश के पांच लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश के लगभग 42 प्रतिशत किसान खेती-बाड़ी छोड़कर अन्य उद्योगों में जाना चाहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि खेती में अब पहले जैसा लाभ नहीं रह गया है। पंजाब इसका ज्वलंत उदाहरण है, जहां अधिक से अधिक पैदावार पर जोर दिया गया और इसके बावजूद एक किसान परिवार की औसत मासिक आय 4,960 रुपये प्रतिमाह तक ही पहुंच पाई है। वर्ष 2005 की नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, पूरे किसान परिवार के लिए सभी स्रोतों को मिलाकर प्रतिदिन की आय मात्र 165 रुपये थी। जहां राष्ट्रीय स्तर पर हर कर्जदार किसान परिवार का औसत बकाया कर्ज 25,895 रुपये था, वहीं पंजाब में औसत बकाया कर्ज 63,529 रुपये का था।

सघन खेती ने कृषि के आधार, जैसे मिट्टी, पानी, जैव-विविधता और जलवायु को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से हमारी मिट्टी की उर्वरता नष्ट हो गई है। 25 प्रतिशत जमीन क्षारीय और जलीय हो गई है। रासायनिक तत्वों के अधिक उपयोग ने पानी और खेतों को जहरीला कर दिया है, खेती को अस्थिर बना दिया है। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में गंभीर पर्यावरणीय स्वास्थ्य समस्याएं पैदा हुई हैं। खेती से जीवन-यापन तभी संभव है, जब मिट्टी, पानी, जैव-विविधता और ज्ञान का संरक्षण किया जाए। इसके अलावा खेती कम या ज्यादा वर्षा, असमय वर्षा और जलवायु परिवर्तन से भी प्रभावित हो रही है। आज दुनिया भर में कृषि के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन भारत में इसकी शुरुआत तक नहीं हो सकी। किसानों को ट्रैक्टर, ट्रांसप्लांटर, फसल काटने की मशीन जैसे उपकरण भी आसानी से नहीं मिल पाते। ऐसे यंत्रों पर आयात शुल्क और उत्पादन शुल्क घटाना और सब्सिडी देना जरूरी है, ताकि छोटे किसान भी उन्हें खरीद सकें।

कृषि यंत्रों के साथ-साथ कृषि मजदूरी में भी सब्सिडी का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि जब से मनरेगा की घोषणा की गई है, कृषि मजदूरी की समस्या उत्पन हो गई है। इसके अलावा मनरेगा में कृषि मजदूरी को भी शामिल करना चाहिए। आकड़े बताते हैं कि देश की लगभग 400 सिंचाई परियोजनाएं पिछले 20 वर्ष से पूरी नहीं हो पाई हैं। राज्य सरकारें इन परियोजनाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं। इसके अलावा मौजूदा सिंचाई परियोजनाओं का ठीक ढंग से रख-रखाव नहीं हो रहा है। जरूरी है कि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की तर्ज पर राष्ट्रीय सिंचाई प्राधिकरण बनाया जाए, जिससे सिंचाई परियोजनाओं को धन मुहैया हो सके। इसके लिए सरकारी बांड आदि भी जारी किए जा सकते हैं। नदी घाटी प्राधिकरण बनाकर नदी जल का सही तरीके से वितरण भी जरूरी है, जिससे बाढ़ और सूखे की स्थिति उत्पन न हो। नदियों को शहरों से फैलने वाले प्रदूषण से बचाना भी जरूरी है, जिनका पानी आखिर में फल-सब्जियों तक को प्रदूषित करता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य को बदलने का भी समय आ गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन लागत से डेढ़ गुना होना चाहिए। समस्या यह भी है कि कृषि मूल्य आयोग में एक भी किसान प्रतिनिधि नहीं होता है। इसे भंग करके किसानों और कृषि वैज्ञानिकों को इसमें शामिल करना चाहिए। सरकारी खरीद के लिए भारतीय खाद्य निगम का विस्तार भी बहुत जरूरी है। सब्सिडी सीधे किसान के बैंक खाते में जमा हो, इसकी बातें तो बहुत होती रही हैं, लेकिन इस पर ज्यादा काम नहीं हुआ। अब इसे हकीकत बनाने का समय आ गया है। साथ ही ऐसी पुख्ता व्यवस्था भी जरूरी है कि सभी छोटे किसानों को फसल बीमा की सुरक्षा मिले। साथ ही इसके लिए किसी इलाके या समूह को इकाई न मानकर हर किसान को इकाई माना जाए, ताकि किसी आपदा की स्थिति में सीधे उसे मुआवजा मिले। इसके अलावा कृषि बीमा के तहत बटाईदार किसानों का ध्यान रखा जाना भी बहुत जरूरी है।

आज की तारीख में मात्र 28 प्रतिशत किसानों को ही, जिनके पास जमीन की रजिस्ट्री है, बैंकों से ऋण मिलता है और छोटे किसानों और कृषि मजदूरों को बैंकों से ऋण नहीं मिल पाता है। जो किसान किराये पर जमीन लेकर खेती करते हैं, उनको बैंकों से ऋण नहीं मिलता है। लगभग 60 प्रतिशत किसान और 70 प्रतिशत कृषि मजदूर आज कर्ज में डूबे हुए हैं और ये कर्ज निजी फाइनेंसरों से लेते हैं, जिनका ब्याज ज्यादा होता है। इसके लिए काश्तकारी अधिनियम में बदलाव की तत्काल जरूरत है। जब भी सामूहिक बीमा, स्वास्थ्य बीमा और पेंशन वगैरह की बात आती है, तो किसानों को नजरंदाज कर दिया जाता है। ऐसी पेंशन न सिर्फ सम्मानजनक होनी चाहिए, बल्कि इतनी भी होनी चाहिए कि उससे आसानी से गुजारा हो सके। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर साल संसद में अलग से एक कृषि बजट पेश हो।

ये सब किसानों की वे जरूरतें हैं, जिन्हें पूरा करने का वक्त आ गया है, लेकिन कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल इन पर ध्यान नहीं दे रहा। दलों के घोषणापत्रों में ऐसे मुद्दों को जगह नहीं मिल रही है। इसकी संभावना तभी बनेगी, जब किसान अपने वोट की कीमत को समझोंगे और एकजुट होकर राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएंगे। हरियाणा के प्रसिद्ध किसान नेता चौधरी छोटू राम ने यह सीख दी थी कि किसान बोलना सीखें और दुश्मन (वर्ग के हितों के विरुद्ध कार्यरत) को पहचान लें, तो उनका भला होगा। अब वह समय आ गया है, जब किसानों को उनकी सीख पर अमल करना चाहिए, वरना देश की अर्थव्यवस्था के हाशिये पर जा चुके किसान, देश की राजनीति के हाशिये पर भी चले जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)