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चुनावी माहौल में हाशिये पर अर्थनीति- अश्विनी महाजन

राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी से भारी शिकस्त के बाद घबराई कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्रियों का एक सम्मेलन बुलाकर महंगाई रोकने की जो बात कही है, वह हास्यास्पद ही है। तथ्य यह है कि पिछले तीन-चार वर्षों से महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 2010 की तुलना में कीमतें अब तक 40 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं। खाने-पीने की चीजों के दाम 48 प्रतिशत बढ़ चुके हैं।

एक गरीब परिवार 2010 में अपने खाने-पीने की जितनी चीजों पर सौ रुपये खर्च करता था, अब उतनी ही चीजों के लिए उसे 146 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। महंगाई के इस तांडव के कारण केंद्र सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है। पिछले कई वर्षों से सरकार लगातार महंगाई को रोकने के दावे करती रही है, लेकिन होता कुछ नहीं है।

कुछ साल पहले सरकार द्वारा व्यापारियों के गोदामों पर छापे मारकर महंगाई रोकने की बात कही गई, तो खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को आमंत्रित करते हुए महंगाई रोकने का दावा किया गया। कभी महंगाई रोकने के लिए अच्छे मानसून की प्रतीक्षा करने की बात की जाती है, तो अब कांग्रेस शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को बुलाकर महंगाई रोकने की लालसा व्यक्त की जा रही है। प्रधानमंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और वित्त मंत्री सभी अर्थशास्त्र के बड़े ज्ञाता माने जाते हैं। इसके बावजूद संप्रग सरकार द्वारा महंगाई रोकने के अटपटे प्रयास क्यों किए जा रहे हैं, यह समझ से परे है।

अर्थशास्त्र महंगाई बढ़ने के दो प्रमुख कारण बताता है। एक है, मांग में वृद्धि और दूसरा है, लागत में वृद्धि। दरअसल सरकार को मांग और लागत बढ़ने के कारणों को ठीक करना होगा।

वित्त मंत्री ने पिछले साल बजट पेश करते हुए कहा था कि राजकोषीय घाटा किसी भी हालत में जीडीपी के 4.8 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगा। लेकिन सरकार द्वारा जो काम किए जा रहे हैं, उससे इन दावों की सच्चाई पर सवालिया निशान लग रहा है। पिछले कुछ समय से देश में विकास दर लगातार घटती जा रही है। वर्ष 2009-10 में जो दर 9.3 प्रतिशत थी, वह 2011-12 और 2012-13 में घटती हुई क्रमशः 6.2 और पांच प्रतिशत रह गई। इस साल इसके मात्र 4.5 प्रतिशत ही रहने की आशंका है। विकास दर के थमने का एक मुख्य कारण मैन्युफैक्चरिंग में ग्रोथ का घटना है।

गौरतलब है कि वर्ष 2007-08 में मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ 15.6 प्रतिशत थी, जो पिछले पांच वर्षों में औसत 3.9 प्रतिशत ही रह गई है। इसका मतलब यह है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में उत्पादन थम-सा गया है। पूंजीगत वस्तुओं के संदर्भ में यह वृद्धि दर ऋणात्मक हो गई है, यानी पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन अब पहले से भी कम रह गया है। सरकार की लगातार अनदेखी के चलते कृषि उत्पादन भी अपेक्षित गति से नहीं बढ़ पा रहा। हमारी ग्रोथ का सारा दारोमदार अब सेवा क्षेत्र पर आ गया है, जिसकी अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में एक ओर बढ़ती मुद्रा की पूर्ति के कारण बढ़ती मांग और दूसरी ओर थमता हुआ औद्योगिक और कृषि उत्पादन, देश में महंगाई को लगातार बढ़ाता जा रहा है।

ऐसे में, सरकार क्या करे? महंगाई को थामने के लिए उसे अपने खर्च थामने होंगे, ताकि राजकोषीय घाटा कम हो। शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं के खर्च में कटौती करने के बजाय लोकलुभावन नीतियों पर लगाम कसनी होगी। अगले चुनाव में वोट बटोरने की लालसा से आनन-फानन में पारित खाद्य सुरक्षा कानून और अन्य घोषणाओं को राष्ट्रहित में रोकने की जरूरत है। इसके अलावा कॉरपोरेट क्षेत्र को दी जा रही कर रियायतों को वापस लेना होगा।

वोडाफोन सरीखी विदेशी कंपनियों से कर वसूलना होगा और वे तमाम उपाय अपनाने होंगे, जिससे सरकार की आमदनी बढ़े। हर कीमत पर ब्याज दरों को और बढ़ने से रोकना होगा, ताकि देश में औद्योगिक विकास और इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण को बल मिले। विदेशों से औद्योगिक उत्पादनों, विशेष तौर पर उपभोक्ता और इंजीनियरिंग उत्पादों के आयात पर रोक लगानी होगी। इससे मंदी की मार झेल रहे उद्योग अपने उत्पादन में वृद्धि कर सकेंगे। अव्वल तो मनमोहन सिंह सरकार ने अब तक इस मोर्चे पर हताशा का ही परिचय दिया है। फिर लोकसभा चुनाव से पहले वह आर्थिक मुद्दों को ज्यादा तरजीह देगी, इसमें भी संदेह है।

जब पहले ही यूपीए सरकार ने महंगाई रोकने की दिशा में काम नहीं किया, तो अब क्या करेगी!
अर्थव्यवस्था
अश्विनी महाजन