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चतुर कल्याणकारी नौकरशाही-- डा भरत झुनझुनवाला

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार नियंत्रण में अभूतपूर्व सफलता हासिल की है. फिर भी मोदी का जादू धीमा पड़ता दिख रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. देश के शासन में नयी ताजगी आयी थी. वाजपेई ने कांग्रेस की कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को अंगीकार किया था.

कांग्रेस की पाॅलिसी थी कि बड़े उद्यमियों को बढ़ावा दो. इनसे टैक्स वसूल करो. इस टैक्स से आम आदमी को मुफ्त स्वास्थ, शिक्षा, मनेरगा, इंदिरा आवास आदि योजनाओं के जरिये राहत पहुंचाओ. इन योजनाओं को लागू करने को सरकारी कर्मियों की बड़ी फौज खड़ी कर लो. कल्याणकारी नौकरशाही की इस फौज के वोट कांग्रेस को मिलेंगे. इनके द्वारा आम आदमी को राहत पहुंचायी जायेगी.


इससे आम आदमी के वोट भी मिलेंगे. इस पाॅलिसी के बल पर कांग्रेस ने 1951 से 1991 तक ज्यादातर चुनाव जीते थे. लेकिन, 1998 के चुनाव में यह पाॅलिसी फेल हो गयी. कारण कि कल्याण के नाम पर खर्च की जा रही राशि का अधिकतर अंश सरकारी कर्मियों के वेतन देने में जाने लगा था. नौकरशाही ने आम आदमी को राहत पहुंचाने के नाम पर कल्याणकारी बजट को ही हड़प कर लिया था.

अर्थशास्त्र में चाणक्य कहते हैं, ‘जिस प्रकार जिह्वा पर लगे शहद का स्वाद न चखना असंभव है, उसी प्रकार सरकारी कर्मचारी द्वारा राजस्व के एक हिस्से को न हड़पना असंभव है.' आम आदमी को यह बात समझ आ गयी कि उसके नाम पर सरकारी कर्मी मौज कर रहे है.

इसलिए उसने 1998 में कांग्रेस को हटा दिया. वाजपेयी सरकार आयी और वह भी इसी पाॅलिसी पर चलती रही. तमाम उपलब्धियों के बावजूद आम आदमी ने वाजपेई को भी नकार दिया. 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने अपनी पुरानी पाॅलिसी को नया रूप दिया. किसानों के ऋण माफ किये. इसमें नौकरशाही को रोटी हड़प करने का अवसर कम ही मिला. मनेरगा की शुरुआत की. अब 2014 में यह पाॅलिसी पुरानी हो गयी और कांग्रेस बाहर हो गयी. चुनाव में जीत-हार के तमाम अन्य कारण भी हैं, लेकिन राहत न पहुंचने से आम आदमी में व्याप्त असंतोष एक कारण अवश्य है.

मोदी सरकार भी कांग्रेस तथा वाजपेई की फटी पुरानी पाॅलिसी को लागू कर रही है. किसानों के लिए साॅयल हेल्थ कार्ड की योजना बनायी गयी है. सवाल है कि जब किसान घाटे में पिट रहा है, फर्टिलाइजर खरीदने को उसके पास पैसा नहीं है, ऐसे में वह साॅयल हेल्थ कार्ड का क्या करेगा? दूसरी है जनधन योजना. इसके अंतर्गत तमाम गरीबों ने अपनी गाढ़ी कमाई की पूंजी को बैंक में जमा कराया है. परंतु, मेरी जानकारी में कम ही खाताधारकों को लोन मिले हैं. उन्होंने सब्सिडी की आशा में यह रकम जमा करायी है. सब्सिडी नहीं मिलने पर यह योजना असंतोष का कारण बनेगी.

मोदी सरकार को कल्याणकारी नौकरशाही की पाॅलिसी पर पुनर्विचार करना चाहिए. केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2014-15 में लगभग 7.4 लाख करोड़ रुपये शिक्षा, स्वास्थ, परिवार कल्याण, हाउसिंग, सामाजिक सुरक्षा आदि मदों पर खर्च किये गये थे. 2016-17 में यह रकम लगभग नौ लाख करोड़ रुपये रहेगी. यह रकम मुख्यतः चतुर कल्याणकारी नौकरशाही द्वारा हड़पी जा रही है. देश की जनसंख्या लगभग 130 करोड़ है. परिवारों की संख्या लगभग 30 करोड़ होगी. नौ लाख करोड़ की राशि, 30,000 रुपये प्रति परिवार प्रति वर्ष बैठती है.

समस्त कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके इस 30,000 रुपये प्रतिवर्ष प्रति परिवार की रकम को यदि 30 करोड़ परिवारों के खाते में सीधे डाल दिया जाये, तो सरकार पर अतिरिक्त वित्तीय भार नहीं पड़ेगा. देश के हर परिवार को 30,000 रुपयेे प्रति वर्ष अथवा 2,500 रुपये प्रति माह की रकम सीधे मिल जायेगी. इस रकम से परिवार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ एवं परिवार कल्याण की सेवाओं को बाजार से खरीदा जा सकेगा. राज्य सरकारों द्वारा कल्याणकारी नौकरशाही को अलग से पोषित किया जा रहा है. वह रकम इस 30,000 में सम्मलित नहीं है.

इस रकम को गरीब और अमीर सभी को देना चाहिए. एबव पाॅवर्टी लाइन यानी एपीएल तथा बिलो पाॅवर्टी लाइन यानी बीपीएल के जंजाल से देश को मुक्त कर देना चाहिए. कल्याणकारी नौकरशाही की सेवाएं समाप्त की जायेंगी, तब ही नौ लाख करोड़ की रकम उपलब्ध होगी.

इनकी सेवा समाप्त करने में भयंकर सामाजिक असंतोष होगा. सरकारी कर्मी ही पार्टी को चुनाव में जिताते एवं हराते हैं. इन्हे छेड़ना किसी नेता के बस की बात नहीं है. इसका उपाय है कि इन नौकरशाही में नयी नियुक्यिों पर रोक लगा दी जाये. पुराने कर्मियों के रिटायर होने पर बची रकम को देशवासियों के खाते में सीधे डालना शुरू किया जाये. नरेंद्र मोदी का जादू अब फीका पड़ रहा है. मुसलमान, दलित, सवर्ण गरीब वोटरों को राहत नहीं पहुंचायी गयी, तो 2019 में मोदी का वही हश्र होगा, जो 2004 में वाजपेयी का हुआ था.