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चीनी की कम होती मिठास - के सी त्यागी

जनसत्ता 14 अक्तूबर, 2014: महाराष्ट्र की चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की आत्महत्याओं का जिक्र करते हुए उनकी समस्याओं के समाधान का आश्वासन दिया है। उन्होंने अपनी चुनावी रैलियों में स्वीकार किया कि प्रतिवर्ष लगभग सैंतीस सौ किसान आत्महत्या कर रहे हैं, मगर दूसरी तरफ उन्होंने राज्य सरकारों द्वारा दिया जाने वाला (समर्थन मूल्य के अतिरिक्त) बोनस रोकने का फैसला किया है। केंद्रीय खाद्यमंत्री रामविलास पासवान ने घोषणा की है कि जो राज्य अतिरिक्त बोनस की घोषणा करेंगे, केंद्र सरकार उनसे अनाज नहीं खरीदेगी। धान की खेती के लिए पंजाब और हरियाणा ही मुख्यत: जाने जाते थे, पर पिछले कुछ वर्षों में मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी धान की पैदावार कई गुना बढ़ी है।

इसकी मुख्य वजह यह है कि पंजाब और हरियाणा की भांति पिछले कुछ वर्षों से इन राज्यों ने भी बोनस की घोषणा की, जिससे पैदावार में भारी वृद्धि हुई। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर केंद्र सरकार के इस फैसले पर नाराजगी जाहिर की है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि केंद्र सरकार के इस फैसले से देश में धान की खेती में कमी आएगी, जिससे भंडारण के लिए स्टॉक कम होगा और देश में खाद्य सुरक्षा का खतरा बढ़ जाएगा।

उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ तीन सौ रुपए प्रति क्विंटल बोनस देता है जो देश में सर्वाधिक है। इस अतिरिक्त बोनस का प्रदेश को यह लाभ हुआ कि वर्ष 2001 तक जहां प्रदेश में मात्र 4.6 लाख मीट्रिक टन धान की पैदावार थी, वह बढ़ कर अब 2013-14 में अस्सी लाख मीट्रिक टन हो गई है। केंद्र सरकार के इस किसान-विरोधी फैसले से देश भर में किसानों की समस्याएं एक बार पुन: चर्चा के केंद्र में आ गई हैं। पिछली सरकार ने अपने दस वर्षों के कार्यकाल में ऐसा कुछ नहीं किया जिससे किसानों की आत्महत्याएं रुकें या कम हो सकें और वर्तमान सरकार ने पिछले सौ दिनों में ऐसी कोई घोषणा नहीं की जिससे किसानों की तकलीफ कम हो।

लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को एमएसपी+50 फीसद का भाव दिलाने का आश्वासन दिया था। पर चुनाव परिणामों के एक माह के भीतर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पिछली सरकार के फार्मूले पर ही घोषित किए गए। धान और कपास का एमएसपी पचास रुपए और दालों का एमएसपी लगभग सौ रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया।
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपना पहला बजट पेश करने के बाद कहा था कि यह बजट अमीर और गरीब दोनों के लिए है। अमीरों के पक्ष में जापान से लेकर मैडिसन स्क्वायर तक काफी संकेत मिलते हैं, पर गरीबों और किसानों के पक्ष में अभी तक कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। महंगाई ज्यों की त्यों बनी हुई है। गन्ने का नया सीजन शुरू हो गया है मगर पेराई शुरू होने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। किसानों के पिछले वर्षों के करोड़ों रुपए के बकाए का भुगतान भी अभी तक नहीं हुआ, जबकि पिछली सरकार ने जाने से पहले पैंतालीस सौ करोड़ का पैकेज मिल मालिकों के लिए घोषित किया था, नई सरकार भी इस मद में 6600 करोड़ रुपए घोषित कर चुकी है।

इतना ही नहीं, चीनी मिल मालिकों के लाभ के लिए आयात शुल्क को भी पंद्रह फीसद से बढ़ा कर पच्चीस फीसद कर दिया गया है, ब्याज-मुक्त कर्ज दिए गए हैं, निर्यात बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन, पेट्रोल में एथनॉल की मात्रा पांच प्रतिशत से बढ़ा कर दस प्रतिशत कर दी गई है। कृषि मूल्य आयोग ने वर्ष 2014-15 के लिए गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) 220 रुपए प्रति क्विंटल तय किया था, जिस पर अगले वर्ष (2015-16) के लिए दस रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि का सुझाव दिया है। इस पर केंद्र सरकार को अभी फैसला करना है।

गन्ना पेराई का सीजन शुरू हो गया है, पर मिल मालिकों ने अभी तक गन्ना खरीदना आरंभ नहीं किया है, न ही खेतों को चीनी मिलों से मापा गया है कि कौन-से इलाके के किसान किस मिल में अपना गन्ना देंगे। यह काम अमूमन जुलाई-अगस्त तक कर लिया जाता है, पर इस बार जब उत्तर प्रदेश सरकार ने इसके लिए मिल मालिकों की बैठक बुलाई तो उन्होंने न सिर्फ बैठक में आने से इनकार कर दिया बल्कि चीनी मिलों को बंद करने की धमकी भी दी है। जब तक खेत खाली नहीं होंगे तब तक किसान गेहूं की बुआई की तैयारी शुरू नहीं कर सकते। गेहूं की बुआई अमूमन नवंबर माह में आरंभ हो जाती है। अगली बुआई के लिए या तो किसान अपना गन्ना औने-पौने भाव पर बेच देते हैं या फिर उसे मजबूरन अपने खेत में जलाने को विवश होते हैं।
उत्तर प्रदेश में चीनी मिल मालिक पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित 280 रुपए प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य का भुगतान करने को तैयार नहीं हैं। उनकी मांग है कि गन्ने का मूल्य रंगराजन समिति द्वारा घोषित 230 रुपए प्रति क्विंटल पर तय किया जाए, जोकि किसानों के प्रति ज्यादती होगी। चीनी मिल मालिकों का यह भी कहना है कि गन्ने का भाव चीनी के बाजार भाव के हिसाब से तय किया जाए। चीनी मिल मालिकों का तर्क है कि उनको चीनी के वर्तमान मूल्य से नुकसान हो रहा है, क्योंकि उनकी लागत लगभग 37 रुपए है और उनको 28.50 रुपए में बेचना पड़ता है।

अगर चीनी मिल मालिक अपनी लागत के हिसाब से दाम तय करना चाहते हैं तो किसानों की प्रति क्विंटल लागत कौन तय करेगा? किसान संगठनों का कहना है कि उनकी लागत साढ़े तीन सौ रुपए प्रति टन आती है और उनको मात्र 280 रुपए मिलते हैं और उसका भी भुगतान समय पर नहीं होता।
‘शुगर केन कंट्रोल आर्डर, 1966' जिसे भार्गव फार्मूला भी कहते हैं, के अनुसार गन्ना उत्पादककिसान जिस समय अपना गन्ना मिल-गेट पर पंहुचा देता है उसके चौदह दिनों के अंदर उसका भुगतान करना मिल मालिक के लिए जरूरी है, वरना उसके बाद लंबित भुगतान पर पंद्रह प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज देने का प्रावधान है। लेकिन मिल मालिकों और सरकार की मिलीभगत के कारण इस आदेश को व्यवहार में कभी उतारा नहीं जाता। किसान को एक साल बाद भी अपना पैसा शून्य ब्याज दर पर ही वापस मिल पाता है। कहने को गन्ने की फसल ‘नकद फसल' कही जाती है लेकिन यह गन्ना-उत्पादक किसानों के लिए नकद-फसल नहीं होती। नकद फसल का मकसद बेचते ही उसका पैसा हाथ में आना होता है, जबकि इस फसल का पैसा सालों तक खरीदार पर बकाया रहता है जिसे पाने के लिए किसान को लगातार संघर्षरत रहना पड़ता है।

यह विडंबना ही है कि गन्ना किसान को जितना समय फसल उपजाने पर लगाना पड़ता है लगभग उतना ही समय अपनी उपज का मूल्य पाने के लिए भी। असल में ‘नकदी फसल' की परिभाषा चीनी मिल मालिकों के लिए है, क्योंकि चीनी और उसके सह-उत्पाद को बेचते ही पैसा नकद रूप में उन्हें तुरंत हासिल हो जाता है। पिछले कई वर्षों में डीजल, कीटनाशक, बीज, खाद आदि के दाम बढ़े हैं, पर किसानों को कई वर्ष पहले तय किए हुए दाम ही मिलते हैं। ऐसे में कई-कई वर्ष अगर उनका भुगतान नहीं होगा तो गरीब किसान कैसे खेती कर सकेगा?

उत्तर प्रदेश के चीनी मिल मालिक रंगराजन समिति की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे हैं। इन सिफारिशों में कहा गया है कि चीनी मिलों को चीनी और सह-उत्पादों के दाम का सत्तर फीसद गन्ने का दाम देना पड़ेगा। जो चीनी मिलें शराब का उत्पादन भी करती हैं उनको पांच प्रतिशत अतिरिक्त लाभ देना पड़ेगा। रंगराजन समिति की रिपोर्ट यह भी कहती है कि उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) का भुगतान पहले करना पड़ेगा और गन्ने का अंतिम मूल्य पेराई सीजन के अंत में तय होगा, पर चीनी मिल मालिक एफआरपी मूल्य पहले देने को भी तैयार नहीं हैं।

दरअसल, देखा जाए तो चीनी मिल संगठन अपनी पूंजी के दम पर सरकार पर हर प्रकार से दबाव बना कर अपनी बात मनवा लेते हैं और गरीब किसानों की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। एक बार जब किसान अपना उत्पाद लेकर मंडी चला जाता है तो वहां उसे जो भी भाव मिलता है उसे अपना उत्पाद उसी भाव में देना पड़ता है क्योंकि वह अपने उत्पाद को वापस नहीं ला सकता।

इलाहाबाद हाइकोर्ट के लखनऊ खंडपीठ ने चीनी मिलों को निर्देश दिया कि उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें अपना पंद्रह प्रतिशत चीनी का स्टॉक तीन सप्ताह में बेच कर उसका तीस प्रतिशत गन्ना उत्पादककिसानों को भुगतान करें और शेष सत्तर प्रतिशत अलग बैंक खाते में जिलाधिकारी की देखरेख में रखें। अदालत ने कहा कि यह कार्रवाई जिलाधिकारी की देखरेख में हो और चीनी मिलों के खिलाफ कोई भी दमनकारी कार्रवाई न की जाए। हैरानी की बात है कि जिन चीनी मिलों ने उच्च न्यायालय के आदेश को अभी तक नहीं माना, उन पर कोई अवमानना की कार्रवाई भी नहीं की गई है। चीनी के भुगतान का बकाया सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में है, जो अब भी 3,055 करोड़ है और कर्नाटक में लगभग 1,802 करोड़।

पूरे देश का पेट भरने वाला किसान आज अपने परिवार का पेट पालने में सक्षम नहीं है। विदर्भ, जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की, वहां प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और पूर्व कृषिमंत्री को कठघरे में खड़ा किया, मगर उन्होंने इस पर कोई चर्चा नहीं की कि उनकी सरकार इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाएगी और कब?

नई सरकार की प्राथमिकताएं व्यापार जगत के लिए हैं। खेती और ग्रामीण भारत उसके एजेंडे से बाहर है। जिस सरकार ने अमदाबाद-मुंबई मार्ग पर बुलेट ट्रेन चलाने के लिए सत्तर हजार करोड़ का प्रावधान किया है, उसके बजट में देश की साठ फीसद असिंचित भूमि के लिए मात्र एक हजार करोड़ की व्यवस्था है जिसमें दस जिलों की सिंचाई होना भी असंभव है।

केंद्र और राज्य सरकारों ने चीनी मिल मालिकों को ही सभी प्रकार से सहूलियतें प्रदान की हैं, गरीब किसानों को कुछ नहीं दिया है। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून पर भी केंद्र की नई सरकार संशोधन लाने का विचार कर रही है। भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव कर उसे पूंजीपतियों के पक्ष में करने का प्रयास वह कर रही है। दूसरी तरफ विश्व व्यापार संगठन भी भारत पर खाद्य सबसिडी घटाने का दबाव बना रहा है। जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश में खाद्य सबसिडी भारत से कहीं अधिक मात्रा में दी जाती है। ऐसे में नई सरकार, जो अपना सारा ध्यान एफडीआइ पर लगा रही है, इन दबावों से देश के किसानों के हितों की रक्षा कब तक कर सकेगी यह आने वाला वक्त ही बताएगा।