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चुनावी एजेंडे से उन्हें क्यों बाहर रखा जाता है- सुभाषिनी अली

मुझे बैरकपुर के चुनाव क्षेत्र में रहते अब 20 दिन हो चुके हैं। श्यामनगर, जहां मैं रह रही हूं, वह गांव और छोटे शहर का एक मिला-जुला इलाका है। श्यामनगर का स्टेशन करीब है और यहां से कोलकाता तक जाने वाली लोकल ट्रेनों ने, जो कई दशकों से चल रही है, शहर और शहर से मिलने वाले रोजगार से यहां के लोगों को जोड़कर इलाके को नीम-ग्रामीण बना दिया है।

मेरे घर के सामने, पतली सड़क के किनारे 11 बजे के बाद सूखते हुए पापड़ फैल जाते हैं। क्षेत्र की गरीब औरतें घर खर्च चलाने के लिए दिन भर पापड़ बेलती हैं। मेरे घर के ठीक सामने शोभा रहती है। उसके साथ उसका पति, बेटा, बहू, छोटा-सा पोता और उसकी जवान बेटी रहती है। शोभा के पति की तबियत ठीक नहीं रहती। जब ठीक रहती है, तो वह थोड़ा-बहुत काम कर लेता है। शोभा का बेटा दिहाड़ी मजदूर है। वह शारीरिक रूप से कमजोर है। एक दिन बड़ा बोझा सिर पर लादने के बाद उसके गले की नस में दर्द उठा। अब वह बोझा उठा नहीं सकता और हल्का काम तो कम ही मिलता है। सो घर चलाने का भारी बोझा अब शोभा, उसकी बहू और बेटी के कमजोर कंधों पर है।

शोभा दुबली-पतली और जीवंत महिला है। वह हंसती रहती है और कभी-कभी गा लेती है। उसे हंसने और गाने की हिम्मत कहां से मिलती है, कौन जाने! क्योंकि उसके काम के घंटों और हाड़तोड़ मेहनत की नपाई करना कठिन है। शोभा रोज सुबह चार बजे उठकर साढ़े चार बजे की लोकल गाड़ी पकड़ती है। इसके लिए उसे एक किलोमीटर दूर स्टेशन तक पैदल जाना पड़ता है। पड़ोस की कई औरतें भी उसके साथ जाती हैं। आजकल ट्रेन के डिब्बों को राजनीतिक चर्चाएं और भी ज्यादा गरम बना रही हैं। उनके दुखड़े कौन सुन रहा है-ये बातें इन औरतों को उद्वेलित करती रहती हैं।

ट्रेन से एक घंटे के सफर के बाद शोभा मध्यमग्राम पहुंचती है, जहां पापड़ का डिपो है। सौभाग्य से वह स्टेशन से बिल्कुल सटा हुआ है। लेकिन वहां शोभा को करीब दो घंटे लग जाते हैं। औरतों की लाइन लगी होती है और नाप-तौल में भी समय लग जाता है। फिर वह ट्रेन से ही श्यामनगर लौटती है। स्टेशन पर उतरकर अपनी सहयात्रियों के साथ राहत की लंबी सांस लेती है। आज भी चेकिंग से बच गए।

वैसे तो राज्य सरकार ने शोभा जैसी काम पर जाने वाली गरीब औरतों के लिए एक योजना चालू की थी, जिसके अंतर्गत उन्हें कम दाम पर 'इज्जत' नामक ट्रेन का मासिक पास मिलना था। शोभा ने बताया कि उसके साथ काम पर जाने वाली किसी भी महिला को यह पास नहीं मिल पाया, क्योंकि उसे पाने के लिए सांसद या विधायक की चिट्ठी की जरूरत पड़ती है।

धूप निकल चुकी होती है और माथे से पसीना पोछती हुई शोभा पापड़ के लिए चने की दाल लेकर घर पहुंचती है। एक दिन के पापड़ का शोभा के परिवार के लिए मतलब है 130 रुपये। लेकिन बरसात में यह काम बंद हो जाता है और एक-एक दिन बहुत मुश्किल से कटता है।

दस दिन पहले, अचानक आंधी आ गई। तेज पानी बरसा और रात को इतने बड़े ओले गिरे कि जितने मैंने उत्तर भारत में कभी नहीं देखे थे। लोग रात भर भीगते रहे। पापड़ तो बर्बाद हो ही गए। शोभा की छत के खपरैल भी टूट गए। एक खपरैल पांच रुपये में मिलता है। मेहनत पर पानी फिर गया ऊपर से यह नया खर्च।

शोभा के पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड नहीं है। वैसे भी पश्चिम बंगाल में बीपीएल कार्ड सबसे कम है और उन पर मिलने वाला राशन भी अन्य राज्यों से बहुत कम है। चुनाव तो सिर पर है ही, लेकिन शोभा जैसी करोड़ों औरतों के जीवन को जब तक सुधारने की नीतियां चुनाव का एजेंडा नहीं बनेंगी, तब तक हमारा गणतंत्र कितना सार्थक समझा जाएगा?