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चुनाव के समय ही उनकी याद आती है- अनुराग दीक्षित

लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों को अचानक देश के मुसलमानों की याद आ गई है। हर दल खुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने में जुटा है। कांग्रेस नए-पुराने 15 सूत्रीय कार्यक्रमों समेत अपनी तमाम योजनाएं गिना रही है। वैसे यूपीए शासनकाल में अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन और अल्पसंख्यक छात्र-छात्राओं के लिए छात्रवृत्ति जैसे अहम काम हुए भी हैं। हां, यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री भी अल्पसंख्यक कल्याण को लेकर अपनी सरकार की नाकामियां स्वीकार चुके हैं।

वहीं दूसरी तरफ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी भी मुसलमानों का दिल जीत लेने का भरोसा दिला रहे हैं। गुजरात के मुसलमानों की कथित विकास गाथा सुनाई जा रही है। मानो 2002 के दंगें कहीं और हुए थे? वैसे गुजरात में ही मुस्लिम बच्चों को दी जाने वाली छात्रवृति के विरोध में राज्य सरकार सर्वोच्च अदालत तक पहुंच चुकी है। कांग्रेस और भाजपा ही नहीं, चुनावी समर में सपा, बसपा, जद(यू), राजद, तृणमूल समेत अन्य दल भी दावों की इस दौड़ में पीछे नहीं हैं।

चुनाव के वक्त मुसलमानों को याद करने वालों को उनकी राजनीतिक भागीदारी की बात भी करनी चाहिए। पिछले छह दशक में 432 मुसलमान ही बतौर सांसद लोकसभा पहुंचे हैं। मौजूदा 15वीं लोकसभा में कांग्रेस के केवल 11 मुस्लिम सांसद हैं, जबकि भाजपा के� एक। अन्य दलों का भी यही हाल है। कुल मिलाकर 15वीं लोकसभा में सिर्फ 6 फीसदी ही मुस्लिम सांसद हैं, जबकि देश में उनकी आबादी 13-14 फीसदी के आसपास है।

वैसे राज्यवार स्थिति को समझें, तो असंतुलन साफ दिखता है। जैसे, राजस्थान में आज तक केवल दो मुस्लिम सांसद चुने गए हैं। गुजरात में पिछले 30 वर्षों में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं बन सका है। उत्तर प्रदेश जैसे सूबे में आज तक कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। तो क्या मान लें कि कांग्रेस व अन्य कथित सेक्यूलर दल भी भाजपा के साथ ही खड़े हैं? जाहिर है, राजनीतिक भागीदारी के मामले में मुसलमान हाशिये पर खड़ा है। वैसे सियासी भागीदारी को भूल जाएं, तो भी क्या मुसलमान विकास की मुख्य धारा से जुड़ सका है। यदि सब कुछ अच्छा होता, तो सच्चर कमेटी गठित करने की जरूरत ही न आती!

राजनीतिक पंडितों के मुताबिक, मुसलमान देश की 100 से ज्यादा संसदीय सीटों पर अहम भूमिका निभाते हैं। शायद इसीलिए उन्हें सिर्फ वोट बैंक ही माना जाता रहा है। आज भी मदरसा, वक्फ बोर्ड, कब्रिस्तान, हज जैसे मामलों तक ही उलझाए रखने की कोशिशें होती रही हैं। इन गंभीर हालातों के बीच एकाध बड़े मुस्लिम धर्मगुरु अचानक पार्टी प्रवक्ता भी बन जाते हैं। जबकि यह कतई संभव नहीं है कि 2014 की राजनीति में किसी एक धर्मगुरु के कहने भर से पूरा समाज किसी एक दल को वोट डाल देगा। बेहतर हो कि ऐसे धर्मगुरु अपने समाज के विकास से जुड़े बुनियादी मुद्दों पर ध्यान दें।

आंकड़े बताते हैं कि अल्पसंख्यकों के लिए चल रही योजनाओं का लाभ मुसलमान नहीं ले पा रहे हैं। अच्छा हो कि धर्मगुरु उन्हें जागरूक करें। इन सबके बीच राष्ट्रीय मीडिया भी केवल टोपी पहनने या न पहनने पर घंटों की चर्चा तक ही खुद को सीमित न करके गंभीर मुद्दों पर फोकस करे। अफसोस है कि मुसलमानों के प्रति अत्यधिक गंभीरता के दावों के बीच आम चुनाव ध्रुवीकरण की राजनीति पर ही लड़ा जा रहा है। विकास का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है। समाज को बांटकर अपनी सियासी रोटियां सेंकने वालों से फिर कैसे ईमानदारी की उम्मीद की जाए? फिलहाल इंतजार करना होगा। इस उम्मीद के साथ कि शायद जल्द ही भारतीय राजनीति परिपक्व और ईमानदार हो सकेगी। इसके अलावा कोई अन्य विकल्प भी तो नहीं है।